Friday, July 3, 2020

खिड़की के बाहर


पंछी नदिया पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके
सरहदें इन्सानों के लिए हैं
सोचो तुमने और मैंने क्या पाया
इन्सां हो के ...

एफ.एम. रेडियो पर यह गाना बज रहा है। एक समय था मैं छायावाद से बहुत प्रभावित था। रेडियो पर बजता यह गीत सुनकर तो मानो हृदय हिलोरें लेने लगता था।

कभी मैं स्वयं को एक पंछी की भांति उड़ता हुआ अनुभव करता, दूर, सुदूर क्षेत्रों में, स्वच्छंद, मस्ती के साथ, बिना कुछ सोचे, चारों ओर विस्तृत प्रकृति का रसास्वादन करते हुए।

कभी मैं एक नदी बनकर बहता हुआ महसूस करता, कभी हिमखंडों के नीचे से चुपके से बह जाता तो कभी छलछल कर चट्टानों को काटते हुए मदमस्त बहता। कभी समतल पर कलकल कर नीरवता के साथ ध्यानावस्था में शांतचित्त बहता रहता तो कभी ऊबड़ खाबड़ धरती पर एक चंचल बच्चे की भांति हिलोलें मारता।

कभी मैं एक पवन का झोंका बन लोगों के चेहरों को स्पर्श करता हुआ आगे बढ़ जाता तो कभी उन्हें जीवनदायिनी श्वास देता हुआ बस, बहता रहता। कभी साथ में ऊष्मा लिए लोगों को सूर्य की शक्ति का अहसास कराता तो कभी बादलों के कणों को अपने आंचल में समेटे हुए उन्हें छूता और उन्हें भी अपनी तरह रूमानी बना देता।

अब इस गीत का वैसा असर मुझपर नहीं होता। यथार्थ मुझे वैसा कुछ सोचने ही नहीं देता। समय के साथ एड़ियां सख्त हो जाती हैं, त्वचा मांसपेशियों का साथ छोड़ने लगती है और हड्डियां अकड़ जाती हैं। जब उठकर बैठना मुश्किल हो जाए तो उड़ने के बारे में कोई कैसे सोचे!

मेरे कमरे की एक छोटी खिड़की बाहर गली में खुलती है। वह खिड़की बाहर की दुनिया से मुझे जोड़े रखती है।

दरअसल, यह पिताजी का कमरा है। इसे पिताजी के ज़माने में बैठक कहा जाता था। कमरे में एक तख्त है, एक शीशम की लकड़ी की मेज़ और दो कुर्सियां ही बची हैं। घर के पुनर्निर्माण के समय पिताजी वाले कमरे और बाहर के छोटे टॉयलेट को नहीं छेड़ा गया। उसे उसकी मूल सादगी के साथ पूर्ववत रहने दिया, 'सादा जीवन, उच्च विचार' के महान दर्शन के प्रतीक के रूप में।

पिताजी का मानना था कि बाहर के लोगों को यथासंभव घर के भीतर प्रवेश नहीं करना चाहिए। उस ज़माने में अधिकांश लोग ऐसा ही सोचते थे। टॉयलेट अलग होते थे और सोने के कमरे अलग। घर में सबसे बाहर एक टॉयलेट होता था और बाहर के लोग उसी टॉयलेट को प्रयोग करते थे। परिवारजनों के लिए टॉयलेट और बाथरूम भीतर अहाते में थे। बेड रूम्स के साथ अटैचड टॉयलेट के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था उन दिनों।

कितना अलग था हम लोगों का रहन सहन तब! मेहमान बाहर के टॉयलेट में हाथ मुंह धोकर ही भीतर आते। चप्पल जूते बाहर उतारते। सब हाथ जोड़कर अभिवादन करते, कोई हाथ नहीं मिलाता। भोजन में स्वाद से अधिक शुद्धता पर ज़ोर दिया जाता था। शायद यह संसार अब वापस उन्हीं आदर्शों को अपनाने को मजबूर हो जाएगा जिन्हें इसने तिरस्कृत कर दिया है।

अमेरिका की कुछ पत्रिकाओं और स्वयंसेवी संस्थाओं ने 'वॉलेंटरी सिंप्लीसिटी' नामक एक आंदोलन की शुरुआत की है, जो इसी सोच पर आधारित है कि सुविधाजनक विकल्पों के जाल में उलझने के बजाय हमें सीधी-सरल जीवनशैली अपनानी चाहिए। वहां का शिक्षित वर्ग इसका महत्त्व समझने भी लगा है। क्या हम भारतीय भी अपनी संस्कृति के महत्व को, उसकी बारीकियों को समझ पाएंगे? इस सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ और सबसे उन्नत जीवन शैली को पुनः अपना पाएंगे?

विज्ञान ने हमें बहुत कुछ दिया है। बहुत कुछ और भी देने की क्षमता है विज्ञान में। परन्तु विज्ञान को एक रोबोट की भांति देखा जाना चाहिए। जब तक रोबोट मनुष्य की बात मानता है, तब तक ही वह मनुष्य का हितकारी है, मनुष्य का मित्र है। जिस दिन स्वयं मनुष्य रोबोट के नियंत्रण में हो गया तो मनुष्य जाति की कैसी दुर्गति होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। प्रकृति और मनुष्य के आपसी संबंध के परिप्रेक्ष्य में यह बात नितांत उलटी है। मनुष्य प्रकृति की देन है, प्रकृति का सृजन मनुष्य ने नहीं किया है। जब तक मनुष्य प्रकृति का सम्मान करता है, प्रकृति मनुष्य की रक्षा करती है, उसका लालन पालन करती है। जब मनुष्य प्रकृति को अपने वश में कर उसके प्रति असम्मान के भाव को व्यक्त करता है, प्रकृति मनुष्य को सबक सिखाती है।

विज्ञान, धर्म और संस्कृति अलग अलग नहीं हैं। इनका हाथ में हाथ मिलाकर चलना ही उचित है। वैसे भी, विज्ञान प्रकृति को समझने का एक प्रयास ही तो है। यही उद्देश्य धर्म और अध्यात्म का भी है।

एक अदृश्य वायरस ने पूरी मानव जाति को झिंझोड़ कर रख दिया है। इसकी चुनौती के सामने ज्ञान विज्ञान, धर्म अध्यात्म सब चुप रहने को मजबूर हैं और ईश्वरीय सत्ता के सामने नतमस्तक हैं।

रेडियो पर तो वह गीत कब का समाप्त हो चुका है परन्तु मैंने गूगल पर ढूंढ़कर उसे फिर चालू कर लिया है। आज मुझे इस गीत के रहस्य को सुलझाना है।

पंछी नदिया पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके

हमारे महा उपनिषद् में भी तो कहा गया है:

वसुधैव कटुंबकम्

पूरा विश्व एक कुटुम्ब ही तो है। तो फिर ये सरहदें क्यों? क्यों मनुष्य को सीमाओं में बद्ध कर दिया गया है, एक दूसरे से काट दिया गया है?

बहुत देर से लघु शंका का दबाव पड़ रहा था किन्तु इस तपते शरीर को टॉयलेट तक लेे जाना? परन्तु जाना तो पड़ेगा।

बाहर का यह टॉयलेट बहुत समय से प्रयोग में नहीं था। कुछ वर्षों से मेहमान सीधे भीतर के ड्रॉइंगरूम में आते और भीतर के टॉयलेट्स का ही प्रयोग करते। बाहर के टॉयलेट में तो पुताई वालों की बाल्टी, कूंची, ब्रश और कुछ बचे और सूखे हुए पेंट के डब्बे रखे रहते थे। वर्षों से इस टॉयलेट में कब्जा जमाये इस सामान को बेघर कर मेरे उपयोग के लिए टॉयलेट को चालू कर दिया गया था।

इसी बैठक में बिछे तख्त पर, जहां पिताजी बैठकर स्वाध्याय करते, मनन करते और मित्रों के साथ बतियाते, राजनीति से लेकर दर्शनशास्त्र पर चर्चा करते थे, मैं पिछले कई दिनों से लेटा हुआ मैली छत को निहारता रहता हूं, दिन और रात। अब यही 100 वर्गफुट का कमरा मेरी दुनिया है। हद से हद मैं बाहर के टॉयलेट तक जा सकता हूं जहां से निवृत्त होकर मैं लौटा हूं।

मेरा स्मार्टफ़ोन इस कमरे में मेरा एकमात्र साथी है। यह स्मार्टफ़ोन भी कमाल की चीज है। शायद इन दिनों के लिए ही इस अद्भुत यंत्र का आविष्कार हुआ था। एक कमरे में बंद होते हुए भी पूरी दुनिया मानो अपने इशारे पर कमरे में ही आ जाती थी। फ़्री कॉल्स और तेज़ इंटरनेट के सहारे सब प्रियजनों से तार जुड़े हुए हैं।

फिर भी, इस पुराने डिज़ाइन के सादा कमरे की वह छोटी खिड़की जो बाहर गली की ओर खुलती है, बहुत आकृष्ट करती है। खिड़की के बाहर कोई दिखता नहीं, फिर भी निगाहें बरबस उधर ही जाती रहती हैं। जिस तख्त पर मैं बैठता, लेटता और अधलेटी अवस्था में पड़ा रहता हूं, वहां से यह खिड़की मुश्किल से आठ दस फुट की दूरी पर है, फिर भी मैं उस खिड़की के साथ पिताजी की प्रिय कुर्सी को लगाकर खिड़की के बाहर घूम रही हवा को महसूस करता रहता हूं, इंतज़ार करता रहता हूं कि शायद कोई व्यक्ति वहां से गुजरे और मैं उसे चलते हुए देख पाऊं।

एक रोज़ गुज़रा था एक पड़ोसी, मुंह ढककर। हाथ में थैला था। शायद सब्जी लेने जा रहा था। उसे दूर से ही देख सहसा एक मुस्कान आ गई थी मेरे चेहरे पर, परन्तु हाथों ने यंत्रवत खिड़की को बंद कर दिया। उसके बाद से खिड़की के पास बैठकर मानो मैं यही इंतज़ार करता रहता हूं कि कोई वहां से गुजरे और मैं खिड़की को बंद कर दूं।

सरहदें इन्सानों के लिए हैं...

सरहदें हैं तो जानवरों के लिए भी। फर्क सिर्फ़ इतना है कि उन्हें इनका भान नहीं है।

इन्हीं लॉकआउट के दिनों में एक तेंदुआ इन्सानों की सरहद में घुस आया था। कई इन्सान जख्मी हुए और तेंदुआ भी।

यह कोरोना की बीमारी भी तो इसीलिए आई कि इन्सान अपनी सरहद भूल गया था। खाद्य और अखाद्य में भेद भूल गया। पहले प्राणियों को खाना प्रारंभ किया और फिर कुत्ता, बिल्ली, सांप, टिलचिट्टे, चमगादड़ - सब खाने लगा। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि इन्सान को अपनी सीमा लांघने का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है। परन्तु इन्सान की कभी खत्म न होने वाली भूख उसे सीखने ही नहीं देती और वह बार बार अपनी सीमा लांघना चाहता है।

हो सकता है इस कोरोना वायरस का सीधा संबंध चमगादड़ों से न हो। हो सकता है इसे वुहान की लेबोरेटरी में बनाया गया हो। हो सकता है इसका कोई और ही स्रोत हो। जो भी हो, इसका सम्बन्ध इन्सान द्वारा अपनी सीमा लांघने से अवश्य है।

सरहदें इन्सानों के लिए हैं
सोचो तुमने और मैंने क्या पाया
इन्सां हो के ...

परन्तु यदि सोचने से ज़िन्दगी बदल सकती तो इन्सान से पहले बकरा सोचता कि उसने क्या पाया बकरा बनके? इन्सान का छुरा पाया? इन्सान की भूख का शिकार बनने को? इन्सान से पहले भैंसा सोचता, मुर्गा सोचता, सूअर सोचता, आसमान में उड़ने वाला वह पंछी सोचता। सबको तो इन्सान निगल जाता है। अब तो कोई भी जानवर सुरक्षित नहीं रहा, इन्सान की लपलपाती ज़ुबान के सामने।

वसुधैव कटुंबकम्।

क्या इस वसुधा में वह तेंदुआ शामिल नहीं है जो अपनी सरहद लांघ कर मनुष्य की सीमा में घुस आया था? क्या इस वसुधा में वे पशु पक्षी नहीं हैं जिन्हें अपनी जिह्वा की तुष्टि के लिए मनुष्य मार कर खा जाता है?

श्रीमती जी मेरे साथ मेरे कमरे में आना चाहती थीं, मेरी देखभाल के लिए। "इस बीमारी के समय इन्हें अकेला कैसे छोड़ दूं," उनका तर्क था। पिछले चालीस साल के विवाहित जीवन में, उंगलियों पर गिने जा सकें, इतने ही दिन रहे होंगे जब उन्होंने मुझे अकेला छोड़ा हो। अपने मायके भी जातीं तो मेरी खातिर अगले ही दिन वापस आ जातीं। बीमारी में अकेला छोड़ने का तो प्रश्न ही नहीं था।

कोविड 19 वायरस की बात कुछ और है। यह बीमारी कम और डर अधिक है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि इस बीमारी से मरने वालों की संख्या अधिक नहीं है। मात्र दो से पांच प्रतिशत रोगियों को ही यह रोग काल के मुख में धकेलता है। अन्य रोगी प्रायः ठीक हो जाते हैं इस लाइलाज बीमारी से। मरने वालों में अधिकांश 60 वर्ष से अधिक आयु के होते हैं, या फिर किसी लंबी अथवा गंभीर बीमारी जैसे मधुमेह अथवा कैंसर आदि से ग्रस्त व्यक्ति।

आम तौर पर हर दूसरे घर में साठ वर्ष से ऊपर की आयु का कोई तो व्यक्ति होता ही है। और हर दूसरे घर में कोई गंभीर बीमारी वाला भी। इसलिए हर घर में मौत की परछाईं अनुभव की जाती है। हर वयोवृद्ध व्यक्ति की तस्वीर पर माला डालने का समय आ गया, ऐसा महसूस किया जाता है।

जिन्हें हम आज सीनियर सिटिज़न के नाम से जानते हैं, हिन्दू मान्यताओं के अनुसार वह वानप्रस्थाश्रम कहलाता है, जब मनुष्य ईश्वर की उपासना की ओर गतिबद्ध हो जाता है और अपने सांसारिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करता है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह परिवार में रहते हुए भी परिवार से दूरी बनाकर रखे और ईश्वर साधना एवं सामाजिक क्रियाकलापों में संलग्न रहे।

जब व्यक्ति अपने मोहपाश में बंधकर अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो प्रकृति उसे विवश कर देती है। परिवार से दूरी बनाने का समय आ गया था। साधना एवं ध्यान के लिए पर्याप्त समय मिलने वाला था। बच गए तो समाज के ऋणों से मुक्त होने का संकल्प भी आ रहा था मन में।

आशा ने अभी तक साथ नहीं छोड़ा है। मनुष्य के पास जब कोई उपाय नहीं बचता है तो वह आशा नाम के उपाय को गढ़ लेता है।

मधुमेह का रोग व्यक्ति को सभी चिकित्सा पद्धतियों का जानकार बना देता है। तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और विटामिन सी तो मैंने तभी लेना शुरू कर दिया था, जब तबलीगी जमात वाले डॉक्टरों का मखौल उड़ा रहे थे और मस्जिद में नमाज़ पढ़ते रहने पर अड़े हुए थे।

अलबत्ता, जमात की ताक़त का मुझे तब अंदाज़ा नहीं था। नहीं जानता था कि यह जमात मुझे भी संक्रमित कर सकती है, जबकि मेरा उससे कोई वास्ता ही नहीं था। बचपन में यही समझ में आया था कि जमात का अर्थ होता है कक्षा, जब कुछ बड़े पूछ लिया करते थे, "बेटा, कौन सी जमात में पढ़ते हो?" इससे अधिक जमात के बारे में मैं कुछ नहीं जानता था। मरकज़ में भी जमात लगती है, मुझे नहीं मालूम था।

मरकज़ के जमातियों ने किस क़दर सर में दर्द कर रखा था प्रशासन के, पुलिस के और स्वास्थ्यकर्मियों के, टीवी पर यह देख देख कर दुख होता था। क्या लाभ किसी भी जमात की किसी भी पढ़ाई का, यदि व्यक्ति अपने हित अहित में भेद भी न कर पाए! और कैसे कोई मनुष्य जानबूझकर अपने साथ औरों के प्राण भी संकट में डाल सकता है!

प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन घोषित करने से भी पहले हमारे परिवार ने स्वयं को अपने घर में बंद कर लिया था। तो मैंने कहां से पाया यह संक्रमण? पक्का तो कौन कह सकता है! पर लगता है राशन की या सब्ज़ी की दूकान से आया होगा। हो गई होगी कोई असावधानी खरीदारी करते समय! मोहल्ले में एक और व्यक्ति भी पीड़ित है इस रोग से। सुना है, उसका मिलना जुलना है तबलीगी जमात के लोगों से। सच तो शायद पुलिस को ही मालूम हो।

मेरे सामने अब दो चुनौतियां थीं, स्वयं को रोगमुक्त करना, जिसका कोई निश्चित उपाय नहीं था और यह सुनिश्चित करना कि मेरे कारण कोई और व्यक्ति संक्रमित न हो। इसी हेतु पिताजी की बैठक काम आ रही थी। इस रोग में रोगी का कमरा हवादार होना चाहिए और यह कमरा इस कसौटी पर खरा उतरता है।

बड़ी कठिनाई से पत्नी को मनाया। समझाया कि छूत के इस रोग से वह भी बीमार हो गईं तो क्या होगा? बच्चों को इस रोग से दूर रखने के लिए यह आवश्यक था कि वह मुझसे दूरी बना कर रखतीं। अंततः वह मान गईं। किसी भी मां को उसके बच्चों के नाम से किसी भी कार्य के लिए राज़ी किया जा सकता है।

मेरे और मेरे परिवार के बीच एक दरवाज़ा था जो सरहद थी, मेरे और उनके बीच, वायरस और स्वास्थ्य के बीच। इस सरहद का हम सबको सम्मान करना था, जीवन को बचाने के लिए।

शायरों के लिए कितना आसान होता है न, उस सरहद का उपहास उड़ाना जिसकी सुरक्षा के लिए हमारे देश के जवान कठिन से कठिन परिस्थितियों में जान की बाज़ी लगाते हैं। उनके त्याग और बलिदान के कर्जदार हैं हम, जो सरहद के भीतर आज़ादी की सांस ले पाते हैं।

पंछी नदिया पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके।

वह सरहद ही तो है जहां जवान के सीने दुश्मन की गोली को रोककर उसे हम तक नहीं पहुंचने देते; जहां वह गोली का जवाब गोली से देकर हमारी सुरक्षा करते हैं।

दरवाज़े रूपी सरहद के उस पार से मेरा परिवार मेरे लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था और इस पार से मैं उन सबके लिए। जब भी उधर से मेरी कुशल क्षेम पूछी जाती, एक फौजी की भांति मेरा एक ही उत्तर होता, "ठीक है।"

परन्तु सब ठीक नहीं था।

पहले दिन से ही मेरा गला पका हुआ था, सूखी खांसी आ रही थी, नाक सूखी हुई थी और हलका ज्वर था।

मैं नहीं चाहता था कि मेरी पत्नी भावावेश में अपनी सरहद को लांघ कर मेरे कमरे में आए। इसलिए मैं उन्हें अपनी तबीयत के बारे में झूठ बताता रहा। सारे लक्षण कोविड 19 के थे, जिसका इलाज था स्वयं को सबसे अलग कर लक्षणों की रोकथाम करना। मरीजों से पटे अस्पताल में जाकर उनका बोझ बढ़ाने का कोई औचित्य न था, विशेषकर जब कोई इलाज ही नहीं था इस बीमारी का। वैसे भी, मधुमेह से पीड़ित होने के कारण भोजन आदि का विशेष ख्याल रखना आवश्यक था जो महामारी के चलते अस्पताल में हो पाना कठिन था। इसलिए हमने निर्णय लिया कि घर में ही रहकर सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार उपचार किया जाए।

पत्नी समय पर दरवाज़ा थोड़ा खोलकर भोजन आदि भीतर सरका दिया करती। साथ ही दिन में दो बार श्वासारी क्वाथ भी उबाल कर नियमित रूप से देती थीं। तुलसी, गिलोय और अश्वगंधा का सेवन तो बीमारी के पहले से ही जारी था।

दिन प्रतिदिन ज्वर बढ़ता जा रहा था और बदन में असहनीय पीड़ा थी। ज्वर कम करने के लिए तो मैं एलोपैथिक दवा लेे रहा था। आवश्यक था कि साथ में ठंडे पानी की पट्टियां भी होती। चूंकि मैं परिवार से ज्वर तेज़ होने की बात छुपा रहा था, इसलिए कमरे में ठंडे जल या बरफ की व्यवस्था नहीं हो सकती थी। सादे जल की पट्टियां मैं स्वयं कर रहा था किन्तु वे उतनी प्रभावी नहीं थीं।

रात को योगनिद्रा के सहारे मैं कुछ घंटों की नींद ले पाता था। दिन में जब बन पड़ता, प्राणायाम करता।

फिर भी मेरी अवस्था बिगड़ती जा रही थी। ज्वर कम होने का नाम नहीं ले रहा था।

पांच छह दिन हो चुके थे। प्रतीक्षा थी चार पांच दिन और बीतने की जिसके बाद सुधार की आशा थी। परन्तु अब मुझे श्वास लेने में भी कठिनाई होने लग गई। रात होते होते लगा कि अब श्वास नहीं लिया जा सकेगा। हार कर मैंने अपने पारिवारिक डॉक्टर को फ़ोन लगाया। मेरी स्थिति की जानकारी लेकर उन्होंने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर से बात की और मुझे सूचित किया कि संभवतः मुझे वेंटिलेटर की आवश्यकता पड़ेगी जिसके लिए मुझे अगले रोज़ अस्पताल में भरती होना ही पड़ेगा।

फ़ोन काटने के बाद मुझे लगा कि शायद मैं वेंटिलेटर पर जाने से पहले ही कूच कर जाऊंगा।

योग की कक्षाओं में सीखी कुंजल क्रिया का स्मरण आया। कमरे में बिजली की एक केतली रखी थी। पहले दिन से ही मैं गर्म पानी का सेवन ही कर रहा था। सुना था, यह वायरस गर्मी से मर जाता है। उस रात मैं पानी गर्म करता गया और नमक डाल कर छह सात गिलास गर्म पानी पी गया। फिर बहुत कठिनाई से टॉयलेट तक गया और पिया हुआ सारा पानी बाहर उड़ेल दिया। साथ ही, ऐसा लगा, शरीर में जमा विष भी निकल गया हो। वापस तख्त पर आ निढाल होकर लेट गया। दो तीन घंटे बाद नींद खुली तो ज्वर लगभग सामान्य था। दो या तीन दिन के बाद ज्वर टूटा था। अब मुझे श्वास लेने में भी कोई कठिनाई नहीं थी।

योगनिद्रा की सहायता से रात भर सोया रहा। सुबह उठते ही डॉक्टर को फ़ोन लगाकर अपने स्वास्थ्य की सूचना दी और उनसे अनुरोध कर अस्पताल जाने के कार्यक्रम को रद्द कराया।

लगता तो यही है कि खतरा टल गया है। परिवार और मेरे बीच बनी सरहद का उल्लंघन हममें से किसी ने नहीं किया है। अब तक परिवार स्वस्थ है जिससे लगता तो यही है कि सरहद का सम्मान करने से मेरा परिवार बच गया है।

सरहद इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण है तो वसुधैव कुटुम्बकम् मंत्र का क्या?

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |

अर्थात उदार मन वालों के लिए यह पूरी धरा एक परिवार के समान है। तेरा-मेरा तो संकुचित मन वाले करते हैं।

तो इन सरहदों के साथ इस धरा का बंटवारा क्यों?

क्या यह धरा स्वयं बंटवारा नहीं करती? कल्पना कीजिए कि इस धरा पर जल और थल के बीच में सरहद न हो! एक हो जाएं जल और थल! कल्पना कीजिए कितना भयावह होगा यह दृश्य! इसे ही तो हम प्रलय के नाम से जानते हैं। जब तक जल और थल के बीच सरहद है, तब तक ही यह जीवन है।

और क्या यह धरा हमें इस रोग के माध्यम से यह संदेश नहीं दे रही कि हम सब अपनी मर्यादा में रहें? स्वेच्छा से तो हम ऐसा करते नहीं। इसलिए प्रकृति हमें मजबूर कर रही है अपनी मर्यादा को समझने के लिए, उसका सम्मान करने के लिए। और देखो आज प्रकृति कितनी प्रसन्न है! पक्षी चहचहा रहे हैं, नदियों का जल निर्मल हो गया है, आकाश नीला हो गया है, सैकड़ों किलोमीटर की दूरी से पर्वतश्रृंखलाएं दिख रही हैं!

विगत दो दशकों में विश्व में उदारीकरण का दौर चला। हमने देखा कि विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस उदारीकरण से सभी अर्थव्यवस्थाओं को लाभ भी हुआ। और इससे उपजी वैश्विक गांव की अवधारणा। यदि ऐसा हो सके तो यह एक आदर्श स्थिति होगी।

परन्तु क्या यह संभव है, व्यावहारिक है? अब तो यूरोपीय संघ भी विघटित हो चला है। भाषा, खानपान, परंपरा और सांस्कृतिक भिन्नता इस अवधारणा पर भारी है।

वायरस की इस समस्या से जनित इस परिस्थिति से अपेक्षित तो यह था कि पूरा विश्व एक हो जाता और मानवजाति पर आई इस विपदा का मिलकर सामना करता। परन्तु क्या ऐसा हुआ? हुआ इसके ठीक विपरीत। इस समस्या ने पूरे विश्व को दो फाड़ कर दिया। चीन का विरोध करने में तो अमेरिका और प्रायः सभी यूरोपीय देश एक दिखते हैं परन्तु अपने अंतर्निहित स्वार्थों के चलते वे सब अलग हैं।

वैश्विक गांव की अवधारणा उतनी ही अव्यावहारिक है जितना मनुष्य का पंछी अथवा पवन बनकर उड़ना। संस्कृति ही हमारे जीवन को आधार देती है। विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय तो संभव है, और बहुत हद तक वांछित भी, परन्तु सब संस्कृतियां स्वयं को समाप्त कर किसी एक संस्कृति में विलुप्त हो जाएं, यह संभव नहीं। सरहदें दिलों को बांटें, जैसा कि किसी भी साम्राज्यवाद में होता है, उससे तो बेहतर हैं राजनैतिक सरहदें, भौतिक सरहदें।

मेरे कमरे का वह दरवाज़ा जिसके पार मेरा परिवार है, उसकी रक्षा के लिए ही तो इसे सरहद बनाया है हमने! यह सरहद कुटुम्ब की रक्षा करती है, इसका बंटवारा नहीं। सीमाएं मर्यादा सुनिश्चित करती हैं। कुटुम्ब हो या विश्व, यह टूटता तब है जब इन मर्यादाओं को तोड़ा जाता है। मर्यादाएं रिश्तों की हों या भौतिक, राजनैतिक हों अथवा प्राकृतिक, इनका सम्मान करना ही श्रेयस्कर है, इनकी रक्षा करने में ही मनुष्यमात्र की सुरक्षा है।

कल अस्पताल जाना है। टेस्ट करवाकर पता लगाना है कि मैं अभी कोरोनामुक्त हुआ कि नहीं।

कल यदि अनुकूल रिपोर्ट आ भी गई तो क्या जीवन पहले जैसा हो पाएगा? शायद नहीं। प्रकृति स्वयं अपना परिसीमन बदलती रहती है। सुना है, हिमालय भी अपने स्थान से हिलता रहता है। 'पहले जैसे' से इतना मोह क्यों? वसंत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु आती है, फिर वर्षा ऋतु, उसके बाद शरद ऋतु, हेमंत ऋतु, शिशिर ऋतु और उसके बाद पुनः वसंत ऋतु। यही तो नियम है प्रकृति का।

छोटी खिड़की के पार कुछ परछाइयां हिलती दिख रही हैं। मुंह पर रूमाल रखकर दूसरी ओर देखने का समय आ गया है।


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