Monday, December 27, 2010

शीत लहर

अखबार की सुर्खियाँ थीं, "शीत लहर से 47 मरे." मुझे जनगणना की अवधारणा भी कुछ अजीब लगती है. मनुष्य कोई गिनने की वस्तु है? गिनती तो मवेशियों की होती है. मनुष्यों की कैसी गिनती?

दरअसल मनुष्यों की किसे परवाह है? गिनती तो हिन्दू मुसलमानों की होती है, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की होती है, वोट बैंक की होती है. अब अन्य पिछड़ी जातियों की भी हो रही है. मानो कोई लक्ष्य है, जिसके प्राप्त होने की समीक्षा की जा रही हो!

शीत लहर से कितने मरे, लू से कितने मरे, बाढ़ से कितने मरे, सूखे से कितने मरे.. क्या इसके भी लक्ष्य होते हैं, जिनकी ऋतु के हिसाब से समीक्षा की जाती है? ऐसा ही होता होगा, वरना अखबार में ये खबरें केवल आंकड़ों की तरह ही छपती हैं, इनका कोई असर तो होता दिखता नहीं.

श्रीमती जी इस खबर को पढ़कर विचलित हो गयीं. बोलीं, सरकार तो कुछ कर नहीं रही. उलटे रैन-बसेरे तोड़े जा रहे हैं. समाज को ही आगे आना होगा. हम ही इस दिशा में पहल करते हैं. वैसे भी इतने गरम कपड़े पड़े हैं. भला हो मॉल्स में लगने वाली इन सेल्स का, घर में कपड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. चलो अलमारियों को कुछ हलका करें. कुछ भलाई का काम करें.

हमने फ़ालतू गरम कपड़ों की दो पोटलियाँ बनायीं और कार में रख लीं. सोचा, हर लाल बत्ती पर भिखारी मिल जाते हैं, काम पर जाते या वापस आते समय ज़रूरतमंदों में बाँट देंगे.

घर से कार्यालय तक हमें किसी भी लाल बत्ती पर कोई भिखारी नहीं मिला. न ही शाम को घर आते वक्त. सर्दियों में दिन जल्दी ढल जाता है. "इतनी सर्दी में ज़रूरतमंद भिखारी कहीं आग ताप रहे होंगे. चौराहों पर थोड़े ही मिलेंगे," श्रीमती जी ने बोलीं.

दो दिन तक ऐसा ही चलता रहा. पोटलियाँ कार में रखी रहीं. हमें कोई ज़रूरतमंद नहीं दिखा. तीसरे दिन छुट्टी थी. हम दिन में किसी काम से बाहर निकले. एक चौराहे पर हमें एक महिला और दो बच्चे दिखे. एक छोटा बच्चा पैदल चल रहा था, महिला की उंगली पकड़कर और दूसरा उसकी गोद में था. दोनों बच्चे निर्वस्त्र थे. देखकर दुख भी हुआ और खुशी भी! दुख उन बच्चों की दुर्दशा को देखकर और खुशी इस बात की कि शायद हमें अपना गंतव्य मिल गया था. किन्तु बहते ट्रैफ़िक में हम रुक नहीं पाये और वह स्त्री उन बच्चों के साथ हमारी विपरीत दिशा में बढ़ती चली गयी. लाल बत्ती पर हम रुके.

जाना पहचाना चौराहा था. हमें अकसर किताबें बेचने वाला एक नवयुवक दिखा. श्रीमती जी बोलीं, यह भी तो गरीब है, इसे भी दे देते हैं, कोई स्वैटर. किन्तु उस नवयुवक ने साफ़ मना कर दिया. बोला, "हम मेहनत करके कमाते हैं. नसीब में होगा तो भगवान अपने आप दे देगा." गोद में रखी गरम कपड़ों की पोटली मुझे मानो बरफ़ की सिल्ली सी शीत लगने लगी. उसके लिए मन श्रद्धा से भर उठा.

उन निर्वस्त्र बच्चों की तरफ़ इशारा करके मैंने कहा, "चलो उन बच्चों को दे देना. उनके लिए ले कर रख लो." उसने हँसकर उत्तर दिया, "अरे वह औरत तो नौटंकी है! आपसे कपड़े ले भी लेगी तो भी वो बच्चे नंगे ही रहेंगे. बेच देगी वह कपड़े. बच्चों को कपड़े पहना दिए तो उसे भीख कौन देगा?"

पता नहीं मुझे पुण्य कमाने की जल्दी थी अथवा पोटलियों से छुटकारा पाने की. मैंने कहा, "कोई बात नहीं, बेचेगी भी तो ये पुराने कपड़े कौन खरीदेगा. कोई ज़रूरतमंद ही न?" किन्तु मेरी बात पूरी होने से पहले वह नवयुवक दूसरी तरफ़ भाग गया. हमारी बत्ती हरी हो गयी थी, और ग्राहक लाल बत्ती पर मिलते हैं!

महान बनना इतना आसान नहीं होता. हमें लाचार होकर वहाँ जाना पड़ा जहाँ ज़रूरतमंद मिलने की संभावना प्रबल थी. मन्दिर के पीछे की झुग्गियों में. झुग्गियों के सामने कार का रुकना था कि झुग्गियों में से अनेक हाथ सशरीर बाहर निकल पड़े. पलक झपकते ही हमारी पोटलियों का खज़ाना कम पड़ गया. एक वृद्ध युगल हमें आशीर्वाद देते थक नहीं रहे थे. झुर्रियों वाली उनकी गालों पर अश्रुप्रवाह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. सच्चे मन और भारी कदमों के साथ मैं कार से बाहर आया और बुज़ुर्गों को प्रणाम कर उनके आशीर्वाद का पात्र बना.

घर लौटते समय मैं विचार कर रहा था, कितने कृतघ्न हैं हम अपनों के प्रति. हमारे लिए वे कितना भी कर लें हम आभार नहीं मानते. और ये पराये लोग पुराने, उतरे हुए कपड़ों के लिए भी कितनी दुआएं दे रहे हैं!

मन में संतोष था. हमें लग रहा था जैसे किसी यज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न हुई हो.

घर से एक मोड़ पहले सड़क किनारे कुछ लोग इकट्ठे थे. पूछा तो पता चला, शीत लहर की चपेट में से एक और आ गया!

अभी तो यज्ञ प्रारम्भ भी नहीं हुआ, हमें समझ आया.

नज़दीक से
-विक्रम शर्मा

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