बारिश तेज़ हो गयी थी. हमारी चाल भी तेज़ हो गयी. शायद निकट ही अगला पड़ाव हो, छत हो! तभी बिजली भी चली गयी. पर्वतीय मार्ग पर बारिश और घुप अंधेरा. हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था.
कैसी परीक्षा ले रही हो माँ? हम सोच रहे थे. पत्नी ने ज़ोर से मेरा हाथ पकड़ लिया. "जय माता दी", सामने से आवाज़ आयी. "जय माता दी" प्रत्युत्तर में हम भी बोले. कैसा जादू है इन शब्दों में. सहज स्फ़ूर्ति आ जाती है तन-मन में. सुनकर, बोलकर. वैष्णो देवी की यात्रा में ये स्वर कानों में मानो अमृत घोल देते हैं. अनजाने भी अपने बन जाते हैं इन शब्दों के आदान-प्रदान से.
अभी तो ये शब्द अंधकार में सूचना का काम भी कर रहे थे. सावधान, सामने से कोई आ रहा है. बीच-बीच में बिजली कड़क जाती और सामने से आते लोग स्पष्ट दिखायी दे जाते.
हम पहले भी अनेक बार वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आ चुके थे. हर बार माँ ने प्रकारान्तर से हमें अपनी कृपा से कृतार्थ किया था. इस बार ही पता नहीं क्यों...
मुझे स्मरण हो आयी अपने कॉलिज के मित्रों के साथ की गयी वह यात्रा. हम पाँच मित्र थे. उन दिनों आज की तरह पक्की सड़कें नहीं हुआ करती थीं. कटरा से वैष्णो भवन तक पथरीले संकरे रास्ते हुआ करते थे. बीच-बीच में बनी सीढ़ियों का प्रयोग तब अधिक हुआ करता था. हम लोग कभी कच्चा रास्ता पकड़ते तो कभी सीढ़ियाँ. जवानी का जोश था. कुछ नया करने का मन करता. एक मित्र ने दूसरे के साथ शर्त लगायी और एक नया रास्ता पकड़ लिया - पहाड़ का रास्ता. उसका साथ देने के लिए उसके पीछे-पीछे मैं भी हो लिया. मुझे लगा था, थोड़ा ऊपर जाकर वापस आ जाएंगे.
लेकिन मेरा मित्र छरहरे बदन वाला एक खिलाड़ी था. वह रुका ही नहीं. उसके पीछे-पीछे मैं. बाकी मित्र वापस आने की गुहार लगाने लगे किन्तु उसपर तनिक भी असर नहीं. हम चढ़ते गये. नीचे का मार्ग जहाँ हम अपने बाकी मित्रों को छोड़कर आये थे, दिखने बंद हो गये थे. हम पत्थर और पौधे पकड़-पकड़ कर आगे बढ़ते जा रहे थे. हमारी सांसें फूल गयी थीं. वापस जाने की कोई विधि नहीं थी. नीचे देखो तो हालत खराब. कई किलोमीटर नीचे कटरा दिखाई पड़ रहा था. यानी पाँव फिसला तो सीधे कटरा!
आगे बढ़ना कठिन से कठिनतर होता जा रहा था. चढ़ाई ऊर्ध्वमुखी होती जा रही थी और पत्थरों का स्थान कच्ची मिट्टी ने ले लिया था. बड़े पुष्ट पौधों का स्थान घास ने ले लिया था, जिन्हें पकड़ कर ऊपर नहीं चढ़ा जा सकता था. प्राण मुँह को आ रहे थे.
आखिर हमें वह पर्वत समाप्त होता दिखाई दिया. ऊपर कुछ लोगों की भीड़ थी. थोड़ी देर बाद उस भीड़ में हमारे मित्र भी दिखाई देने लगे जो सीधे रास्ते से चलकर ऊपर पहुँच चुके थे. सब मिलकर हमें देख रहे थे और माँ की जय-जयकार के साथ हमारा उत्साहवर्धन कर रहे थे.
अब हम उस पर्वत के शिखर पर लगभग पहुँच ही गये थे. हम अपने मित्रों से बात कर सकते थे. भक्तों की भीड़ उनके साथ थी. किन्तु मंज़िल के निकट पहुँच कर हम असहाय खड़े थे. आगे कच्ची मिट्टी की सीधी दीवार थी और पकड़ने के लिए कुछ नहीं था. हमने मुस्कुराहट का आवरण पहन रखा था किन्तु भीड़ में चिन्तित चेहरे बता रहे थे कि हम कितनी बड़ी मुश्किल में थे. कोई हमें उत्साहित कर रहा था तो कोई इस बेवकूफ़ी के लिए डाँट रहा था. कोई कह रहा था कि कुछ लोग रस्से का प्रबन्ध करने आदि-कुँवरी को गये हैं तो कोई बीच-बीच में वैष्णो मैया का जयकारा लगा रहा था.
हम उंगलियों से खुर्च-खुर्च कर मिट्टी में गड्ढे करते जा रहे थे और माँ का स्मरण कर उन गड्ढों में हाथ-पाँव फ़ँसा कर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ते जा रहे थे. कहीं भी कच्ची मिट्टी हमें धोखा दे सकती थी और हम क्षण भर में मीलों नीचे पहुँच सकते थे. किन्तु सैंकड़ों लोगों की प्रार्थना रंग लायी और हमने माँ का नाम लेकर अन्तिम बार हवा में झूलते हुए छलांग लगायी और ऊपर जा रही सड़क का किनारा पकड़ कर लटक गये. पता नहीं उन भक्तों में से किनकी पुकार माँ ने सुनी और हम सुरक्षित ऊपर पहुँच गये. मानो एक चमत्कार हो गया. हमारे साथ सैंकड़ों भक्तों ने चैन की सांस ली और माँ का गुणगान शुरू कर दिया.!
ऐसी कृपा से माँ ने हमें सदैव अनुग्रहीत किया है...
अंधेरे में चलते-चलते अचानक मेरा पांव टेढ़ा पड़ गया और उसमें मोच आ गयी. इस बार पता नहीं क्यों माँ सब कुछ उलटा ही करती जा रही है. अब एक और मुसीबत!
मुझे स्मरण आया, उस बार भी तो मोच ही आयी थी.. माँ साक्षात आ गयी थीं कृपा करने...
हमारी बेटी तब ढाई वर्ष की थी. न वह पैदल चलने को तैयार थी और न घोड़े पर बैठने को. एक पिट्ठू हमारे साथ चल रहा था किन्तु उसकी सेवाएं भी वह अस्वीकार कर चुकी थी. केवल पापा गोदी! पापा अर्थात मेरी पीठ में मोच आ गयी थी. खुद ही चलना दूभर हो गया था. बच्चे को उठाकर चलना तो असम्भवप्राय था. चार कदम चलना भी मुश्किल हो गया था.
श्रीमती जी ने राय दी कि यदि मैं उनसे दूर चला जाऊँ, दिखूँ ही न, तो शायद बिटिया पिट्ठू की सवारी को स्वीकार कर ले. मरता क्या न करता. बेटी को उसकी माँ और पिट्ठू के हवाले कर मैं आगे बढ़ गया.
आदि-कुँवरी पर पहुँच कर मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. मैंने दर्द की दवा का सेवन कर लिया था. काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करने से मुझे आराम करने का अवसर भी मिल गया था, जिससे मेरे पीठ की दर्द जाती रही थी.
बहुत देर बाद मुझे पत्नी और बिटिया आते हुए दिखे. दोनों प्रसन्न थे. बिटिया पैदल चल रही थी. मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था. मेरे पूछने पर श्रीमती जी ने बताया कि बिटिया पिट्ठू पर तो बिलकुल नहीं बैठी.
"तो फिर क्या सारा रास्ता पैदल आयी?" मैंने पूछा.
"हाँ," उसने कहा.
"कैसे?"
"इसके साथ," कहकर पत्नी ने इधर-उधर देखना शुरू कर दिया. "कहाँ गयी वह?" श्रीमती जी आश्चर्य में बोल रही थीं.
"कौन?" मैंने पूछा.
"वह लड़की जिसका हाथ पकड़ कर वह आयी है यहाँ तक. मेरे तो काबू में नहीं आ रही थी यह. पता नहीं कहाँ से वह लड़की आयी और उसका हाथ पकड़ लिया इसने. और चुपचाप उसके साथ चल पड़ी," पत्नी की नज़रें ढूँढ रही थीं उस लड़की को. "लाल कपड़ों में थी वह," उसने कहा और साथ ही वह ठिठक गयी.
"मगर मैंने तो किसी लड़की को नहीं देखा," मैंने कहा.
"आप कैसे देखते? मैं कई किलोमीटर उसके साथ आयी, मुझे भी नहीं ध्यान उसका चेहरा. सिर्फ़ इतना अहसास है कि बहुत प्यारी सी बच्ची थी वह!"
हम दोनों समझ गये थे, माँ की कृपा को, माँ की लीला को.
माँ की कृपा असीम है. हर बार माँ ने हमें उसका रसास्वादन कराया है. फिर इस बार ही क्यों...?
विवाह के उपरान्त अपनी माताश्री की इच्छा से हम पति-पत्नी उनके साथ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आये थे. हमारे बार-बार आग्रह पर भी माताश्री ने घोड़े-पालकी आदि का लाभ उठाने से इनकार कर दिया. उनकी इच्छा थी, माँ के चरणों बैठकर पूजा करने की. और माँ भगवती की पिण्डियों के पास आधा घण्टा बैठकर पूजा करने का चमत्कारी अवसर हमें मिला.
वैष्णो मैया जानती है कि मैं बहुत आराम-तलब व्यक्ति हूँ; इसलिए वह हमेशा मेरे आराम का ख्याल रखती है, यथा हमेशा कमरे की व्यवस्था; एक बार तो हज़ारों लोगों की भीड़ में बिना बुकिंग के भी हमें कमरा मिल गया. एक बार श्रीमती जी ने दो बार दर्शन की ज़िद की तो माँ ने उस ज़िद को भी पूरा कर दिया...
परन्तु इस बार...?
इस बार तो माँ ने हद कर दी. बढ़ती उम्र में इस बार यात्रा की कठिनाई से वैसे ही डर लग रहा था. कमरा बुक नहीं हो पाया. मजबूरी में उसी दिन वापसी का कार्यक्रम बनाना पड़ा. धीरे-धीरे यात्रा करने से विलम्ब होना स्वाभाविक था. सोचा था वापसी में बैटरी कार ले लेंगे. विलम्ब होने से पता चला सायंकाल के बाद बैटरी कार भी नहीं चलती. भवन में पहुँचे तो आरती का समय हो गया. माँ के दर्शन के लिए दो घण्टे अतिरिक्त प्रतीक्षा करनी पड़ी.
माँ के दर्शन के बाद वापसी की यात्रा आरम्भ करते-करते आधी रात का समय हो गया. ऊपर से बारिश.
"जय माता दी" बोलते-बोलते अन्ततः हम कटरा पहुँच गये. हमारी यात्रा सम्पन्न हो गयी थी.
परन्तु माँ ने इस बार किया क्या?
वापस पहुँच कर हमें अहसास हुआ कि माँ ने इस बार भी हम पर कृपा की थी. पहली बार माँ ने छत्र-चोला-चुनरी की भेंट स्वीकार की थी. हमें ज़बरदस्ती आरती के समय भीतर बैठाया था. ऐसे में जबकि ढलती उम्र के चलते हम यात्रा की असुविधा को लेकर बहुत चिन्तित थे. पहली बार हमने बिना भवन पर विश्राम किए आने-जाने की यात्रा एकसाथ सम्पन्न की थी. पहली बार हमने इतने खराब मौसम में यात्रा की थी. पहली बार हमारी यात्रा के समय बार-बार बिजली गुल हुई थी.
माँ हमारी परीक्षा नहीं ले रही थी. माँ हमें बता रही थी कि माँ ने हमें सक्षम बनाया है और उसकी कृपा के चलते कुछ भी असम्भव नहीं.
- नतमस्तक
विक्रम शर्मा
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