Wednesday, February 28, 2018

मानवाधिकार


किशोरावस्था थी उस समय मेरी. घर के बगल वाले खाली प्लाट पर खेल रहे थे हम. शाम होने वाली थी. अचानक गली में से एक साइकिल रिक्शा बहुत तेज़ गति से निकली. तेज़ शोर के साथ उसके पीछे तीन-चार रिक्शा और निकलीं, उतनी ही तेज़ गति से. हम सकपका कर गली में आये. रिक्शाएं जा चुकी थीं. गली में कई लोग ऐसे ही मुँह बाए खड़े थे. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

इतने में किसी बच्चे की माँ वहां आयी और अपने बच्चे को पकड़ कर ले चली. अन्य बच्चों को भी हिदायत दी कि सब बच्चे अपने-अपने घर चले जाएँ, तुरन्त. पुलिस कुछ गुंडों का पीछा कर रही थी. बाहर रहना खतरे से खाली नहीं था.

हम भागकर अपनी छत पर चढ़ गये. इतने में वही साइकिल रिक्शा फिर दिखाई दी. पहली रिक्शा में दो कसे बदन के दो युवा बैठे हुए हंस रहे थे और पीछे एक के बाद एक चार रिक्शाओं में दो-दो पुलिस के जवान लाठियां लिए बैठे थे.

इन रिक्शाओं ने गली के तीन-चार चक्कर लगाए, थोड़ी-थोड़ी देर के बाद. लगता था पूरे मोहल्ले के चक्कर लगा रही थीं ये रिक्शाएं. अत्यंत उत्तेजक एवं लोमहर्षक दृश्य था. देखते ही देखते सांझ का झुटपुटा हो गया. हम इन्तज़ार कर रहे थे, रिक्शाओं के एक और चक्कर का, परन्तु खेल अब समाप्त हो गया था.

इसके आगे की कहानी किसी साथी ने अगली सुबह बतायी. पुलिस को पूरे मोहल्ले के कई चक्कर लगवाने के बाद सांझ होने पर गुंडे भागकर खेतों में घुस गये. पीछे-पीछे पुलिस भी चली गयी, अति-उत्साह में. वहां गुंडों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं. लाठीधारी पुलिस वाले जान बचाकर भागे घने खेतों की ओर, और वहां दुबक कर छुप गये. गुंडे अट्टहास करते हुए वहां से चले गये और पुलिस वाले जान बचाकर वहीं दुबके रहे खड़ी फसल में. देर रात थाने से पुलिस का एक और दस्ता आया टॉर्चों के साथ, और ढूंढ-ढूंढ कर अपने साथियों को निकाल कर साथ ले गया.

बहुत थू-थू हुई पुलिस की हर तरफ़. चले थे गुंडों को पकड़ने! कायरों की तरह अंधेरी झाड़ियों में दुबके रहे डरकर! और भी बहुत कुछ. जैसे, पुलिस वाले तो गुंडों से मिले हुए होते हैं। यह पीछा-वीछा तो सब दिखावटी है! डंडे लेकर चले थे पिस्तौल-धारी गुंडों को पकड़ने? क्या इन्हें मालूम नहीं था कि गुंडों के पास कौन से हथियार थे? पुलिस वाले होते ही डरपोक हैं. घूस खा-खाकर मानसिक रूप से और हरामखोरी करके शारीरिक रूप से कमजोर हो जाते हैं. इन पुलिस वालों का बस तो सिर्फ़ शरीफ़ लोगों पर चलता है, गुंडे-मवालियों से तो डरते हैं ये! जितने मुँह, उतनी बातें.

इस घटना के कुछ दिनों बाद हम मकान बदल कर दूसरे मोहल्ले में चले गये. बालक-मन भूल गया उस वारदात को.

कई वर्षों बाद उसी इलाके में जाना हुआ. बचपन के दोस्तों की एक मंडली में हम घूम रहे थे यूं ही. एक दोस्त ने पूछा, “चाय पी जाए?” सबने हामी भरी. चलो थाने चलते हैं चाय पीने.मुझे कुछ अजीब लगा, थाने में चाय? मित्र ने बताया, “यार, रज्जो की चाय बहुत बढ़िया होती है, यहीं थाने के गेट पर दूकान है उसकी.

नाम सुना-सुना सा लग रहा था. दुकानदार को देखकर बहुत तरस आ रहा था. पूरा शरीर मानो मुड़ा-तुड़ा हो. लगता था जैसे चाय अब छूटी उसके हाथ से. परन्तु धीरे-धीरे ही सही, वह चायवाला रज्जो अदरक, इलायची कूट कर बड़े सलीके से चाय बना रहा था. चाय वाकई बहुत स्वादिष्ट थी.

रज्जो को देखकर श्रद्धा-सी उमड़ रही थी. उसकी स्वावलंबन की भावना अतुल्य थी. ऐसे शरीर के साथ भी कोई काम कर सकता है, हृदय रुदन कर रहा था.

वहां से चलने पर बातचीत का विषय था रज्जो. भगवान् भी कैसे-कैसे अत्याचार करता है बेबस लोगों पर,” मैं अनायास कह गया.

मालूम है कौन है रज्जो?” बचपन में मेरे साथ उस खाली प्लाट में खेलने वाले उस मित्र ने पूछा. मुझे कैसे मालूम होता! याद है, बचपन में एक दिन एक गुंडे ने पुलिस को खूब चक्कर खिलाये थे मोहल्ले के, और खेतों में ले जाकर गोलियां चलाकर भगा दिया था पुलिस वालों को? फिर आधी रात को पुलिस वालों ने ढूंढा था अपने साथियों को?” एक चलचित्र की भांति पूरा घटनाक्रम मेरी आँखों के सामने से गुज़र गया.

यह रज्जो ही था वह गुंडा.

फिर यह सब कैसे?” मैंने पूछा.

उस वारदात के बाद कई मुठभेड़ें हुईं पुलिस और रज्जो के गिरोह के बीच में. हर बार रज्जो हावी रहा पुलिस पर और पुलिस गिरफ़्तार नहीं कर पायी रज्जो को. बाद में तो रज्जो का गिरोह बहुत बड़ा और ताकतवर हो गया था. कई बार पुलिस वाले पिटे भी गुंडों से.

आखिरकार पुलिस का भी दिन आया. पुलिस और रज्जो गिरोह के बीच बहुत लम्बी चली वह मुठभेड़. इस बार पुलिस फ़ोर्स अधिक थी. खूब तोड़ा पुलिस ने पूरे गिरोह को. उसी मुठभेड़ में रज्जो के शरीर की हड्डियों के कई टुकड़े हो गये. किसी लायक नहीं रहा रज्जो. हाथ-पैर सब बेकार हो गये.

मानवाधिकार आयोग से पुलिस को नोटिस वगैरह भी आये थे; जांच भी हुई थी; परन्तु रज्जो ने पुलिस के पक्ष में बयान दिया था, अपने अपराध और पुलिस पर आक्रमण की बात स्वीकार कर."

"मानवाधिकार वाले रज्जो की ज़िंदगी तो नहीं सुधार सकते थे न.

जिन पुलिस वालों ने उसका यह हाल किया था, उन्होंने ही इसे यहाँ थाने के गेट पर जगह दे दी, चाय की छोटी सी दूकान लगाने के लिए - तरस खाकर. तब से रज्जो शराफ़त और मेहनत से काम करता है, पुलिस वालों और बाहर से आने वालों को चाय पिलाता है और अच्छी चाय के लिए मशहूर है. आने वाले अपराधियों को अपना टूटा हुआ शरीर दिखा कर सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है.

मैं पीछे मुड़कर देख रहा था. रज्जो की दुकान तो ओझल हो गयी थी नज़रों से, किन्तु साइकिल-रिक्शा पर बैठा घमंड से हंसता हुआ वह रज्जो दिख रहा था मुझे.

नज़दीक से
- विक्रम शर्मा


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