मैं हतप्रभ हूँ! मुझे क्लब बुद्धिवादी से निष्कासित किया जा रहा है. ये लोग मुझे निष्कासित करेंगे? ये आधे दिमाग वाले लोग स्वयं को बुद्धिवादी कहते हैं जिन्हें अपने हित की समझ तक नहीं?
बुद्धिवादी क्लब हमारी पैतृक परम्परा का अंग रहा है. मेरे दादाजी और दादी जी इस क्लब के आजीवन सदस्य थे. उस ज़माने में इस क्लब की सदस्यता कम ही लोगों के पास होती थी. महत्त्वाकांक्षाएं सीमित हुआ करती थीं. क्लब की सदस्यता की होड़ कम होती थी. क्लब की सदस्यता के लिए अपेक्षित था पढ़ा-लिखा होना, सामान्य ज्ञान और धर्म का ज्ञान होना. दादाजी तो बहुत पढ़े-लिखे थे, किन्तु दादी जी औपचारिक रूप से विशेष पढ़ी-लिखी नहीं थीं. फिर भी उन्हें इस क्लब की सदस्यता मिल गयी थी - अपने धार्मिक आचरण तथा धार्मिक पुस्तकें एवं मन्त्रादि कण्ठस्थ होने के आधार पर.
समय के साथ-साथ इस क्लब की सदस्यता की उपयोगिता बढ़ने लगी. सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए एक सहज सीढ़ी के रूप में इसका प्रयोग किया जाने लगा और इसकी सदस्यता के लिए होड़ लगने लगी. पारिवारिक परम्परा का निर्वहन करते हुए मेरे माता-पिता भी इस क्लब के आजीवन सदस्य रहे और उन्होंने मुझे 20 वर्षों की औपचारिक शिक्षा दिलायी जिससे मैं भी इस क्लब का एक सम्मानित सदस्य बन सकूं.
सतत परिवर्तनशील बुद्धिवादियों से स्वयं बुद्धिवाद भी नहीं बच सका. समय के साथ-साथ बुद्धिवाद की परिभाषा भी बदलती गयी. जो धर्म कभी बुद्धिवाद की पहली शर्त हुआ करता था, अब एक बड़ी अयोग्यता बन गया! पहले कभी बुद्धिवादी और पण्डित शब्द पर्यायवाची हुआ करते थे. अब तो पण्डित शब्द बुद्धिवादियों के लिए किसी गाली से कम नहीं!
उसी क्रम में आज बुद्धिवादी क्लब से मुझे निष्कासित करने की बात की जा रही थी.
लोग चीख-चीख कर कह रहे थे, "निकालो इस जाहिल को बाहर. इसे पहले भी कई बार चेतावनी दी जा चुकी है. यह वही है न जो एम. एफ़. हुसैन द्वारा बनायी गयी हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न पेण्टिंग्स पर आपत्ति कर रहा था? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर उंगली उठाता है! वह भी दो कौड़ी के धर्म, परम्परा एवं आस्था के नाम पर! बाहर निकालो इस बेवकूफ़ को इस क्लब से!"
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी, "और सार्वजनिक स्थलों पर मर्यादा में रहने की बात भी तो यही कर रहा था! वैयक्तिक स्वतन्त्रता पर पहरा लगाने वाले इस गँवार को भीतर आने किसने दिया? वैयक्तिक स्वतन्त्रता पर किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सकता."
मैंने प्रतिरोध किया, "वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अर्थ समझते हैं आप? वैयक्तिक स्वतन्त्रता के नाम पर यदि मैं आपको गाली दूँ तो क्या आपको स्वीकार्य होगा?"
"अवश्य स्वीकार्य होगा. उसके बाद हम तुझे पीटने के लिए भी तो स्वतन्त्र हैं," उसी कोने से ठहाका गूँजा.
"यह तो एकदम जाहिल व्यक्ति है. उस दिन यह मुक्त यौन सम्बन्धों को व्यभिचार कह रहा था," फ़्रैंच-कट दाढ़ी वाले बुद्धिवादी ने बहुत सोच-समझ कर कहा. "और विवाह किए बिना लिव-इन सम्बन्धों पर भी को भी अनुचित कह रहा था यह," लम्बे बालों को चुटिया में बांधते हुए हुए एक प्रौढ़ बुद्धिवादी ने जड़ा.
क्लब में मेरे कुछ मित्र भी थे. मैंने समर्थन की अपेक्षा से उनकी ओर देखा. वे असहाय दिख रहे थे. बहुमत में बहुत शक्ति होती है. बहुमत चाहे बुद्धिवादियों का हो अथवा अनपढ़ लोगों का, उसका चरित्र एक-सा होता है - बेपरवाह और गैर-जिम्मेदाराना.
मुझे अकेला पाकर समवेत स्वर में पुकार होने लगी, "इस दकियानूसी को बाहर निकालो. हमें परिवर्तन चाहिए. बुद्धिवादी क्लब परिवर्तन के लिए है. सब बदल डालो. सब परम्पराओं को मिटा डालो. जो परिवर्तन नहीं चाहता उसे दकियानूसी क्लब में डाल दो. बाहर करो इसे."
"यदि यही बुद्धिवाद की परिभाषा है, तो मुझे स्वयं नहीं रहना बुद्धिवादी. किन्तु भगवान के लिए मुझे दकियानूसी तो न कहो." भारी मन से यह कहकर बाहर निकलने के लिए मैंने दरवाज़ा खोला. दरवाज़ा सीधे दकियानूसी क्लब में खुलता था. मैंने घबराकर दरवाज़ा बंद किया और वापस आ गया. बुद्धिवादी ठहाका मारकर मेरा उपहास उड़ा रहे थे. मैंने भागकर दूसरा दरवाज़ा खोला. वह भी दकियानूसी क्लब में ही खुलता था. एक-एक कर मैंने सारे दरवाज़े खोल कर देख लिए. सब दकियानूसी क्लब में ही खुलते थे.
मैं थकावट से हाँफ़ रहा था. एक परिपक्व से दिखने वाले बुद्धिवादी कह रहे थे, "दो ही रास्ते हैं तुम्हारे पास. या तो दकियानूसी कहलाने को तैयार हो जाओ, वरना जैसा हम कहें, वैसा ही तुम भी कहो!"
अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों मेरे मित्र इतने असहाय थे; मुझसे सहमत होते हुए भी मुझे समर्थन देने में असमर्थ क्यों थे.
नज़दीक से
-विक्रम शर्मा
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