दिल्ली की चौड़ी सड़कें सुबह और शाम के समय संकरी लगने लगती हैं. सड़कें दिखती ही नहीं. हर तरफ़ केवल ट्रैफ़िक ही ट्रैफ़िक! गाड़ियाँ और उनसे निकलता धुआँ! गाड़ियों में ड्राइवर की सीटों पर बैठे चेहरे, दिखने में अलग फिर भी एक जैसे - उदास, परेशान, तनावपूर्ण, चिन्तामग्न और शाश्वत युद्धरत चेहरे.
आजकल ट्रैफ़िक आम ट्रैफ़िक से कहीं अधिक घना है. श्रावण के कृष्ण-पक्ष में ट्रैफ़िक अधिक होता ही है. शिवरात्रि पर्व के लिए अपने इष्ट भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनके भक्त इन दिनों शिवरात्रि पर शिवलिंग का अभिषेक करने की अभिलाषा लिए अपने कन्धों पर रंग-बिरंगे काँवड़ों में गंगा-जल उठाये सड़कों पर उतर आते हैं. खूब ढोल बज रहे हैं, लाउड-स्पीकरों पर धार्मिक और फ़िल्मी सब तरह के गीत बज रहे हैं, प्रभु भोलेशंकर की झांकियाँ निकल रही हैं, जगह-जगह श्रद्धालुजन शिविर लगाये, प्रभु के भक्तों की प्रतीक्षा कर रहे हैं, फलों और भाँति-भाँति के खाद्य एवं पेय पदार्थों के साथ उनका स्वागत करने को आतुर. कान फाड़ देने वाले संगीत की धुनों पर मतवाले कांवड़िये और अन्य भक्तगण नाच रहे हैं.
मैं कार चला रहा हूँ और अपने कन्धों पर एक उद्विग्न चेहरा लिये बैठा हूँ. चौराहे पर बार-बार बत्तियों का रंग बदलते देख रहा हूँ और उस बत्ती में मुझे मेरे बॉस के चेहरे के बदलते हुए रंग दिखाई पड़ रहे हैं. वाह! क्षण-भर को मैं प्रसन्न हो जाता हूँ. मेरी कार चौराहे पर सबसे आगे खड़ी है और मेरे सामने वाली बत्ती हरी हो गयी है.
प्रसन्नचित्त मैं क्लच दबाकर गियर डालता हूँ.. अरे यह क्या? गेरुये वस्त्र धारण किये कुछ युवक मेरे सामने अपनी मोटर साइकिलें अड़ा देते हैं. एक तरफ़ से एक ट्रैक्टर से बंधी एक सजी हुई ट्रॉली आ रही है, जिसपर ढेर सारे युवक नाच-गा रहे हैं. चौराहे पर पुलिस वाले मेरी तरह असहाय मुद्रा में खड़े देख रहे हैं.
लाउडस्पीकर पर एक फ़िल्मी गाना बज रहा है..
.. उस दिन भी कुछ ऐसा ही माहौल था.. मैं 11 वर्ष पहले की एक ऐसी ही सुबह की याद में खो जाता हूँ.
... मैं सुबह के समय स्नान को जा रहा था कि फ़ोन की घण्टी बज उठी. फ़ोन पर मेरी माताजी थीं. घबराये हुए स्वर में बोलीं, "बेटा जल्दी से आ जाओ. तुम्हारे पिताजी को कुछ हो गया है. डॉक्टर को फ़ोन कर दिया है." मेरे घर से 4-5 किलोमीटर दूर मेरे छोटे भाई का घर था, जिसके साथ मेरे माता-पिता रह रहे थे, उन दिनों. भाई दौरे पर बाहर गया हुआ था. डॉक्टर को मैं तुरन्त कुरते पाजामे में ही कार उठा कर भागा. मुख्य सड़क पर आते ही मिला ट्रैफ़िक जाम. पुलिस ने काँवड़ियों की सुविधा के लिए सामान्य ट्रैफ़िक हेतु सड़क बंद कर रखी थी. मैंने पुलिस के सिपाहियों को अपने पिताजी के बारे में बता कर विनती की किन्तु उन्होंने मेरी मदद करने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी. मुझे हार कर कार मोड़नी पड़ी और दूसरे बहुत लम्बे रास्ते से होते हुए मैं भाई के घर पहुँचा. 5-10 मिनट के स्थान पर मुझे एक घण्टे से अधिक समय लग गया.
मेरे विलम्ब से पहुंचने के कारण मेरे पिताजी मुझसे रूठ कर चले गये थे, इस संसार से हमेशा के लिए! पीछे रह गया था उनका पार्थिव शरीर! वहाँ पहले से उपस्थित लोग कह रहे थे, "बड़ी पुण्यात्मा थी, जो इतना सुन्दर दिन लिया महाप्रयाण के लिए. श्रावण की शिवरात्रि और वह भी सोमवार का दिन!" एक सज्जन मुझे सांत्वना दे रहे थे, "तुम क्या कर सकते थे बेटे? धार्मिक-उन्माद है यह तो उन काँवड़ियों का!".
.. .....पसीने में लथपथ मैं अपनी तन्द्रा से बाहर आता हूँ. ट्रैक्टर-ट्रॉली ठीक मेरे सामने से गुज़र रही है. ट्रॉली पर चढ़े युवक झूम-झूमकर नाच रहे हैं. लाउडस्पीकर पर गीत बज रहा है, "...हम जग की परवाह करें क्यूँ, जग ने हमारा किया क्या? दम मारो दम..."
"धार्मिक-उन्माद", मेरे मस्तिष्क में वे शब्द गूँज रहे हैं. "उन्माद तो यह निस्सन्देह है, पर इसमें धार्मिक क्या है?" मैं स्वयं से प्रश्न कर रहा हूँ.
नज़दीक से
-विक्रम शर्मा
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