Monday, March 5, 2018

गुंडे-मवाली


एक दिन मैं अपनी गली की एक दूकान पर खड़ा कुछ सामान ले रहा था. एक युवक वहाँ आकर रुका. बिखरे बाल. सीने के बटन खुले हुए. गुंडे-मवालियों जैसा अंदाज़. वह एक अन्य युवक को धमका रहा था. अचानक उसकी नज़रें मुझसे मिलीं. वह कुछ अचकचा-सा गया और अपनी बात को संक्षेप में समाप्त कर दूसरे युवक को गाली देकर चला गया. मुझे उसका चेहरा परिचित सा लगा किन्तु स्मरण नहीं आया कि वह कौन था और मुझे देखकर असहज क्यों हो गया था.

उस घटना के बाद वह युवक मुझे अकसर गली में दिखने लगा. खुले बटन. लोफरों वाला अंदाज़. पास से गुज़रता तो पता नहीं क्यों दिल करता कि मैं उसे रोक कर उससे बात करूं. उसे कुछ सलाह दूं. किन्तु वह युवक मेरे प्रति उदासीन, सीना फुलाए कमीज़ के कालर उठाये, पास से गुज़र जाता. 

एक दिन रात को सोने से पहले मैं उसके बारे में सोच रहा था. यकायक मुझे उस युवक का स्मरण हो आया. यह तो वही युवक था, जो मुझे जब भी मिलता, बहुत सम्मान के साथ मुझे नमस्कार किया करता था. कारण? एक बार कुछ दिनों तक परीक्षा के दिनों में मैंने गली के कुछ युवा छात्रों की पढ़ने में सहायता की थी. उन युवाओं में एक वह भी था.

पढ़ाई के दौरान वह अधिक उत्साह नहीं दिखाता था. चुपचाप बैठा रहता था. संभवतः वह अपने परिणाम को लेकर अधिक आशावान नहीं था. समयाभाव के कारण मैं भी उसकी पढ़ाई में अलग से कोई रूचि नहीं ले पाया था. पता नहीं, वह पास भी हुआ था कि नहीं, मुझे इसकी जानकारी भी नहीं मिली. बस उसका और मेरा इतना ही सम्बन्ध था कि वह मुझे सम्मान के साथ नमस्ते करता और मैं मुस्कुरा कर उसे उत्तर देता. वर्षों बीत गए. वह युवक अब दिखाई नहीं देता था. मैं भी उसे भूल चुका था. 

जो हमेशा झुक कर सम्मानपूर्वक अभिवादन किया करता था, उसमें इतना बदलाव! चेहरा वही, फिर भी इतना अलग व्यक्तित्त्व! अब मुझे समझ आया कि क्यों वह चेहरा मुझे इतना आकृष्ट करता था; क्यों मैं उसके बारे में इतना सोचता था.

अगली बार जब मुझे वह दिखा तो मैंने उसे बुला लिया. उसके लिए यह अप्रत्याशित था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह मुझसे कैसे व्यवहार करे. उसकी छवि एक गुंडे-मवाली की थी किन्तु मुझसे बात करते समय उसे अपना पुराना स्वरूप स्मरण हो रहा था और वह इस ऊहापोह से निकल नहीं पा रहा था. मेरे बुलाने पर उसने मुझे अभिवादन तो किया किन्तु उसमें पहले जैसा सम्मान नहीं था. अकड़ थी. 

थोड़ी बातचीत के बाद वह संयत हुआ. मैंने उसे अपने घर चलने को कहा. मेरे इस प्रस्ताव पर पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं उस गुंडे को अपने घर चलने के लिए कह रहा था. 

घर पहुँचने पर मेरे सामने वही वर्षों पहले वाला नवयुवक बैठा था. राकेश नाम था उसका. मासूम. झुकी हुई आँखों में नमी. दो-चार मिनटों की बातचीत के बाद वह रो रहा था बच्चों की तरह. आज कहूं तो उसकी कहानी एक घिसी-पिटी फ़िल्मी कहानी की भाँति थी. किन्तु मैं स्वयं उसकी कहानी का साक्ष्य था. बस इतना नहीं, मैं जानता था कि वह नवयुवक भी उस कहानी का एक प्रमुख पात्र था.

हमारी गली का वातावरण बहुत तनावपूर्ण था उस दिन. पूरी गली वर्दीधारी पुलिस वालों से भरी हुई थी. सुनने में आया, कुछ गुंडे फ़ौजदारी करके छुपे हुए थे किसी घर में. सब लोग अपने-अपने घरों में सहमे हुए दुबके थे. घर-घर की तलाशी ले रही थी पुलिस. खबरों-अफ़वाहों का बाज़ार गरम था. बैंक डकैती से लेकर एक बड़े नेता की ह्त्या तक की अफ़वाहें थीं. किसी छोटी-मोटी वारदात से तो पुलिस हरकत में आती नहीं.

एक खबर जिसकी बाद में पुष्टि भी हुई, यह थी कि युवकों के दो गुटों में झगड़ा हो गया था. बात बिगड़ गयी और एक युवक का सर फूट गया. संयोग से जिस युवक का सर फूटा था, वह एक पुलिस अधिकारी का पुत्र था. अब पुलिस दूसरे गुट के एक-एक युवक को चुन-चुन कर पकड़ रही थी, उन्हें प्रताड़ित कर रही थी.

थोड़ी देर में खबर आयी कि गली के एक घर में कुछ युवक सचमुच छुपे हुए थे और पकड़े गये थे. उन युवकों में एक राकेश भी था, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी.

“पुलिस ने हमें बहुत पीटा, थाने में. तब तक, जब तक हम उनके लगाए सभी आरोपों को मान नहीं गये – चाहे वे सच्चे थे अथवा मनगढ़ंत. हम पर पैसे लूटने, चोरी करने और चाकू से हमला करने जैसे आरोप लगाये गये. हमने उस लड़के को मारा ज़रूर था, किन्तु मारा तो उन्होंने भी था हमें. हममें से एक लड़के ने, जो बहुत पिट रहा था, पत्थर उठाकर दे मारा एक लड़के के सर, और उसके सर से खून निकलने लगा. चाकू को तो हमने कभी हाथ भी नहीं लगाया था, सिवाय सब्ज़ी काटने वाले चाकू के,” राकेश रोते-रोते बता रहा था अपनी आपबीती.

“अदालत में खून लगा चाकू भी था और अनेक गवाह भी. हमें सज़ा हो गयी – उस अपराध के लिए, जो हमने नहीं किया था.

“जेल में हमें कई तरह के लोग मिले. गुंडे-मवालियों से लेकर वर्दी-वाले गुंडे. सबने वहां हमसे दुर्व्यवहार किया.

“जेल से बाहर आकर हम सामान्य जीवन जी सकें, इसका सवाल ही नहीं है. कोई हमसे सीधे-मुँह बात ही नहीं करता. घर में भी नहीं. घर में तो सब मुझे गुंडा-मवाली कहते हैं. कॉलेज जाने की आयु रही नहीं. काम कोई देता नहीं. सिर्फ़ गुन्डागर्दी की ट्रेनिंग है हमें. तो गुंडा-मवाली बनने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रहा,” शून्य में ताकता हुआ बोल रहा था वह.   

राकेश कसम खा कर कह रहा था कि जिन अपराधों की सज़ा उसे मिली थी और जेल से बाहर आकर भी मिल रही थी, उनमें से कोई भी अपराध उसने नहीं किया था. मुझे उसकी आँखों में सच्चाई दिख रही थी. मुझसे झूठ बोलने का कोई कारण भी नहीं था.

अब मेरी नज़रें झुकी हुई थीं. साहस नहीं हो रहा था उसकी ओर देखने का. कौन था ज़िम्मेदार उसकी इस त्रासदी का? वह स्वयं, जो पढ़ाई के स्थान पर आवारागर्दी करता था? पुलिस वाले, जिन्होंने उसे अपराधी बनाया? उसके परिवारवाले, जिन्होंने उसे आवारागर्द बनने दिया? शिक्षा-व्यवस्था? या समाज जो अपराधी का ठप्पा लगे व्यक्ति से या तो डरता है या नफ़रत करता है. उसे अपनाता नहीं.


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