Monday, December 27, 2010

बचपन का मित्र

वर्षों बाद मिलने वाला था मैं बचपन के अपने प्रिय मित्र को. कितना विचित्र है न, जब कोई हमारे पास होता है, तब हम उसके होने का मूल्यांकन नहीं कर पाते. बिछड़ने के बाद बोध होता है उसके न होने के महत्त्व का.

उसके बारे में बहुत कुछ जानने की उत्कंठा थी. कुछ भी तो नहीं मालूम था मुझे उसके बारे में, सिवाय इसके कि उसकी शादी हो गयी थी, उसके तीन बच्चे थे और वह कपड़ों का व्यवसाय करता था. मन में एक सिहरन सी थी. कैसा दिखता होगा वह! क्या बातें करेंगे! कैसी मस्ती होगी जब मिलेंगे बचपन के दो सखा!

बचपन में उसका अधिकांश समय हमारे घर ही गुज़रता. घर में सबका मित्र बन गया था वह. मेरे पिताजी को तो वह मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक मानता था. अपने पिताजी से वह सनातन रुष्ट था. "अरे बापू को तो तिजोरी भरने से फ़ुरसत नहीं है", "बापू को पता चल गया तो खून पी जाएगा", "बापू तो बाबा आदम के ज़माने की आइटम है", "बापू का बस चले तो वह दुनिया को दो हिस्सों में बाँट दे, एक में लड़के रहेंगे और दूसरे में लड़कियाँ. ताकि दोनों कभी एक-दूसरे को देख भी न सकें". समझाने पर बोलता, "एक तेरे पिताजी हैं, कितने फ़्रैंडली, एकदम दोस्तों जैसे. मेरा खूसट बापू तो कभी सीधे-मुँह बात ही नहीं करता", "बापू का भोंपू तो हर समय बजता ही रहता है. हर वक्त लैक्चर ही लैक्चर."

मेरे पिताजी के सामने वह नतमस्तक रहता. उनके उपदेशों और डांट को भी वह चुपचाप सुनता. मैं जब बाद में उसे इस बात पर चिढ़ाता तो वह कहता, "अंकल की बात और है."

बहुत ज़िन्दादिल इनसान था वह. गोरा रंग. हृष्ट-पुष्ट. हर समय मज़ाक. हर बात का चुटकला बना देता वह. बुरा मानना तो उसने सीखा ही नहीं था. सबके काम में हाथ बँटाता. माताजी भी उसे अपने बेटे जैसा ही मानती थीं. पिताजी उसकी बनायी चाय बहुत पसंद करते थे, यद्यपि वह स्वयं चाय कभी नहीं पीता था.

आज मैं दशकों बाद उससे मिलने जा रहा था.

घर का बाहर वाला दरवाज़ा खुला था. मकान वही था, पुश्तैनी, किन्तु उसका नवीकरण हो चुका था. घर में नौकर था, जो मुझे भीतर ले गया. मुझे उसके स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता हुई. अवश्य ही कुछ गड़बड़ है, वरना वह तो भागकर बाहर आता.

किन्तु मेरा डर अनावश्यक था. वह सही-सलामत था और एक फ़ोन पर व्यस्त था. किसी से पैसे की वसूली के लिए दबाव बना रहा था. फ़ोन रखते ही बोला, "यार आजकल किसी से पैसे निकलवाना टेढ़ी खीर हो गया है. एक तो धन्धे में वैसे ही दम नहीं रहा, ऊपर से ये लोग पैसे मारकर बैठ जाते हैं. और तू सुना, तू तो नौकरी करता है न. यार नौकरी वालों के मज़े हैं. पहली तारीख को नोट खरे. न कोई टैंशन न कोई लफड़ा... अरे छोटू, चाय तो ला भई."

मैं हतप्रभ था. जिस गर्मजोशी की उम्मीद मैं कर रहा था, वह दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी.

मेरे मित्र का रंग काला पड़ गया था. गाल पिचक गये थे. खिचड़ी बाल. आंखों पर चश्मा. एकदम अपने पिता की तरह दिखता था अब वह.

छोटू चाय ले आया. मैंने पूछा, "तुमने चाय पीना शुरू कर दिया?" बोला, "यार, चाय के बिना कहाँ गुज़ारा है? वैसे भी असली दूध मिलता कहाँ है? यूरिया वाले दूध से तो चाय ही भली."

"भाभीजी दिखाई नहीं पड़ रहीं?" मैंने पूछा.

"तुम्हारी भाभी तो यार, बीमार रहती है. महीने में 25 दिन."

"क्या हुआ है उन्हें?" मैंने चिन्ता व्यक्त की.

"कुछ खास नहीं, बस बीमार रहने की आदत सी पड़ गयी है. अब परिवार की चिन्ता में यह सब तो लगा ही रहता है."

"चिन्ता? कैसी?"

"अब एक हो तो बताऊँ. आजकल के लड़के-लड़कियाँ. तुम तो जानते ही होगे. कहाँ जा रही है यह दुनिया? संस्कार तो रहे नहीं. मनमानी करते हैं. समझते कुछ हैं नहीं. घर के बड़े तो जैसे इनके दुश्मन हैं.

अब तुमसे क्या छुपाऊँ! बड़ी बेटी ने विधर्मी से शादी कर ली. हमने उससे नाता तोड़ लिया. लेकिन तुम्हारी भाभी है कि दिल को लगा बैठी उस कुलच्छनी के कुकर्म को.

एक दर्द जैसे कम था. दूसरी को मॉडल बनना है. ओछे कपड़े पहनकर डोलती फिरती है पूरे शहर में. हमारे समाज में जहाँ लड़कियाँ बिना चुनरी के भी घर से बाहर कदम नहीं रखती थीं वहाँ इस नयी पीढ़ी को किन्हीं मूल्यों की परवाह ही नहीं. उलटे हमें ही समझाते हैं कि समाज बदल गया है; कि हम पिछड़े हैं.

अब हम कैसे समझाएं उन्हें. उन्होंने तो अपने लिए एक नया समाज गढ़ लिया है. हम कहाँ से लाएँ नया समाज?"

मैं अपने मित्र के पीछे दीवार पर लगी उसके पिताजी की तस्वीर को देख रहा था. मेरा मित्र अपने पिताजी जैसा दिख ही नहीं रहा था, उन जैसा बोल भी रहा था.

उसने मेरी नज़र को पढ़ लिया.

"बापू की बहुत याद आती है, यार," कहकर वह फफक-फफक कर रो पड़ा.


नज़दीक से
-विक्रम शर्मा

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