Monday, December 27, 2010

तुम रहने ही दो

आज मैं बहुत प्रसन्न था. मेरा बरसों पुराना स्वप्न साकार होने जा रहा था.

मैं एक पत्रकार बनना चाहता था. पत्रकार की कलम में बहुत शक्ति होती है, मेरा विश्वास था. साहित्यकार की कलम से भी अधिक. साहित्यकार तो कभी-कभी लिखते छपते हैं. पत्रकार प्रतिदिन लिखते हैं और छपते हैं. सामाजिक क्रान्ति की दिशा में पत्रकारिता का मार्ग सबसे गारण्टीकृत मार्ग है, ऐसा मेरा मानना था.

इसी हेतु मैंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया, देश के उदीयमान पत्रकारों के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह से अशोक हॉल में मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ.

किन्तु मैं एक नियमित पत्रकार न बन सका. अपनी मौजूदा नौकरी को छोड़कर उससे आधी आमदनी वाला व्यवसाय अपनाने की हिम्मत न जुटा पाया और नौकरी की व्यस्तता में स्वतन्त्र पत्रकारिता भी न अपना सका.

किन्तु पत्रकारिता के लिए मेरे हृदय में सम्मान बढ़ता ही जा रहा था. जब भी अवसर मिलता, किसी पत्रकार के निकट जाने का, उसे मैं गंवाता नहीं.

उस दिन, मौसाजी के घर उनके एक पत्रकार मित्र को देखकर तो मैं दंग ही रह गया. मौसाजी के घर जमघट लगा था. एक स्थानीय नेता के कहने पर मौसाजी ने अपने प्रख्यात पत्रकार मित्र एल. एन. को बुला रखा था. कुछ दिन पहले पुलिस ने उन नेता के साथियों को दंगा करने के आरोप में धर-दबोचा था और हर रोज़ उन्हें तंग कर रहे थे. और दारोगा नेताजी के दबाव में नहीं आ रहा था. एल. एन. सर ने फ़ोन पर बात की दारोगा से. उनका लहज़ा ऐसा था मानो वह उसके बॉस हों. चुटकियों में नेता जी की समस्या हल हो गयी. नेताओं और पुलीस से भी अधिक शक्ति है, पत्रकारों में, मुझे इसका सुखद अहसास हुआ.

अन्ततोगत्वा हिम्मत कर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी. अब मैं स्वतन्त्र था. पत्रकारिता अपनाने का निर्णय ले लिया था.

और आज एल. एन. सर मुझे अपने साथ ले जाने वाले थे. मॉडर्न पत्रकारिता क्या होती है इसका परिचय कराने. मैं बहुत उत्तेजित था.

सबसे पहले हम एक पाँच-सितारा होटल में गये. किसी बड़ी कम्पनी द्वारा एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया गया था. कुछ नीरस भाषण हुए, कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे गये, बेमन से. प्रैस-विज्ञप्ति वितरित की गयी, बहुत सुन्दर फ़ोल्डर में, जिसे बिना पढ़े एल. एन. सर ने अपने बैग में रख लिया.

उसके बाद एक आलीशान भोज की व्यवस्था थी, जिसमें नाना-प्रकार के व्यंजन थे और देसी-विदेशी पेय थे. चलते समय एक गिफ़्ट भी दी गयी सभी पत्रकारों को.

बाहर निकलकर वह बोले, "आजकल पत्रकारों की कीमत ऐसे लंच-डिनर रह गयी है. ये कॉर्पोरेट वर्ल्ड वाले समझते हैं, खरीद लिया उन्होंने पत्रकारों को खाना खिलाकर." फिर एक ठण्डी साँस भर कर बोले, "वैसे कई बिक भी जाते हैं, इस खाने और गिफ़्टों के बदले... बड़ा बनना है तो बड़ा सोचो. पत्रकारिता का पहला पाठ!"

कुछ विशेष नहीं था एल. एन. सर के पास करने को. बोले, पास ही एक एम. पी. महोदय रहते हैं. उनके घर चलते हैं." फ़ोन पर उनसे बात कर बोले, "घर में ही हैं." फिर ड्राइवर को निर्देश देकर उन्होंने आंखें बन्द कर लीं. इतना स्वादिष्ट भोजन कर मुझे भी नींद आ रही थी!

रास्ते में एक फ़ोन आया एल. एन. सर को. कार एक पार्क के पास से गुज़र रही थी. कार रुकवा कर वह तेज़ी से पार्क की तरफ़ बढ़े. पीछे-पीछे मैं भी हो लिया. अचानक एल. एन. सर ऊँचे स्वर में बोलने लगे. वह टी. वी. के लिए रिपोर्टिंग कर रहे थे, "...जी हम मुख्यमन्त्री निवास के बाहर खड़े हैं. सुबह से ही यहाँ वी.आई.पीज़. का तांता लगा हुआ है. बहुत गहमा-गहमी है. अभी-अभी प्रधानमन्त्री के प्रतिनिधि श्री...."

मैं अवाक था. रिपोर्टिंग पूरी होने पर एल. एन. सर ने मेरी तरफ़ विजयी मुद्रा में देखा और मेरे चेहरे पर लिखे मेरे प्रश्न के उत्तर में बोले, "समाचार को प्रामाणिक बनाने के लिए यह सब करना पड़ता है. वैसे मैंने कुछ मनगढ़न्त नहीं बोला. सभी चैनल यह खबर दे रहे हैं. मुझे यह बताया गया और वैसा ही मैंने बोल दिया!"

मैं प्रभावित नहीं था.

कुछ ही देर में हम एम. पी. साहिब के घर पर थे. हमारे पहुँचते ही एम. पी. साहिब ने सब आगन्तुकों को विदा कर दिया. फिर देर तक बतियाते रहे दोनों. बातचीत से पता चल रहा था दोनों के बीच बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध थे.

विदाई का पल आया. एम. पी. साहिब ने एल. एन. सर की गाड़ी तोहफ़ों से भर दी. एल. एन. सर ने न-नुकुर की किन्तु एम. पी. साहिब ने कहा, "मैं कौन सा खरीद कर दे रहा हूँ भाई!"

मैं दोनों के बीच घनिष्ठता देख अचम्भित था. रास्ते में मैंने कहा, "बहुत निकट हैं आप दोनों तो." ठहाका मार कर हँस पड़े एल. एन. सर, "अरे, चोर है, स्सा... अहसान मानता है अपना बस. ऐसे लोग किसी के निकट नहीं होते. सब मतलब के यार होते हैं." मैं समझ नहीं पा रहा था, क्या सच है... जो अभी-अभी एल. एन. सर ने बोला या फिर जो मैं कुछ ही पल पहले देख रहा था, अनुभव कर रहा था! थोड़ा रुक कर बोले, "तुम्हारे लिए एक बहुत बड़ा मौका था एक एम. पी. से जान-पहचान बनाने का. मगर तुम तो ऐसे बैठे थे जैसे तुम्हारा कोई मतलब ही नहीं हो उससे!"

"चलो तुम्हें घर छोड़ देते हैं," दिन की समाप्ति का संकेत दिया एल. एन. सर ने. शायद मुझसे निराश हो गये थे वह.

मेरा घर आने से कुछ पहले मुझ पर अर्थपूर्ण निगाहें डालते हुए एल. एन. सर बोले, "किसी बड़े डॉक्टर को जानते हो जो टी. वी. में इण्टर्व्यू करवाना चाहता हो? एक प्रोड्यूसर पूछ रहा था. कुछ तुम्हारी भी कमाई हो जाएगी!"

मैंने अचकचाते हुए कहा, "ऐसा कोई डॉक्टर ध्यान तो नहीं आ रहा... वैसे किसी डॉक्टर के इण्टर्व्यू से मेरी कमाई कैसे होगी. उस इण्टर्व्यू में मेरा क्या योगदान होगा?"

एक कुटिल मुस्कान के साथ एल. एन. सर ने कहा, "भई, एक मालदार डॉक्टर का इण्टर्व्यू करवाओगे तो सारा योगदान तुम्हारा ही तो हुआ!"

मेरा घर आने ही वाला था. मुझे हेय दृष्टि से देखते हुए वह बोले, "यार यह पत्रकारिता तो तुम रहने ही दो. नौकरी ही कर लो फिर से. ज़्यादा मज़े में रहोगे."


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

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