Wednesday, December 29, 2010

पिघलती हुई आइसक्रीम

राजू, मुन्नी, बिल्लू... सब खुशी से फूले न समा रहे थे. बात ही ऐसी थी. पापा ने हथियार डाल दिये थे. रेफ़्रिजरेटर आ गया था.

बहुत दिनों से टाल रहे थे शुक्ला बाबू. पर आखिर कब तक टालते! बच्चों की ही इच्छा होती तो और बात थी - उन्हें तो समझाया जा सकता था. पर श्रीमती जी को समझाना उनके बूते की बात न थी. और सच तो यह है, वह स्वयं अपने मन को भी एक अरसे से मार रहे थे. उनकी तो अपनी पुरानी इच्छा थी, घर में रेफ़्रिजरेटर लाने की. पर हालात! खैर! पुराना ही सही, अब रेफ़्रिजरेटर तो वह ले ही आये थे - जो होगा भुगत लेंगे.

लोग बधाई देने आ रहे थे और मुंह मीठा करके जा रहे थे. शुक्ला बाबू आज बहुत स्मार्ट दीख रहे थे. सबको रेफ़्रिजरेटर की खूबियां बताते थक नहीं रहे थे.

"कितने का लिया, शुक्ला बाबू," ऐनक आंखों पर चढ़ाते हुए दास बाबू जे पूछा.

"अजी बस यूँ समझिए, मिल ही गया सस्ते में! वरना आजकल आसमान छू रही हैं कीमतें तो," चहकते हुए शुक्ला जी कीमत गोल ही कर गये.

"सो तो है, सो तो है," मानो दास बाबू को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया हो.

"इम्पोर्टेड लगता है," गुप्ता जी अपनी समझ और जानकारी का प्रमाण देते हुए बोले.

"अजी, लगता है? है," शुक्ला बाबू ने ठहाका मारा, "ठोक बजा कर लिया है, ऐसे थोड़े ही!"

"वैसे साहिब, सैकण्ड हैण्ड चीज़ तो सैकण्ड हैण्ड ही होती है," दोष निकालने के लहजे में उनके पड़ोसी सिन्हा साहिब बोले.

"अजी रंग करवा लूंगा न, तो आपके ’डिब्बे’ से तो लाख दर्जे अच्छा दिखेगा," और शुक्ला बाबू ने बाकी लोगों से अनुमोदन की अपेक्षा करते हुए नज़र घुमायी और ज़ोर से एक और ठहाका लगाया.

रसोईघर में देवियों की भीड़ लगी थी. मिसेज़ दास दार्शनिक अन्दाज़ में कह रही थी, "वैसे फ़्रिज का सुख बड़ा है."

"सो तो है ही, इतनी बर्फ़ जमती है कि खुद तो खुद, अड़ोसी-पड़ोसियों को भी बाज़ार से बर्फ़ खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ती," मिसेज़ गुप्ता ने एडवांस बुकिंग करा ली. वह साथ वाले कमरे में ही रहती थीं.

"जी, और चीज़ें जो खराब होने से बच जाती हैं! अब देखो न, इनके साथ आज मेहमान आने वाले थे. मैंने चार आदमियों के लिए ज़्यादा खाना तैयार कर लिया. मगर वे आये नहीं - अब या तो खुद खा के पेट खराब करो, या फिर फेंको," मिसेज़ वर्मा ने भी चुस्ती दिखायी.

मिसेज़ शुक्ला ने भी रंग में आते हुए कह दिया, "क्यों? यह फ़्रिज हमने किसलिए लिया है? यहाँ रख जाना सारा सामान."

"अजी, कहाँ हो, ज़रा चाय तो बनाओ भई इनके लिए," सुभाष बाबू की आवाज़ आयी कमरे में से.

"बनाती हूँ," कहकर मिसेज़ शुक्ला अपनी मित्रमण्डली की ओर मुखातिब हुईं, "अब देखो न, फ़्रिज हो तो क्या बात है - स्क्वायश घोली और छुट्टी. ऐसे दुनिया भर के झमेले करो, तो जा के चाय बने."

बच्चे आपस में सलाह-मशवरा कर रहे थे. राजू को आम की आइसक्रीम अच्छी लगती थी तो मुन्नी को सादी. फ़ैसला नहीं हो पा रहा था कि कैसी आइसक्रीम बनवायी जाए.

धीरे-धीरे भीड़ छंटती गयी और आखिर घर में परिवार के व्यक्ति ही रह गये. मिसेज़ शुक्ला ने सादी आइसक्रीम जमा दी थी और बच्चे बेसब्री से उसके जमने का इन्तज़ार कर रहे थे. शुक्ला बाबू कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर पड़े थे. आज एक बोझा उनके सर से उतर गया था.

बोझा उतरा था या और बढ़ गया था - यही जानने की कोशिश कर रहे थे शुक्ला बाबू! कितना अच्छा होता, अगर आज मां और पिताजी भी घर में होते! कितने खुश होते वे 'ठण्डे पानी वाली मशीन’ देख कर! शुक्ला बाबू के बस में होता तो वह रोक लेते उन्हें, पर उन्हें तो अब हर क्षण भारी लग रहा था, इस घर में. खैर तीर्थ-यात्रा कर आएंगे तो चित्त प्रसन्न हो जाएगा उनका. अच्छा ही है, घर की कुढ़न से तो अच्छा है, कुछ समय अलग, बाहर रह लेना.

पर! शुक्ला बाबू भुला नहीं पाते थे, वह दिन जब उनके मां-पिताजी उन्हें छोड़ गये थे. इतना नाराज़ पहले कभी नहीं देखा था उन्होंने माँ को. पहले कभी वह नाराज़ हुआ करती थीं तो उन्हें मनाना कोई मुश्किल न था, मगर उस दिन तो वह कुछ बोली ही नहीं; कोई शिकायत नहीं, कोई सफ़ाई नहीं! बस एक अडिग निश्चय! अब मैं यहाँ और नहीं रह सकती, नहीं रह सकती! शुक्ला बाबू कारण पता करने में असमर्थ रहे थे - माँ ने नहीं बताया, पिताजी ने भी नहीं और श्रीमती जी ने कहा कि कुछ बात हुई ही नहीं.

बीती घड़ियों के स्मरण से शुक्ला बाबू की आँखों में आंसू आ गये. लेकिन क्या लाभ इन आंसुओं का जो असमय आएँ. यदि उस दिन ये आंसू टपक पड़ते तो शायद माँ-पिताजी घर छोड़ कर जाते ही न.

पिता जी ने औपचारिक स्वर में कहा था, "कोई बात नहीं बेटा! ज़रा घूम आएंगे तीर्थ, तो तबीयत बहल जाएगी."

"लेकिन कुछ दिन रुक कर चले जाइएगा. मैं पैसों का इन्तज़ाम तो कर दूँ."

"तुम उसकी चिन्ता मत करो. वह मैं छोटे से ले आया हूँ."

छोटे शुक्ला बाबू के छोटे भाई थे. माँ-पिताजी हमेशा से ही बड़े बेटे के साथ रहते आये थे. छोटे की शादी हुई, वह अलग रहने लग गया; माँ-पिताजी बड़े के साथ ही रहे. कई बार छोटे शिकायत करता तो पिताजी एकाध रोज़ के लिए उसके पास भी रह आते. आज यह सुनकर कि पिताजी छोटे से पैसे ले आये हैं, शुक्ला बाबू को सुखद आश्चर्य हुआ. वह समझते थे छोटे की भावनाओं को, इच्छा को कि पिताजी उस पर भी अपना अधिकार समझें. कई बार उन्हें लगता भी कि माँ और पिताजी उनसे अधिक स्नेह करते थे और छोटे को अनुचित रूप से स्नेह से वंचित रखते थे.

अरे हाँ! छोटे तो आज आया ही नहीं - उन्हें याद आया - "अरे भई, कहलवा तो दिया था छोटे को?"

"हाँ कहलवा दिया था. कल मैं खुद कह आयी थी और आज राजू के हाथ कहलवा दिया था."

शुक्ला बाबू फिर खो गये विचारों में! तीर्थ-यात्रा पर जाने से एक दिन पहले माँ और पिताजी छोटे के साथ उसके घर चले गये थे. शुक्ला जी को बिलकुल अलग कर दिया गया था. छोटे ने उनसे कहा था, "आप चिन्ता न करें, मैं स्वयं चढ़ा आऊंगा इन्हें बस में."

"लीजिए, ज़रा स्वाद देखिए," श्रीमती जी आइसक्रीम ले आयी थीं.

"अरे, पूरी तरह जम तो जाने देतीं. रखो अभी, छोटे आएगा तो इकट्ठे ही..." शुक्ला जी ने देखा, छोटे का पुत्र रज्जी कमरे में दाखिल हुआ.

"पिताजी ने यह खत भिजवाया है."

शुक्ला जी घबरा गये - सब कुशल तो है!

उन्होंने पत्र खोला; लिखा था, "बधाई! माँ और पिताजी को घर से निकाल कर जो खर्च बचाया है, उसका इससे ज़्यादा और सदुपयोग और क्या हो सकता...."

शुक्ला जी ने नज़र उठायी, रज्जी कमरे में नहीं था.

सामने पड़ी आइसक्रीम पूरी तरह से पिघल गयी थी.


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

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