Monday, December 27, 2010

खूबचन्द जी

ठीक से कह नहीं सकता, कि यह मेरी विद्यार्जन की पिपासा थी, अपनी व्यावसायिक उन्नति की अभिलाषा अथवा अपने कॉलेज के दिनों को पुन: जीने की तमन्ना, कि मैंने नौकरी के साथ-साथ प्रबन्धन में अनुवर्ती शिक्षा के लिए सायंकालीन पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया.

देखने में बहुत कुछ कॉलेज जैसा ही था. वैसी ही भव्य इमारत, बड़े-बड़े कमरे, गलियारे, खेल का मैदान, लाइब्रेरी, कैण्टीन. कैण्टीन में चाय के प्यालों की खनक भी वैसी ही थी और पकौड़ों-समोसों की सुगन्ध भी बिलकुल वही थी.

फिर भी बहुत कुछ अलग था. शरीर वैसा ही था, किन्तु आत्मा लापता थी. लड़के-लड़कियां भी वैसे ही थे, किन्तु मानो निष्प्राण. वह चहकना, वह चीखना चिल्लाना, वह अनौपचारिकता, वह अनगढ़ खूबसूरती लापता थी. हाँ, एक अन्तर और था. टीचरों की उम्र वाले हमारे साथी छात्र-छात्राएं.

इन चेहरों में से एक चेहरा था हमारे खूबचन्द जी का. खूबचन्द जी दिखने में बड़ी उम्र के अवश्य लगते थे, किन्तु उनके सीने में जो दिल था, उसके बारे में कहा जा सकता था, दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी! बेबाक, सबके दोस्त. उम्र की सच्चाई से बेखबर, हमेशा हँसते-खिलखिलाते, बतियाते, चुहलबाज़ी करते.

खूबचन्द जी के व्यक्तित्त्व से मैं बहुत प्रभावित था. इतनी बड़ी उम्र में भी पढ़ाई का यह जज़्बा! मन ही मन नतमस्तक हो जाता मैं. उनसे मिलकर हमेशा अच्छा लगता, किन्तु जैसे-जैसे उनसे निकटता बढ़ती जा रही थी, उनका व्यक्तित्त्व कुछ रहस्यमयी सा लगने लगा था.

नौकरी और घर की जिम्मेदारियों के साथ पढ़ाई को जारी रख पाना मुझे बहुत कठिन लग रहा था. महीने में एक-आध बार ही लाइब्रेरी आ पाता था मैं. किन्तु जब भी मैं लाइब्रेरी आता, किसी भी समय, खूबचन्द जी को वहीं जुटा पाता.

आज मुश्किल से बॉस की अनुमति मिली थी कुछ पहले आने की. लाइब्रेरी में सन्नाटा था, हमेशा की तरह. चन्द लोग और ढेर सारी किताबें. शायद वह किताबों की खुशबू थी जिससे खिंचा मैं लाइब्रेरी की ओर चला जाता था. कुर्सियों और मेज़ों की कतारों के बीच चार-पाँच छात्र और छात्राएं बैठे थे. उनमें से एक थे हमारे खूबचन्द जी.

लाइब्रेरियन के साथ पुस्तकों का आदान-प्रदान करके हटा ही था कि खूबचन्दजी को साथ खड़े पाया.

अवसर मिलते ही मैंने पूछ ही लिया, "आप भी तो नौकरी करते हैं न?"

"हां!"

"पर मैं जब भी यहाँ आता हूँ, दिन में, आप यहाँ होते हैं. क्या लम्बी छुट्टियों पर हैं?"

खूबचन्द जी हँस पड़े. बोले, "छुट्टी क्यों लूंगा भाई. छुट्टियाँ तो मेरी हर साल बेकार जाती हैं."

मेरे लिए यह एक पहेली के समान था. मैंने फिर पूछा, "फिर ऑफ़िस के समय में आप यहाँ कैसे होते हैं?"

"ऑफ़िस में मेरा चश्मा ड्यूटी दे रहा है," वह मुस्कुराये.

"मतलब?"

"देखो, मेज़ पर कुछ फ़ाइलें रखीं; उनपर रखा अपना चश्मा. अब चश्मा मेज़ पर रखा है, इसका मतलब तो यही हुआ न कि मैं भी ऑफ़िस में ही हूँ, कहीं आस-पास."

"लेकिन काम भी तो होता होगा! वह कौन करेगा?" मेरा कुतूहल बढ़ता जा रहा था.

"अब जा रहा हूँ न काम निपटाने. दो घण्टे सुबह भी लगाकर आया था. अब दिन भर ऑफ़िस में बैठकर दूसरों का समय खराब करने से तो अच्छा है न, यहाँ आ जाओ!" अजीब तर्क था. मैं उनके आगे बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था.

वह बोले, "अभी ऑफ़िस जाऊंगा, दूसरे विभागों को हड़काऊंगा, सबको काम पर लगाऊंगा, ऑफ़िस बन्द होने के समय के बाद बॉस के कमरे में जाऊंगा. उन्हें भी तो पता चलना चाहिए न खूबचन्द जी कितनी देर तक परिश्रम करते हैं!"

मैं हतप्रभ था, उनकी बातों से.

"20 सालों के अनुभव का निचोड़ दे रहा हूँ, महानुभाव! वह भी मुफ़्त में! सोच क्या रहे हो?"

मैं सोच रहा था, दो घंटों बाद क्लास में प्राचार्य आएंगे. कितना अलग होगा उनका शिक्षण खूबचन्द जी के इस उपदेश से!

"चलता हूँ दोस्त. क्लास शुरू होने से पहले पहुँच जाऊंगा," खूबचंद जी चलने की मुद्रा में बोले, "चलते-चलते ऑफ़िस में काम करने की टैकनीक दिये जाता हूँ:

काम करो न करो, काम की फ़िक्र करो.
फ़िक्र करो न करो, फ़िक्र का ज़िक्र करो!"

किंकर्तव्यविमूढ़, मैं मन ही मन ढूंढ रहा था अपने ऑफ़िस के खूबचन्दों को!


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

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