Tuesday, February 20, 2018

भजिया-पकौड़े वाला

गरम नींबू-पानी के कटोरे में हाथ धोकर गीले सुगंधित तौलिये से हाथ मुंह पोंछते हुए देवेश ने कहा, “भोजन सचमुच बहुत स्वादिष्ट था।“ सुनकर मुझे ऐसे प्रसन्नता हुई जैसे यह भोजन मैंने स्वयं बनाया हो।

मैं मुंबई में एक बैंक में कार्यरत था और मेरा छोटा भाई देवेश मुझसे मिलने मेरे पास आया हुआ था। कहने को कैरियर की दृष्टि से मैं एक सफल व्यक्ति था। लाखों-करोड़ों युवाओं का स्वप्न था बैंक में पी॰ओ॰ की नौकरी पाना। मेरा भी यह स्वप्न था और मैं इस स्वप्न को साकार कर चुका था। मेरे परिवार को गर्व था मेरी इस उपलब्धि पर। मेरा छोटा भाई भी मुझसे बहुत प्रभावित था और मेरी ही तरह एक पी॰ओ॰ बनाना चाहता था। मैं खुश था कि मेरा भाई मेरे पास रहने आया था। मैं चाहता था कि वह नज़दीक से देखे मेरा जीवन और उसके बाद अपने भविष्य के बारे में निर्णय ले।

मेरी नियुक्ति मुंबई फोर्ट क्षेत्र की एक शाखा में हुई थी। शुरू के दिनों में होटल में रुका जो बहुत महंगा था। फिर एक लॉज में ठहरा। कुछ दिनों बाद लॉज भी जेब को कचोटने लगी। एक चॉल में भी रुका, परंतु वहाँ एक दिन से अधिक ठहरा नहीं गया। चर्च गेट से विरार तक और वी॰टी॰ से लेकर ठाणे तक सभी क्षेत्रों में विकल्प तलाश मारे परंतु कहीं बात नहीं बनी।

एक सहकर्मी थे मेरे, मुझसे वरिष्ठ थे। हर रोज़ मुझसे आशियाना ढूँढने की कथा सुना करते। कांदीवली में रहते थे, अपने भाई के साथ। जैसे मेरे पास अनेक किस्से थे छत ढूँढने के, उसी प्रकार उनके पास अपने भाई की बेरोजगारी के अनेक किस्से थे। पता नहीं, उन्हें मेरी दुर्दशा पर तरस आया या फिर अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का अवसर दिखा, एक दिन उन्होंने मुझे प्रस्ताव दिया उनके फ्लैट में उनके साथ रहने का। उसी रोज़ मैं उनके साथ उनके घर गया। दो छोटे कमरों का एक फ्लैट था। दो कमरों के बीच में जगह बनाकर एक छोटी रसोई और एक स्नानघर की व्यवस्था की गयी थी। दोनों भाई एक-एक कमरे में रहते थे।

“भीतर के कमरे में डबल बेड है। हम दोनों भाई वहीं सो सकते हैं। जब कभी घर से कोई आता है, तब हम ऐसा ही करते हैं। अब तो कोई आता भी नहीं यहाँ रहने। बाहर के कमरे में दीवान है, उसमें तुम रह सकते हो,” उन्होंने योजना समझाई, “रसोई में हम सिर्फ चाय बनाते हैं, दूध गरम करते हैं। खाना हम बाहर ही खाते हैं। दफ्तर में डिब्बा आता है और शाम को हम यहाँ एक आंटी के घर में खाकर आते हैं। तुम भी ऐसा ही कुछ कर सकते हो। अब तक भी तो यही कर रहे हो। तुमसे जो किराया मिलेगा उससे भाई का जेब खर्च निकल जाएगा।“ योजना उत्तम थी, यही तो मैं चाहता था।

तब से मैं वहीं कांदीवली में ही रह रहा था। बहुत सुविधाजनक नहीं था, परंतु उससे बेहतर कोई उपाय था भी नहीं। एक रोज़ मेरे वरिष्ठ सहयोगी के पिताजी आए, तो वे दो दिन उनके छोटे भाई ने मेरे कमरे में दीवान के साथ ज़मीन पर बिछौना लगाकर बिताए। एक छोटी मेज़ थी जिसे ज़मीन पर बिछौना बिछाने की जगह बनाने के लिए दीवार के साथ चिपका दिया जाता और दो फोल्डिंग कुरसियों को भीतर वाले कमरे में ले जाया जाता। बस उतनी ही जगह थी उस कमरे में।

मेरा छोटा भाई मुंबई आया तो भी हमने वही किया। ज़मीन पर बिछौना बिछाया जिसपर मेरा छोटा भाई देवेश ज़िद करके सोता और मुझे दीवान पर ही सोने को मजबूर करता। सुबह नाश्ते में हम हमेशा की भांति चाय के साथ ब्रैड-मक्खन या ब्रैड-जैम खाते। एक ही शौचालय/ स्नानघर के लिए सुबह के समय हम चार लोगों की कतार लगी रहती। कार्यालय में उन दिनों स्टाफ़ कम होने के कारण छुट्टी नहीं मिल रही थी। बहुत मुश्किल से दो दिन की छुट्टी का ही जुगाड़ कर पाया। बाकी दिन छोटे भाई को उसके दिन का कार्यक्रम बनाकर दे देता और वह अकेले ही मुंबई घूमता।

सुबह हम कांदीवली स्टेशन तक ऑटो में जाते। वहाँ से उलटी दिशा में बोरीवली के लिए ट्रेन पकड़ते। फिर बोरीवली से फ़ास्ट या डबल फ़ास्ट ट्रेन लेकर चर्चगेट जाते। कभी-कभी भाई को मैं रास्ते में बांद्रा या दादर उतार देता, आसपास की कोई जगह देखने के लिए। कान्दीवली से उलटे बोरीवली जाने के दो लाभ होते। एक तो बोरीवली से फ़ास्ट या डबल फ़ास्ट ट्रेन मिल जाती, जो कान्दीवली में रुकती ही नहीं थीं। दूसरे, जिस ट्रेन में बोरीवली जाओ, उसी में बैठे रहो। मुंबई लोकल में सीट पाने वाला राजा होता है, बाकी सब धक्के खाने वाली प्रजा। बोरीवली से चढ़ने वालों को भी अक्सर सीट नहीं मिलती थी।

शाम को देवेश मेरे कार्यालय में आ जाता और हम मिलकर मरीन ड्राइव घूमते, कोलाबा या फिर क्रॉफोर्ड मार्केट या फ़ैशन स्ट्रीट में यूं ही जूते घिसाते घूमते और सस्ती वस्तुएँ ढूंढते। वापसी में कोलाबा या दादर या बांद्रा या कान्दीवली के किसी रैस्टौरेंट में भोजन करते और वापस अपने-अपने बिस्तरों पर आकर सो जाते।

आज मैं अपने भाई को एक विशेष रैस्टौरेंट में लेकर आया था। “यह मेरे एक सीनियर का रैस्टौरेंट है,” मैंने उसे बताया था।

“क्या वह भी बैंक में काम करते हैं,” देवेश का यह एक स्वाभाविक प्रश्न था।

“अरे, बैंक में काम करते तो किसी लॉकर में चाभी घुमा रहे होते या किसी कस्टमर से सिर खपा रहे होते,” मैंने उत्तर दिया।

“तो क्या छोड़ दी उन्होंने नौकरी?”

“उनकी नौकरी लगी ही नहीं,” मेरा उत्तर था।

देवेश की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा, “फिर वह आपके सीनियर कैसे?”

फिर मैंने उसे पूरी बात बताई। मेरे उन सीनियर का नाम मनोज था। किताबों की एक दूकान पर मुलाक़ात हुई थी। बातचीत एक किताब को लेकर शुरू हुई थी। मैं पी॰ओ॰ प्रवेश परीक्षा के लिए उस किताब को खरीदने वाला था कि उन्होंने मुझे उससे बेहतर तीन चार किताबें सुझा दीं। मैंने एक दो प्रश्न किए तो उनकी जानकारी को देखकर अचंभित रह गया। उन्होंने वे सारी किताबें पढ़ी हुई थीं। उनका ज्ञान विस्मयकारी था। पता चला कि वह तीन साल से ऐसी विभिन्न परीक्षाएँ दे रहे थे। लगभग सभी परीक्षाओं में इंटरव्यू राउंड तक पहुँच भी जाते थे परंतु उनका सेवा में चयन नहीं हो पाता था।

मैं पहली बार ऐसी कोई परीक्षा दे रहा था और वह तीन साल में ऐसी अनेक परीक्षाएँ दे चुके थे, इस नाते वे मेरे सीनियर थे। उसके बाद से मैं उनके संपर्क में रहने लगा, फ़ोन के माध्यम से भी और व्यक्तिगत मुलाकातों से भी। वह मेरे मार्गदर्शक बन गए थे। वही बताते कि क्या पढ़ना है, किस स्रोत से पढ़ना है और किस विषय में अधिक समय नहीं गंवाना है। लगता था वह न केवल विषयवस्तु के ज्ञाता थे वरन परीक्षा-कला में भी पारंगत थे। फिर उनका चयन क्यों नहीं होता था? बहुत संकोच के साथ यह प्रश्न मैं उनसे भी करता और उत्तर में वह मुस्कुरा भर देते। उनकी मुस्कान के पीछे का दर्द मैं समझ सकता था। उनके मार्गदर्शन से लाभान्वित होकर अनेक लोग आज विभिन्न बैंकों की सेवाओं में थे। परंतु वह आज भी कतार में खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे अपने चयन की।

एक बार उन्होंने बातों-बातों में मुझसे कह ही दिया कि यह उनका अंतिम प्रयास है, बैंक सेवा की परीक्षा का। उनकी बात सुनकर मुझे बहुत निराशा हुई। मैं उनके लिए प्रार्थना करने लगा। साथ ही मुझे यह भी लगने लगा कि जब इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति का चयन नहीं हो रहा है तो मेरे चयन की तो संभावना ही नहीं थी। मैंने पूरे मनोयोग के साथ तैयारी शुरू कर दी। मनोज, यद्यपि अपनी लगातार असफलता से हतोत्साहित थे, मेरी सहायता करने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

परीक्षा हुई, इंटरव्यू राउंड हुआ, सेवा के लिए मेरा चयन हो गया परंतु मनोज का चयन इस बार भी नहीं हुआ। मनोज ने मुसकुराते हुए मुझे गले लगाकर बधाई दी परंतु उनकी मुस्कान के पीछे मैं उनका दर्द अनुभव कर रहा था। “तुम मेरी चिंता मत करना। ईश्वर ने मेरे लिए कुछ और योजना बना रखी होगी,” एक दार्शनिक की भांति मनोज बोले।  

एक वर्ष की ट्रेनिंग के बाद मेरे नियुक्ति मुंबई फोर्ट की एक शाखा में हुई। मैंने मुंबई शहर के बारे में सुन रखा था कि उस शहर में बाहर के व्यक्ति का निर्वहन बहुत कठिन है और कोई वहाँ नियुक्ति नहीं चाहता। परंतु यह भी सुन रखा था कि एक बार यदि कोई मुंबई में रह जाए कुछ साल, तो उस शहर को छोड़ना नहीं चाहता।

ट्रेनिंग के इस पूरे वर्ष में मैं मनोज के संपर्क में था। पहले तो प्रायः हर रोज़ ही उनसे बात हो जाती थी। फिर वह व्यस्त हो गए और हमारी बात कम होने लगी। मज़े की बात यह थी कि वह मुंबई में ही थे। प्रतियोगिता परीक्षाओं की तरह ही उनका हमारे शहर से भी मन उकता गया था और वह अपने एक मित्र के पास मुंबई आ गए थे। यहाँ आकर उन्हें पता चला कि स्वयं उनके मित्र एक घटिया सी चॉल में कितनी कठिनाई से रहते थे। मेरे मित्र का संकल्प और अधिक दृढ़ हो गया और वह उसी चॉल में अपने खर्चे पर रहकर चौपाटी में भेलपुरी बेचने लगे। आसान यह भी नहीं था किन्तु पढ़े-लिखे होने के कारण वह इसे संभव बना पाए। परंतु यह उनकी मंज़िल नहीं थी। शीघ्र ही उन्होंने वरली क्षेत्र में किराए की एक दूकान में पकौड़े-भजिया, बड़ा-पाव बेचना शुरू कर दिया। अपने तेज़ दिमाग और किसी काम को छोटा न समझने की सोच के सहारे उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

“आज मनोज के चार रेस्टॉरेन्ट हैं मुम्बई शहर में और उनमें से एक में हमने अभी-अभी भोजन किया है,” कहकर मैंने अपनी बात समाप्त की और एक लंबी सांस ली।

"काश, आपका भी सेलेक्शन पी.ओ. के इम्तिहान में न हुआ होता...” देवेश बुदबुदा रहा था।


 

 

नज़दीक से

- विक्रम शर्मा



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