Wednesday, December 29, 2010

सुख

मैं एक व्यवसायी हूँ. एक सफल व्यापारी. व्यापार के कायदे कानून ठीक से जानता हूँ. कुछ लोग मुझे पसन्द नहीं करते, पीठ पीछे मेरी बुराई भी करते हैं. मैं जानता हूँ. किन्तु व्यापार में ये सब तो चलता ही है. सामने तो अधिकांश लोग मेरा सम्मान ही करते हैं!

वस्तुतः मैं धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति हूँ. नित नियमित पूजा-पाठ, मन्दिर जाना, दान-पुण्य, चन्दा देना, सभी धार्मिक अनुष्ठानों में नियमित भागीदारी, ये सब मेरे जीवन के अभिन्न अंग हैं.

पिछले सप्ताह एक चमत्कार हुआ. एक योगी बाबा के दर्शन हुए. अपनी आदत के अनुसार मैंने यथासंभव उनकी सेवा की. बाबा प्रसन्न हुए. बोले, "माँगो वत्स; क्या चाहते हो?"

मुझे लगा, मानो साक्षात ब्रह्म के दर्शन हो गये हों.

मांगने को बहुत कुछ था किन्तु मैं कुछ ऐसा मांगना चाहता था जिससे सभी कुछ मिल जाए.

मैंने बचपन में वह कहानी सुनी थी जिसमें एक व्यक्ति को एक सिद्ध पुरुष ने दो वरदान मांगने को कहा. वह व्यक्ति आलसी था और अपनी पत्नी से परेशान भी. उसने दो वर मांगे - एक, उसकी हथौड़ी अपने आप चलती जाए और दूसरे, जब तक वह चाहे, उसकी पत्नी कुर्सी से चिपकी रहे ताकि उसे परेशान न कर सके. ऐसे तुच्छ वरदान मांगकर उसने ऐसा स्वर्णिम अवसर व्यर्थ कर डाला.

मैं ऐसी बेवकूफ़ी नहीं करना चाहता था. अपनी समझ और ज्ञान का परिचय देते हुए मैंने निवेदन किया, "प्रभु! यदि आप मुझ तुच्छ प्राणी पर कृपा करना चाहते हैं तो मुझे सुख प्रदान करें."

"सुख से तुम्हारा क्या अभिप्राय है, वत्स. इम्पोर्टेड कार, एयरकण्डीशनर, कोठी - तुम किस वस्तु को सुख मानते हो? बोलो पुत्र, आज हम प्रसन्न हैं," योगीश्री मुस्कुराते हुए बोले.

मैं किसी वस्तु विशेष का नाम लेकर अपने वरदान को सीमित नहीं करना चाहता था. योगी थे, कि मुझसे स्पष्ट शब्दों में निवेदन करने को मुझे बाध्य कर रहे थे. मैंने तनिक विचार कर पुनः निवेदन किया, "प्रभु! मैं तुच्छ प्राणी क्या निवेदन करूँ? सुख का जो भी अर्थ आपकी दृष्टि में हो, मुझे वही प्रदान कर कृतार्थ करें."

योगी महाराज ने अर्थपूर्ण निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा, "हमारी दृष्टि का सुख पाकर तुम प्रसन्न तो होगे बच्चा?"

"क्यों नहीं महाराज," मैं अपनी सफलता पर अभिभूत था. अन्ततः मैंने योगीश्री को मनचाहा वर देने के लिए राजी कर ही लिया था!

"तथास्तु," कहकर उन्होंने अपने कमण्डलु से पानी के छींटे मेरे मुँह पर दे मारे.

पलक झपकते ही मेरी काया-पलट हो गयी. मेरी वेशभूषा एक साधू के समान हो गयी. भगवा वस्त्र, हाथ में कमण्डलु, मस्तक पर तिलक, गले में मालाएँ. मैं अचम्भित, किंकर्त्तव्यविमूढ़ था.

"चलो बालक, तुम इस संसार से मुक्त हो. आज से तुम सन्यस्त हुए. अब तुम हमारे साथ हिमालय की कन्दराओं में तप के लिए प्रस्थान करो," योगी जी महाराज पूर्ववत मुस्कुराते हुए, किन्तु आदेशात्मक स्वर में बोले.

मेरा जैसे स्वप्न भंग हुआ. योगी के चेहरे की मुस्कान मुझे कुटिल लगने लगी. उनकी शक्ति का चमत्कार मैं देख चुका था, अभी-अभी भुगत चुका था. प्रतिवाद करना खतरे से खाली न था. इस विषम परिस्थिति में भी मैंने आत्मसंयम खोया नहीं. योगी के चरणों में मैं साष्टांग लेट गया और निवेदन किया, "भगवन! आप महान हैं. किन्तु मैं तो आपसे सुख मांग रहा था और आप मुझसे मेरा सब कुछ छीन ले रहे हैं! क्षमा याचना करता हूँ प्रभु, किन्तु मैंने ऐसा तो नहीं कहा था."

योगी अभी भी यथावत थे. मेरी आशंका के विपरीत वह क्रोधित न हुए. बोले, "बच्चा. हमारी दृष्टि का सुख तो यही है. इस नश्वर संसार को त्याग कर प्रभु की शरण में जाने वाले मार्ग से सुन्दर कोई मार्ग नहीं है और इस मार्ग पर चलने से बढ़कर कोई सुख नहीं!"

मेरी समझदारी ही मेरी दुश्मन बन गयी थी. मैं अपने ही चक्र में फंस गया था. इससे तो अच्छा होता मैं एक नया बंगला मांग लेता, अपनी पत्नी का स्वास्थ्य, बच्चों के लिए अच्छा व्यवसाय, या फिर और कुछ! यह मैं क्या मांग बैठा!

मैंने योगी के पाँव कसकर पकड़ लिये. आवाज़ में यथासंभव आदर-भाव लाकर मैंने पुनः निवेदन किया, "प्रभु! मैं यह वरदान पाकर धन्य हो गया. किन्तु मेरे हालात कुछ ऐसे हैं कि मैं अभी सन्यास नहीं ले सकता. बच्चे अभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए हुए; मेरा अपना व्यवसाय भी अभी कुछ विशेष जमा नहीं. ऐसे में मैं तो सन्यास लेकर निश्चित ही धन्य हो जाऊंगा किन्तु मेरे बीवी-बच्चों के साथ तो यह अन्याय हो जाएगा! क्षमा चाहूँगा भगवन, किन्तु मैं यह अन्याय कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ."

मुझे भय था कि यह सुनकर योगी रुष्ट हो जाएंगे. वह मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए बोले, "वत्स! मनुष्य की तर्क-पद्धति बहुत विचित्र है. वह किसी नियम के अनुसार नहीं चलती बल्कि अपने किंचित स्वार्थ एवं सुविधा से परिचालित होती है. मनुष्य स्वयं को कितना भी बुद्धिमान क्यों न माने, वह नहीं जानता कि उसका हित क्या है और शुभ क्या है. हम तुमसे तर्क-वितर्क करने नहीं आये. हमने तुम्हें एक वरदान मांगने को कहा और तुमने उसका प्रयोग कर लिया."

मुझे लगा जैसे उस योगी ने मुझे तान्त्रिक-शक्ति से कैद कर लिया हो. मन ही मन छटपटाते हुए मैंने विनम्रतापूर्वक रुंधे गले से कहा, "प्रभु! मैं, आपसे और वरदान नहीं मांग रहा. मैं तो मात्र इतना निवेदन कर रहा हूँ कि मुझे आप पूर्ववत सामान्य व्यक्ति बना दें. मुझे सन्यास लेने के लिए बाध्य न करें."

योगी महाराज के चेहरे के भाव पढ़ना कठिन था. वह बोले, "भक्ति का मार्ग मनुष्य को सुख देता है, उसे प्रतारणा नहीं. हम तुम्हारा मार्ग प्रशस्त तो कर सकते हैं, तुम्हें भक्ति नहीं दे सकते. भक्ति की कृपा तो स्वयं ईश्वर ही कर सकता है."

"परेशान न हो बच्चा. यह मार्ग तुम्हारे मांगने पर ही हमने तुम्हें दिया था. इसपर चलने के लिए तुम बाध्य नहीं हो," कहते हुए योगी ने पुनः जल के कुछ छींटे मुझ पर मारे. मैं पूर्ववत हो गया.

मैंने योगी के चेहरे को देखा. मुझे अब उस चेहरे पर व्याप्त मुस्कान कुटिल नहीं बल्कि भव्य और महान दीख रही थी. उनके मस्तक पर अपूर्व तेज था. इतनी सरलता से छुटकारा पाकर मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था. मुझे लगा, जैसे मैं उनके मस्तक के तेज को आत्मसात कर लूँ.

मैंने एक बार पुनः अपना सिर उन महान योगी के चरणों में रखकर निवेदन किया, "मुझसे भूल हो गयी भगवन! मुझे क्षमा करें. वस्तुतः मैं भक्तिमार्ग अपना सकूँ, इस योग्य नहीं हूँ, इसका ज्ञान तो आपने मुझे करा दिया. आपकी दृष्टि के सुख को मैं सुख नहीं मान सका क्योंकि मेरा हृदय अभी अपवित्र है. ईश्वर ने इसीलिए मुझे भक्ति का दान नहीं दिया. यह भी मैं समझ गया. किन्तु सुख की प्राप्ति के लिए क्या सन्यास लेना आवश्यक है?"

"कदापि नहीं पुत्र. एक सन्यस्त व्यक्ति का सुख सच्चे सन्यास में है. एक गृहस्थ के लिए सुख की परिभाषा यह नहीं," योगी महाराज ने स्पष्ट कहा.

"तो फिर ग्रृहस्थ का सुख क्या है? सुख देने वाली प्रायः सभी वस्तुओं का संग्रह और उपभोग मैं कर रहा हूँ. फिर भी मैं सुखी अनुभव क्यों नहीं करता," मैंने जिज्ञासा व्यक्त की.

"क्योंकि जिसे तुम सुख कह रहे हो, वह सुख है ही नहीं. ये सब तुम्हारी आकांक्षाएं मात्र हैं जिनका जन्म माया की चकाचौंध से हुआ है. इन आकांक्षाओं की पूर्ति की हवस में मनुष्य सुख का विचार ही नहीं करता.

अन्तर्मन में सच्चे सुख का अहसास होते हुए भी मनुष्य उसके प्रति आंखें मूंद लेता है - वह उसे निर्मूल प्रतीत होता है. सुख के पीछे मनुष्य की दौड़ सिर झुका कर दौड़ रहे सूअर की दौड़ के सदृश है. क्या यह दौड़ उसे वास्तविक सुख दे सकती है? ऐसा सुख तो मनुष्य के आत्मक्षय का कारण ही बन सकता है. इस सुख की अभिलाषा ही व्यक्ति को क्षोभ व असन्तोष देती है - और अन्ततः विक्षिप्तता!"

"तो क्या मनुष्य इच्छा करना छोड़ दे, कार्य करना ही छोड़ दे," मैंने बीच में टोका.

"इच्छा किसकी? बहुधा मनुष्य धन, सत्ता और शक्ति में सुख ढूँढता है. यह सुख नहीं, सुख का भ्रम है. इस सुख की प्राप्ति में व्यक्ति मदमस्त हो सकता है, सुखी नहीं. और यही सुख मनुष्य को अनवरत भय और पीड़ा भी देता है. भय, अपने संग्रहीत ’सुखों’ के खो जाने का, और पीड़ा इनके वास्तव में खो जाने पर; क्योंकि ये समस्त सुख नश्वर ही तो हैं," योगीश्री सीधे-सीधे सच बोलते जा रहे थे. ऐसा सच जिससे हम सब बचते-फिरते हैं.

"धन, शक्ति और सत्ता की नहीं तो फिर किन सुखों की इच्छा मनुष्य को करनी चाहिए," मैं स्वयं को रोक नहीं पाया, यह प्रश्न करने से.

"प्रत्येक मनुष्य जानता है कि सुख क्या है. आवश्यकता है उसे पहचानने की. एक रुग्ण व्यक्ति जानता है कि उसे हलका-फुलका आहार लेना चाहिए. फिर भी उसे चाट-पकौड़ी और पकवान ही आकृष्ट करें तो वह उनका सेवन स्वास्थ्य की कीमत चुका कर ही कर सकता है," योगीश्री ने स्पष्ट किया.

"फिर भी कृपा कुछ तो स्पष्ट करें कि सुख क्या है! मैं मूर्ख उससे कुछ दिशा-निर्देश ही ले लूँगा," मैंने आग्रह किया.

"सुख है प्रेम करना - सम्पूर्ण जगत से - बिना प्रतिदान की अभिलाषा के.

"मनुष्य का शरीर नश्वर है पुत्र. शाश्वत तो है केवल मनुष्य का विवेक, विश्वास और प्रेम. यह प्रेम उस निराकार ब्रह्म से भी हो सकता है और उसके द्वारा रची गयी इस सृष्टि से भी," योगी जी महाराज पूर्ववत मुस्कुरा रहे थे!

नज़दीक से

- विक्रम शर्मा

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