Saturday, February 24, 2018

जेबकतरे

मुम्बई में मेरी पोस्टिंग तो बहुत कम समय के लिए हुई थी परन्तु वह शहर कम समय में ही बहुत कुछ सिखा जाता है.

वर्षों पुरानी बात है. तीन महीने के लिए ट्रेनिंग के लिए मुम्बई में मेरी पोस्टिंग हुई थी एक बैंक की मुम्बई फ़ोर्ट की एक शाखा में. फ़ोर्ट-क्षेत्र में ही मेरे बैच के कुछ अन्य साथी भी कार्यरत थे, विभिन्न शाखाओं में. लगभग रोज़ शाम को हम चौपाटी पर इकट्ठे होते और मरीन ड्राइव अथवा आसपास कुछ समय बिता कर अपने-अपने स्थानीय निवास की ओर रवाना हो जाते.

मैं कांदीवली में ठहरा हुआ था. मेरे साथी मेरे साथ ही चर्चगेट से लोकल पकड़ा करते और रास्ते में अपने-अपने गंतव्य पर उतरते जाते. कांदीवली स्टेशन सबसे बाद में आता, जहां मैं उतरा करता था.

उस शाम मेरे सभी साथी बान्द्रा स्टेशन पर ही उतर गये थे – देर रात का कोई कार्यक्रम बनाकर. मैंने वहां उतरने के स्थान पर सीधे घर जाना ठीक समझा था.

बान्द्रा स्टेशन पर उनके उतरने के बाद जैसे ही ट्रेन चली, कम्पार्टमेंट के दरवाज़े से कुछ आवाजें आने लगीं. कोई झगड़ा हो रहा था शायद. मैं भीतर बैठा था कम्पार्टमेंट के बीचोबीच. देर शाम को दफ़्तर से चलो तो दादर, बान्द्रा आते-आते सीट मिल जाया करती थी उन दिनों. ट्रेन आगे बढ़ती रही, कम्पार्टमेंट खाली होता रहा और आवाजें बढ़ती गयीं. “कोई जेबकतरा पकड़ा गया है. लोग धुनाई कर रहे हैं,’ यात्रियों में से किसी ने खबर दी.

मुम्बई लोकल के दैनिक-यात्री किसी से मन से नफ़रत करते हैं तो वह हैं मुम्बई के जेबकतरे.

एक बार बैंक की शाखा में दोपहर के भोजन के समय बातचीत ने मुम्बई के जेबकतरों की समस्या का रुख कर लिया.

एक सज्जन बता रहे थे कि किस प्रकार विरार से चर्चगेट के बीच चलने वाली डबल फ़ास्ट ट्रेन में एक बार एक जेबकतरा पकड़ा गया. लोगों ने उसे घंटा भर जी भरकर पीटा. इतना पीटा कि उसके कपड़े फट गये. और अंत में उसे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया.

“च्च्च...” मेरे मुँह से अनायास निकला. “इतने निर्दयी लोग,” मैं सोच रहा था.

मेरी यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया मुम्बई के निवासी कर्मचारियों को रास नहीं आयी, यह उनके चेहरों से स्पष्ट था. मेरे लिए हैरानी की बात यह थी कि मेरी इस प्रतिकृया पर सबसे अधिक आपत्ति की एक महिला कर्मचारी ने. वह भी आवेशपूर्वक, “क्या च्च्च... और कैसा बरताव होना चाहिए इन जानवरों के साथ? एक भला आदमी पूरे महीने काम करता है, अपने बीवी-बच्चों के लिए, परिवार के लिए, उनकी छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए! और यह जेबकतरा आकर उसकी पूरे महीने की महीने की कमाई पल भर में उड़ाकर ले जाता है! यह ठीक है? उस कमाई के घर न आने से उसके निर्दोष और बीमार माता-पिता का इलाज नहीं हो पाता और वे मर जाते हैं, वह ठीक है?”

मुझे काटो तो खून नहीं. इतने आवेश में उन महिला को देखकर मैं सकपका गया था. उत्तर ढूँढने और देने का प्रश्न ही नहीं था.

मैं समझ गया कि आज भी ऐसा ही कुछ होने वाला था, मेरे ही कम्पार्टमेंट में. “पता नहीं, ये कुंठित भीड़ इस जेबकतरे को ज़िंदा छोड़ेगी या फिर चलती ट्रेन से फेंक देगी...,” मैं सोच रहा था.

अपने कार्यालय के उस महिला के उत्तेजित रुख को झेलने के बाद मैं इस भीड़ की मानसिकता और जेबकतरों नामक राक्षसी वृत्ति के लोगों के बारे में सोचता रहता, लोगों से बात करता रहता.

लोग प्रायः जेबकतरों को दण्डित करने के पक्षधर ही मिले. पुलिस को सौंपने से क्या होगा? सब मिले हुए होते हैं, ऐसा ही विचार था अधिकांश लोगों का.

एक बार मुझे जेबकतरों द्वारा की जा रही तबाही का निजी अनुभव भी हो ही गया. दोपहर के वक्त मैं सफ़र कर रहा था लोकल ट्रेन में. भीड़ सामान्य से काफी कम थी. जब मैं ट्रेन से उतरा तो पता चला कि मेरी तीन जेबों पर एक-साथ आक्रमण हुआ था. नुकसान तो अधिक नहीं हुआ, किन्तु मेरी परेशानी यह थी कि मेरी तीन जेबों पर एक साथ आक्रमण हुआ और मुझे पता भी नहीं चला. अर्थात जेबकतरा एक नहीं था, कम से कम तीन तो थे.

एक दूसरा पहलू भी मिला मुझे, लोगों के साथ इस बारे में बात करते-करते. कुछ लोगों ने बताया कि जेबकतरे दो-तीन नहीं, भीड़ के रूप में चलते हैं. जिसका मौक़ा लग जाए, वह जेब काट लेता है, पकड़े जाने पर उसके अन्य साथी आम-जनता का जामा पहनकर ‘चोर-चोर’ चिल्लाने लगते हैं और अपने शिकार को ही पीटने लगते हैं. अन्य यात्री उस शिकार को ही जेबकतरा समझकर उसपर अपनी कुंठा से मुक्त होने का उपक्रम करने लगते हैं. इस कोलाहल में जेबकतरे वहां से फ़रार हो जाते हैं और वह आम आदमी अन्य आम आदमियों से पिटता रहता है.

भीड़ की आवाजें मेरी ओर बढ़ रही थीं, चीत्कार के साथ. देखते ही देखते भीड़ वहीं आ पहुँची जहां मैं बैठा था. एक सरदार जी, बिना पगड़ी के, बिखरे-बेतरतीब लम्बे बाल, सफ़ेद कुर्ता-पायजामा, जगह-जगह से फटा हुआ और और मुसड़ा हुआ. चेहरे पर खरोंचों के निशान. क्रोध से भरी भाव-भंगिमा. एक हाथ में एक लंबा सा पेचकस और उनकी खुली हुई पगड़ी. दूसरे हाथ से एक आदमी के गिरेबान को पकड़े हुए और उसे घसीटते हुए.

मेरी बगलवाली सीट खाली थी. उन्होंने वह पगड़ी मेरी गोद में रखी और धम्म से उस खाली सीट पर बैठ गये. वह व्यक्ति भी घिसटता हुआ सामने ज़मीन पर आ पड़ा. सरदार जी ने पेचकस को सीधे हाथ में ज़ोर से पकड़ा और लगे उसे उस व्यक्ति के पेट में घुसाने. पूरी भीड़ ने ज़ोर से चीत्कार किया, “छोड़ दो सरदारजी, जाने दो,” की गुहार लगाने लगी.

ऐसा बार-बार होता. सरदार जी पेचकस को हथियार बनाकर उस व्यक्ति के पेट में घुसाने लगते और भीड़ चीत्कार कर उठती.

वह व्यक्ति जो सरदार जी की गिरफ़्त में था, रो-रोकर कहता, “आप मेरा आई.डी. कार्ड देख लें, मैं एक नौकरीपेशा शरीफ़ आदमी हूँ. मैंने कुछ नहीं किया.”

मैंने पंजाबी भाषा में बात की सरदार जी से. उन्होंने मुझे पूरे घटनाक्रम से अवगत कराया. बताया कि वह भारी नकदी लेकर कहीं जा रहे थे, कुरते की जेब में रखकर. एक जेबकतरे ने उनकी जेब में हाथ डाला तो उन्होंने पकड़ लिया. इतने में जेबकतरे के साथियों ने वही फ़ॉर्मूला लगाया और लगे पीटने सरदारजी को. थोड़ी देर बाद वे जेबकतरे तो कंपार्ट्मेंट की भीड़ में गुम हो गये और सरदारजी पिटते रहे आम आदमियों से.

“मैंने एक हाथ से अपने कुरते की जेब को पकड़ रखा था. वरना क्या मजाल इन गीदड़ों की, मुझपर हाथ उठा पाता कोई”, सरदार जी कह रहे थे, “हो सकता है यह गरीब जिसे मैंने पकड़ रखा है, बेक़सूर हो. मगर किसी ने तो मारा है मुझे. मेरी यह गत अपने आप तो बन नहीं गयी. इस भीड़ में अगर कोई मर्द हो, जो यह माने कि उसने मुझपर हाथ उठाया था, तो कसम वाहेगुरू की, मैं इस आदमी को छोड़ दूंगा और यह पेचकस उस मर्द के पेट में घुसा दूंगा. यह पेचकस मैं घर से ही लेकर निकला था ऐसे किसी वाकये के लिए. जल्दी थी, इसलिए मैं लोकल ट्रेन में आया वरना मैं टैक्सी से आता॰"

पेचकस और चीख़ों का यह खेल सान्ताक्रूज़ स्टेशन तक जारी रहा. तब तक सरदारजी ने पगड़ी बाँध ली थी, चेहरा साफ़ कर लिया था. सान्ताक्रूज़ स्टेशन पर उन्हें उतरना था.

उतरते वक्त उन्होंने उस व्यक्ति को अपनी गिरफ़्त से मुक्त किया और भीड़ को हिदायत दी, “आज के बाद कभी किसी को यूं ही जेबकतरा न समझ लेना. खुद देखो किसी को जेब काटते हुए, तभी यकीन करना.”

नज़दीक से
-       - विक्रम शर्मा



No comments:

Post a Comment