Wednesday, December 29, 2010

सुख

मैं एक व्यवसायी हूँ. एक सफल व्यापारी. व्यापार के कायदे कानून ठीक से जानता हूँ. कुछ लोग मुझे पसन्द नहीं करते, पीठ पीछे मेरी बुराई भी करते हैं. मैं जानता हूँ. किन्तु व्यापार में ये सब तो चलता ही है. सामने तो अधिकांश लोग मेरा सम्मान ही करते हैं!

वस्तुतः मैं धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति हूँ. नित नियमित पूजा-पाठ, मन्दिर जाना, दान-पुण्य, चन्दा देना, सभी धार्मिक अनुष्ठानों में नियमित भागीदारी, ये सब मेरे जीवन के अभिन्न अंग हैं.

पिछले सप्ताह एक चमत्कार हुआ. एक योगी बाबा के दर्शन हुए. अपनी आदत के अनुसार मैंने यथासंभव उनकी सेवा की. बाबा प्रसन्न हुए. बोले, "माँगो वत्स; क्या चाहते हो?"

मुझे लगा, मानो साक्षात ब्रह्म के दर्शन हो गये हों.

मांगने को बहुत कुछ था किन्तु मैं कुछ ऐसा मांगना चाहता था जिससे सभी कुछ मिल जाए.

मैंने बचपन में वह कहानी सुनी थी जिसमें एक व्यक्ति को एक सिद्ध पुरुष ने दो वरदान मांगने को कहा. वह व्यक्ति आलसी था और अपनी पत्नी से परेशान भी. उसने दो वर मांगे - एक, उसकी हथौड़ी अपने आप चलती जाए और दूसरे, जब तक वह चाहे, उसकी पत्नी कुर्सी से चिपकी रहे ताकि उसे परेशान न कर सके. ऐसे तुच्छ वरदान मांगकर उसने ऐसा स्वर्णिम अवसर व्यर्थ कर डाला.

मैं ऐसी बेवकूफ़ी नहीं करना चाहता था. अपनी समझ और ज्ञान का परिचय देते हुए मैंने निवेदन किया, "प्रभु! यदि आप मुझ तुच्छ प्राणी पर कृपा करना चाहते हैं तो मुझे सुख प्रदान करें."

"सुख से तुम्हारा क्या अभिप्राय है, वत्स. इम्पोर्टेड कार, एयरकण्डीशनर, कोठी - तुम किस वस्तु को सुख मानते हो? बोलो पुत्र, आज हम प्रसन्न हैं," योगीश्री मुस्कुराते हुए बोले.

मैं किसी वस्तु विशेष का नाम लेकर अपने वरदान को सीमित नहीं करना चाहता था. योगी थे, कि मुझसे स्पष्ट शब्दों में निवेदन करने को मुझे बाध्य कर रहे थे. मैंने तनिक विचार कर पुनः निवेदन किया, "प्रभु! मैं तुच्छ प्राणी क्या निवेदन करूँ? सुख का जो भी अर्थ आपकी दृष्टि में हो, मुझे वही प्रदान कर कृतार्थ करें."

योगी महाराज ने अर्थपूर्ण निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा, "हमारी दृष्टि का सुख पाकर तुम प्रसन्न तो होगे बच्चा?"

"क्यों नहीं महाराज," मैं अपनी सफलता पर अभिभूत था. अन्ततः मैंने योगीश्री को मनचाहा वर देने के लिए राजी कर ही लिया था!

"तथास्तु," कहकर उन्होंने अपने कमण्डलु से पानी के छींटे मेरे मुँह पर दे मारे.

पलक झपकते ही मेरी काया-पलट हो गयी. मेरी वेशभूषा एक साधू के समान हो गयी. भगवा वस्त्र, हाथ में कमण्डलु, मस्तक पर तिलक, गले में मालाएँ. मैं अचम्भित, किंकर्त्तव्यविमूढ़ था.

"चलो बालक, तुम इस संसार से मुक्त हो. आज से तुम सन्यस्त हुए. अब तुम हमारे साथ हिमालय की कन्दराओं में तप के लिए प्रस्थान करो," योगी जी महाराज पूर्ववत मुस्कुराते हुए, किन्तु आदेशात्मक स्वर में बोले.

मेरा जैसे स्वप्न भंग हुआ. योगी के चेहरे की मुस्कान मुझे कुटिल लगने लगी. उनकी शक्ति का चमत्कार मैं देख चुका था, अभी-अभी भुगत चुका था. प्रतिवाद करना खतरे से खाली न था. इस विषम परिस्थिति में भी मैंने आत्मसंयम खोया नहीं. योगी के चरणों में मैं साष्टांग लेट गया और निवेदन किया, "भगवन! आप महान हैं. किन्तु मैं तो आपसे सुख मांग रहा था और आप मुझसे मेरा सब कुछ छीन ले रहे हैं! क्षमा याचना करता हूँ प्रभु, किन्तु मैंने ऐसा तो नहीं कहा था."

योगी अभी भी यथावत थे. मेरी आशंका के विपरीत वह क्रोधित न हुए. बोले, "बच्चा. हमारी दृष्टि का सुख तो यही है. इस नश्वर संसार को त्याग कर प्रभु की शरण में जाने वाले मार्ग से सुन्दर कोई मार्ग नहीं है और इस मार्ग पर चलने से बढ़कर कोई सुख नहीं!"

मेरी समझदारी ही मेरी दुश्मन बन गयी थी. मैं अपने ही चक्र में फंस गया था. इससे तो अच्छा होता मैं एक नया बंगला मांग लेता, अपनी पत्नी का स्वास्थ्य, बच्चों के लिए अच्छा व्यवसाय, या फिर और कुछ! यह मैं क्या मांग बैठा!

मैंने योगी के पाँव कसकर पकड़ लिये. आवाज़ में यथासंभव आदर-भाव लाकर मैंने पुनः निवेदन किया, "प्रभु! मैं यह वरदान पाकर धन्य हो गया. किन्तु मेरे हालात कुछ ऐसे हैं कि मैं अभी सन्यास नहीं ले सकता. बच्चे अभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए हुए; मेरा अपना व्यवसाय भी अभी कुछ विशेष जमा नहीं. ऐसे में मैं तो सन्यास लेकर निश्चित ही धन्य हो जाऊंगा किन्तु मेरे बीवी-बच्चों के साथ तो यह अन्याय हो जाएगा! क्षमा चाहूँगा भगवन, किन्तु मैं यह अन्याय कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ."

मुझे भय था कि यह सुनकर योगी रुष्ट हो जाएंगे. वह मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए बोले, "वत्स! मनुष्य की तर्क-पद्धति बहुत विचित्र है. वह किसी नियम के अनुसार नहीं चलती बल्कि अपने किंचित स्वार्थ एवं सुविधा से परिचालित होती है. मनुष्य स्वयं को कितना भी बुद्धिमान क्यों न माने, वह नहीं जानता कि उसका हित क्या है और शुभ क्या है. हम तुमसे तर्क-वितर्क करने नहीं आये. हमने तुम्हें एक वरदान मांगने को कहा और तुमने उसका प्रयोग कर लिया."

मुझे लगा जैसे उस योगी ने मुझे तान्त्रिक-शक्ति से कैद कर लिया हो. मन ही मन छटपटाते हुए मैंने विनम्रतापूर्वक रुंधे गले से कहा, "प्रभु! मैं, आपसे और वरदान नहीं मांग रहा. मैं तो मात्र इतना निवेदन कर रहा हूँ कि मुझे आप पूर्ववत सामान्य व्यक्ति बना दें. मुझे सन्यास लेने के लिए बाध्य न करें."

योगी महाराज के चेहरे के भाव पढ़ना कठिन था. वह बोले, "भक्ति का मार्ग मनुष्य को सुख देता है, उसे प्रतारणा नहीं. हम तुम्हारा मार्ग प्रशस्त तो कर सकते हैं, तुम्हें भक्ति नहीं दे सकते. भक्ति की कृपा तो स्वयं ईश्वर ही कर सकता है."

"परेशान न हो बच्चा. यह मार्ग तुम्हारे मांगने पर ही हमने तुम्हें दिया था. इसपर चलने के लिए तुम बाध्य नहीं हो," कहते हुए योगी ने पुनः जल के कुछ छींटे मुझ पर मारे. मैं पूर्ववत हो गया.

मैंने योगी के चेहरे को देखा. मुझे अब उस चेहरे पर व्याप्त मुस्कान कुटिल नहीं बल्कि भव्य और महान दीख रही थी. उनके मस्तक पर अपूर्व तेज था. इतनी सरलता से छुटकारा पाकर मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था. मुझे लगा, जैसे मैं उनके मस्तक के तेज को आत्मसात कर लूँ.

मैंने एक बार पुनः अपना सिर उन महान योगी के चरणों में रखकर निवेदन किया, "मुझसे भूल हो गयी भगवन! मुझे क्षमा करें. वस्तुतः मैं भक्तिमार्ग अपना सकूँ, इस योग्य नहीं हूँ, इसका ज्ञान तो आपने मुझे करा दिया. आपकी दृष्टि के सुख को मैं सुख नहीं मान सका क्योंकि मेरा हृदय अभी अपवित्र है. ईश्वर ने इसीलिए मुझे भक्ति का दान नहीं दिया. यह भी मैं समझ गया. किन्तु सुख की प्राप्ति के लिए क्या सन्यास लेना आवश्यक है?"

"कदापि नहीं पुत्र. एक सन्यस्त व्यक्ति का सुख सच्चे सन्यास में है. एक गृहस्थ के लिए सुख की परिभाषा यह नहीं," योगी महाराज ने स्पष्ट कहा.

"तो फिर ग्रृहस्थ का सुख क्या है? सुख देने वाली प्रायः सभी वस्तुओं का संग्रह और उपभोग मैं कर रहा हूँ. फिर भी मैं सुखी अनुभव क्यों नहीं करता," मैंने जिज्ञासा व्यक्त की.

"क्योंकि जिसे तुम सुख कह रहे हो, वह सुख है ही नहीं. ये सब तुम्हारी आकांक्षाएं मात्र हैं जिनका जन्म माया की चकाचौंध से हुआ है. इन आकांक्षाओं की पूर्ति की हवस में मनुष्य सुख का विचार ही नहीं करता.

अन्तर्मन में सच्चे सुख का अहसास होते हुए भी मनुष्य उसके प्रति आंखें मूंद लेता है - वह उसे निर्मूल प्रतीत होता है. सुख के पीछे मनुष्य की दौड़ सिर झुका कर दौड़ रहे सूअर की दौड़ के सदृश है. क्या यह दौड़ उसे वास्तविक सुख दे सकती है? ऐसा सुख तो मनुष्य के आत्मक्षय का कारण ही बन सकता है. इस सुख की अभिलाषा ही व्यक्ति को क्षोभ व असन्तोष देती है - और अन्ततः विक्षिप्तता!"

"तो क्या मनुष्य इच्छा करना छोड़ दे, कार्य करना ही छोड़ दे," मैंने बीच में टोका.

"इच्छा किसकी? बहुधा मनुष्य धन, सत्ता और शक्ति में सुख ढूँढता है. यह सुख नहीं, सुख का भ्रम है. इस सुख की प्राप्ति में व्यक्ति मदमस्त हो सकता है, सुखी नहीं. और यही सुख मनुष्य को अनवरत भय और पीड़ा भी देता है. भय, अपने संग्रहीत ’सुखों’ के खो जाने का, और पीड़ा इनके वास्तव में खो जाने पर; क्योंकि ये समस्त सुख नश्वर ही तो हैं," योगीश्री सीधे-सीधे सच बोलते जा रहे थे. ऐसा सच जिससे हम सब बचते-फिरते हैं.

"धन, शक्ति और सत्ता की नहीं तो फिर किन सुखों की इच्छा मनुष्य को करनी चाहिए," मैं स्वयं को रोक नहीं पाया, यह प्रश्न करने से.

"प्रत्येक मनुष्य जानता है कि सुख क्या है. आवश्यकता है उसे पहचानने की. एक रुग्ण व्यक्ति जानता है कि उसे हलका-फुलका आहार लेना चाहिए. फिर भी उसे चाट-पकौड़ी और पकवान ही आकृष्ट करें तो वह उनका सेवन स्वास्थ्य की कीमत चुका कर ही कर सकता है," योगीश्री ने स्पष्ट किया.

"फिर भी कृपा कुछ तो स्पष्ट करें कि सुख क्या है! मैं मूर्ख उससे कुछ दिशा-निर्देश ही ले लूँगा," मैंने आग्रह किया.

"सुख है प्रेम करना - सम्पूर्ण जगत से - बिना प्रतिदान की अभिलाषा के.

"मनुष्य का शरीर नश्वर है पुत्र. शाश्वत तो है केवल मनुष्य का विवेक, विश्वास और प्रेम. यह प्रेम उस निराकार ब्रह्म से भी हो सकता है और उसके द्वारा रची गयी इस सृष्टि से भी," योगी जी महाराज पूर्ववत मुस्कुरा रहे थे!

नज़दीक से

- विक्रम शर्मा

संत्री और मंत्री

मई का महीना समाप्त होने को था. दिल्ली की झुलसा देने वाली गर्मी से त्रस्त दिल्लीवासी किसी न किसी शीतल स्थल की तलाश में भटक रहे थे. अवसर पाकर हमने भी बाहर घूमने का कार्यक्रम बना लिया. दिल्ली के आसपास के पर्वतीय स्थल तो कई बार देखे हुए थे, इस बार मध्य-भारत के प्रसिद्ध पंचमढ़ी के वनों में घूमने का मन बनाया.

मध्य प्रदेश की सतपुरा पर्वत श्रृंखला में शहरों की भीड़ और प्रदूषण से दूर स्थित एक शांत और साफ़-सुथरा छोटा सा स्थान है पंचमढ़ी. समुद्र तल से 1100 मीटर की ऊँचाई पर स्थित पंचमढ़ी अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य समेटे हुए है. पाँच पाण्डवों की गुफ़ाओं के कारण पंचमढ़ी कहलाने वाले इस पर्वतीय स्थल को गहरे सरोवर, झरने एवं विश्रांत घने वन एक अनुपम छटा प्रदान करते हैं. मनुष्यों द्वारा छेड़-छाड़ से मुक्त इसका प्राकृतिक सौन्दर्य इस स्थल के प्राकृतिक सौन्दर्य नैसर्गिक चट्टानों की आकृतियों और मन्दिरों की सम्पदा से सम्पन्न है. घाटियों, लाल रेतीली चट्टानों, टीलों और जल-प्रपातों के रूप में प्रकृति मानो निमन्त्रण दे रही हो!

पंचमढ़ी भोपाल से लगभग 200 कि. मी. दूर स्थित है. रमणीय पहाड़ी मार्ग से होते हुए लगभग चार से पाँच घण्टे का समय लगता है वहाँ पहुँचने में. जैसे-जैसे पँचमढ़ी निकट आता जाता है, दोनों ओर वनप्रान्त में से निकलते हुए सड़क पर वाहन में यात्रा करने का अपना अलग ही आनंद आता है.

पँचमढ़ी पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी. अगले दिन रविवार था. होटल के स्टाफ़ के साथ विचार-विमर्श कर अगले दिन इस सुन्दर स्थल के विहार का कार्यक्रम बना लिया. हमें बताया गया कि इन पहाड़ी मार्गों पर निजी वाहनों पर घूमना व्यावहारिक नहीं था क्योंकि कई मार्ग कच्चे थे और ऊबड़-खाबड़ थे. अतः हम स्टाफ़ को एक जिप्सी का प्रबन्ध करने के लिए कह दिया.

अगले दिन सुबह कार्यक्रमानुसार सुबह-सुबह हम तैयार हो गये. किन्तु जिप्सी नहीं आयी. पता चला कि भारतीय संसद में विपक्ष के नेता के पंचमढ़ी-भ्रमण के कारण सुरक्षा की दृष्टि से स्थानीय पोलीस ने अधिकांश जिप्सियों का अधिहरण कर लिया था. बाकी जिप्सियों के मालिकों ने अपनी जिप्सियाँ पोलीस के डर से छुपा दी थीं. कोई जिप्सी नहीं, मतलब कोई घूमना-फिरना नहीं. जहाँ-जहाँ साधारण टैक्सी जा सकती थी, वहाँ तो हम हो आये किन्तु मुख्य पर्यटक-स्थलों यथा जटाशंकर, पाण्डव गुफ़ाएं, अप्सरा विहार, महादेव गुफ़ा, रजत प्रपात, राजेन्द्र गिरि, चौरागढ़, धूपगढ़ आदि का भ्रमण हम नहीं कर पाये. होटल में ठहरे कुछ लोग तो कहीं भी नहीं गये - इस आशा में कि अगले दिन हालात बेहतर हो जाएंगे और वे जिप्सी में ही घूम लेंगे.

शाम को हम स्थानीय बाज़ार में घूम रहे थे. पैदल घूम-घूम कर जूते की शामत आ गयी थी. उसे ठीक कराने के लिए चर्मकार की सेवाएँ ले रहे थे. वहाँ तीन-चार चर्मकार एक साथ बैठे थे. उनमें से एक खाली बैठा था और ज़ोर-ज़ोर से स्वगत संभाषण दे रहा था: "ये मन्त्री (उसका तात्पर्य राजनैतिक नेताओं से था) खुद तो ए.सी. कारों में आएंगे, ए.सी. होटलों में ठहरेंगे, सब तरह की ऐश-मौज करेंगे. आम आदमी की दिक्कतों से इनका क्या लेना-देना! उनकी बला से! आम आदमी चाहे जिये, चाहे मरे. और ये सन्त्री (अर्थात नौकरशाह) तो और भी ज़्यादा बेदर्द हैं, मन्त्रियों से भी ज़्यादा. एक आदमी के कारण हज़ारों लोगों की रोटी छिन गयी है, बेवजह!"

हमारी ओर इशारा करते हुए वह बोला, "आप लोग हज़ारों मील दूर से आये हैं, पैसा खर्च करके. कुछ देखने आये हैं कि होटल के कमरे में कैद होने? बरबाद हो गया सब पैसा. वापस घर जाएंगे तो क्या बताएंगे, देख आये पंचमढ़ी? कौन भरपाई करेगा इस नुकसान की? कैसा लग रहा होगा आप लोगों को?

"ये अखबार टी.वी. वाले भी आये हैं मन्त्री जी के पीछे-पीछे! इण्टर्व्यू करते फिर रहे हैं लोगों का. ऊटपटांग सवाल पूछे जा रहे हैं, मौसम कैसा है.. कैसा लग रहा है.. अरे, कोई पूछ रहा है कितनी तकलीफ़ में हैं सब? कोई नहीं पूछता हमसे, शाम को क्या खिलाएंगे बच्चों को?

मैं हैरान था इस अभिभाषण से! इस प्रकटतः अनपढ़ व्यक्ति ने कितनी सुन्दरता से पूरी व्यवस्था पर टिप्पणी कर सार प्रस्तुत कर दिया था. नेताओं से लेकर नौकरशाह और मीडिया तक सीख सकते थे इस निर्धन आम आदमी से!

रात को होटल के डाइनिंग हॉल में होटल का स्टाफ़ भोपाल से नेता जी की सुरक्षा एवं अन्य व्यवस्था करने के लिए आये और होटल में ठहरे नौकरशाहों की आवभगत करने में व्यस्त था. हम जेब से पैसा खर्च करके ठहरे मेहमानों के साथ दोयम दर्ज़े के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जा रहा था. मुझे रह-रह कर उस चर्मकार की बातें याद आ रही थीं!

अगले दिन, नेताजी का शहर में आगमन नियत था. हालात और भी खराब थे. कोई जिप्सी नहीं थी, पिछले दिन की तरह. आज तो निजी वाहनों को भी अनुमति नहीं थी पर्यटक स्थलों पर जाने की. नेताजी की सुरक्षा की खातिर! जो लोग रविवार को कमरे में ठहरे रहे, अब उनके पास दो दिन और कमरों में बन्द रहने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था.

मंगलवार प्रातः लौट के बुद्धू घर को आये. सोचा, फिर कभी दोबारा आएंगे पंचमढ़ी.

अगले सप्ताह बिटिया को मुम्बई के लिए विमान लेना था, दिल्ली एयरपोर्ट से. धौला कुआं के पास हमारा वाहन ट्रैफ़िक जाम में फंसा हुआ था. पता चला, प्रधानमन्त्री एयरपोर्ट जा रहे थे, जिसके कारण आम ट्रैफ़िक रोक दिया गया था. विलम्ब के कारण उड़ान छूट गयी, एयरपोर्ट पर अफ़रातफ़री में बिटिया का नया मोबाइल खो गया.

क्षोभ में एक पुराने समाचार-पत्र की सुर्खियों ने अचानक ध्यान आकृष्ट कर लिया, ’वी. आई. पी. की उड़ान के कारण तीन जैट विमान दुर्घटना से बचे.’ समाचार कुछ इस प्रकार था, "... वी.आई.पी. आवागमन के कारण आज जयपुर एयरपोर्ट के ऊपर तीन विमानों में ईंधन समाप्त हो गया और वे बाल-बाल बचे. इन तीन विमानों में उस समय 450 से अधिक यात्री सवार थे. आज कुल 11 उड़ानें जयपुर, चण्डीगढ़ एवं लखनऊ की तरफ़ मोड़ दी गयी थीं, जबकि 20 उड़ानें लगभग एक घण्टे तक दिल्ली एयरपोर्ट के ऊपर चक्कर लगाती रहने को मजबूर थीं. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की चीन-यात्रा एवं तुर्कमेनिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष गुर्बांगुली बेर्दिमुन्हा के आगरा भ्रमण के कारण एयरपोर्ट एक घण्टे से अधिक समय के लिए बन्द कर दिया गया था."

कुछ ही दिन बाद प्रधानमन्त्री की सुरक्षा के लिए किये गये बन्दोबस्त के कारण कानपुर में अमन खान नामक आठ वर्ष के एक बालक की मृत्यु का समाचार छपा.

कहते हैं, समय के साथ सभी घाव भर जाते हैं. पंचमढ़ी वाला अनुभव हो अथवा दिल्ली एयरपोर्ट वाला, हमारा कष्ट समय के साथ दूर हो ही जाएगा! किन्तु आठ वर्ष के उस नन्हे बालक के माता-पिता का दर्द क्या समय भी दूर कर पाएगा? किन्तु इन सन्त्रियों और मन्त्रियों को इससे क्या!

नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

क्लब बुद्धिवादी

मैं हतप्रभ हूँ! मुझे क्लब बुद्धिवादी से निष्कासित किया जा रहा है. ये लोग मुझे निष्कासित करेंगे? ये आधे दिमाग वाले लोग स्वयं को बुद्धिवादी कहते हैं जिन्हें अपने हित की समझ तक नहीं?

बुद्धिवादी क्लब हमारी पैतृक परम्परा का अंग रहा है. मेरे दादाजी और दादी जी इस क्लब के आजीवन सदस्य थे. उस ज़माने में इस क्लब की सदस्यता कम ही लोगों के पास होती थी. महत्त्वाकांक्षाएं सीमित हुआ करती थीं. क्लब की सदस्यता की होड़ कम होती थी. क्लब की सदस्यता के लिए अपेक्षित था पढ़ा-लिखा होना, सामान्य ज्ञान और धर्म का ज्ञान होना. दादाजी तो बहुत पढ़े-लिखे थे, किन्तु दादी जी औपचारिक रूप से विशेष पढ़ी-लिखी नहीं थीं. फिर भी उन्हें इस क्लब की सदस्यता मिल गयी थी - अपने धार्मिक आचरण तथा धार्मिक पुस्तकें एवं मन्त्रादि कण्ठस्थ होने के आधार पर.

समय के साथ-साथ इस क्लब की सदस्यता की उपयोगिता बढ़ने लगी. सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए एक सहज सीढ़ी के रूप में इसका प्रयोग किया जाने लगा और इसकी सदस्यता के लिए होड़ लगने लगी. पारिवारिक परम्परा का निर्वहन करते हुए मेरे माता-पिता भी इस क्लब के आजीवन सदस्य रहे और उन्होंने मुझे 20 वर्षों की औपचारिक शिक्षा दिलायी जिससे मैं भी इस क्लब का एक सम्मानित सदस्य बन सकूं.

सतत परिवर्तनशील बुद्धिवादियों से स्वयं बुद्धिवाद भी नहीं बच सका. समय के साथ-साथ बुद्धिवाद की परिभाषा भी बदलती गयी. जो धर्म कभी बुद्धिवाद की पहली शर्त हुआ करता था, अब एक बड़ी अयोग्यता बन गया! पहले कभी बुद्धिवादी और पण्डित शब्द पर्यायवाची हुआ करते थे. अब तो पण्डित शब्द बुद्धिवादियों के लिए किसी गाली से कम नहीं!

उसी क्रम में आज बुद्धिवादी क्लब से मुझे निष्कासित करने की बात की जा रही थी.

लोग चीख-चीख कर कह रहे थे, "निकालो इस जाहिल को बाहर. इसे पहले भी कई बार चेतावनी दी जा चुकी है. यह वही है न जो एम. एफ़. हुसैन द्वारा बनायी गयी हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न पेण्टिंग्स पर आपत्ति कर रहा था? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर उंगली उठाता है! वह भी दो कौड़ी के धर्म, परम्परा एवं आस्था के नाम पर! बाहर निकालो इस बेवकूफ़ को इस क्लब से!"

दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी, "और सार्वजनिक स्थलों पर मर्यादा में रहने की बात भी तो यही कर रहा था! वैयक्तिक स्वतन्त्रता पर पहरा लगाने वाले इस गँवार को भीतर आने किसने दिया? वैयक्तिक स्वतन्त्रता पर किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सकता."

मैंने प्रतिरोध किया, "वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अर्थ समझते हैं आप? वैयक्तिक स्वतन्त्रता के नाम पर यदि मैं आपको गाली दूँ तो क्या आपको स्वीकार्य होगा?"

"अवश्य स्वीकार्य होगा. उसके बाद हम तुझे पीटने के लिए भी तो स्वतन्त्र हैं," उसी कोने से ठहाका गूँजा.

"यह तो एकदम जाहिल व्यक्ति है. उस दिन यह मुक्त यौन सम्बन्धों को व्यभिचार कह रहा था," फ़्रैंच-कट दाढ़ी वाले बुद्धिवादी ने बहुत सोच-समझ कर कहा. "और विवाह किए बिना लिव-इन सम्बन्धों पर भी को भी अनुचित कह रहा था यह," लम्बे बालों को चुटिया में बांधते हुए हुए एक प्रौढ़ बुद्धिवादी ने जड़ा.

क्लब में मेरे कुछ मित्र भी थे. मैंने समर्थन की अपेक्षा से उनकी ओर देखा. वे असहाय दिख रहे थे. बहुमत में बहुत शक्ति होती है. बहुमत चाहे बुद्धिवादियों का हो अथवा अनपढ़ लोगों का, उसका चरित्र एक-सा होता है - बेपरवाह और गैर-जिम्मेदाराना.

मुझे अकेला पाकर समवेत स्वर में पुकार होने लगी, "इस दकियानूसी को बाहर निकालो. हमें परिवर्तन चाहिए. बुद्धिवादी क्लब परिवर्तन के लिए है. सब बदल डालो. सब परम्पराओं को मिटा डालो. जो परिवर्तन नहीं चाहता उसे दकियानूसी क्लब में डाल दो. बाहर करो इसे."

"यदि यही बुद्धिवाद की परिभाषा है, तो मुझे स्वयं नहीं रहना बुद्धिवादी. किन्तु भगवान के लिए मुझे दकियानूसी तो न कहो." भारी मन से यह कहकर बाहर निकलने के लिए मैंने दरवाज़ा खोला. दरवाज़ा सीधे दकियानूसी क्लब में खुलता था. मैंने घबराकर दरवाज़ा बंद किया और वापस आ गया. बुद्धिवादी ठहाका मारकर मेरा उपहास उड़ा रहे थे. मैंने भागकर दूसरा दरवाज़ा खोला. वह भी दकियानूसी क्लब में ही खुलता था. एक-एक कर मैंने सारे दरवाज़े खोल कर देख लिए. सब दकियानूसी क्लब में ही खुलते थे.

मैं थकावट से हाँफ़ रहा था. एक परिपक्व से दिखने वाले बुद्धिवादी कह रहे थे, "दो ही रास्ते हैं तुम्हारे पास. या तो दकियानूसी कहलाने को तैयार हो जाओ, वरना जैसा हम कहें, वैसा ही तुम भी कहो!"

अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों मेरे मित्र इतने असहाय थे; मुझसे सहमत होते हुए भी मुझे समर्थन देने में असमर्थ क्यों थे.

नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

सबलैंगिक भारत*

(*समलैंगिकता को वैधानिक मान्यता मिलने और उसपर मनाये जा रहे जलसों और मीडिया एवं बॉलीवुड के सुप्रसिद्ध तारक-तारिकाओं द्वारा उसे महिमा-मण्डित करते देख लेखक कल्पना में समय रथ पर सवार हो सन 2050 में पहुँच गया, जब समाज विकसित होकर सबलैंगिकता को अपना चुका था. वहीं इन समाचारों का बुलेटिन प्रसारित हो रहा था)

कल रात चांदनी चौक** में 200 कि.मी. की रफ़्तार से दौड़ रही दो कारों का पीछा कर पुलिस ने एक कार के चालक को तेज़ गति से गाड़ी चलाने के ज़ुर्म में गिरफ़्तार कर लिया. दूसरी कार बल्ली मारान के रास्ते अजमेरी गेट होते हुए फ़रार हो गयी.

गिरफ़्तार कार चालक के पास एक ऐसी ड्रग भारी मात्रा में पायी गयी जिसके सेवन से एक पुरुष एक साथ 20 पुरुषों को सन्तुष्ट कर सकता है. इस मादक द्रव्य पर पिछले माह सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था क्योंकि इसके सेवन से पुरुष किसी महिला के साथ सम्बन्ध कायम करने में सदा के लिए अक्षम हो जाता है. अभी कानून द्वारा केवल उन्हीं ड्रग्स के सेवन की अनुमति है जिनके सेवन से पुरुष अथवा महिला की प्रजनन क्षमता कुछ ही वर्षों के लिए प्रभावित हो, हमेशा के लिए नहीं. ज्ञातव्य है कि पिछले पाँच वर्षों में देश की जनसंख्या तेज़ी से घट रही है और इस विषय में सरकार द्वारा किये जा रहे सभी कदम विफल रहे हैं.‍

देर रात राज्यसभा में भाषण देते हुए सन्तानोत्पत्ति॓॓ मंत्री ने इस प्रकार के मादक द्रव्यों के प्रसार पर गहरी चिन्ता जताते हुए कहा कि सरकार प्राय: रुकी हुई सन्तानोत्पत्ति को पुनर्जीवित करने के लिए कृतसंकल्प है.

लोक सभा में विपक्ष ने आज सदन की कार्यवाही नहीं होने दी. 17 बार लोकसभाध्यक्ष को शोर शराबे के बीच कार्यवाही कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ा और अन्त में बेबस होकर उन्होंने सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया. विपक्षी सदस्य यह मांग कर रहे थे कि पश्चिमी देशों में हमारे देश से हो रहे बच्चों के पलायन पर रोक लगाने के सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री स्वयं वक्तव्य दें. पिछले छह महीनों में बच्चों के अनधिकृत पलायन की 23 घटनाओं की रिपोर्ट की जा चुकी है, किन्तु सरकार इस विषय में चुप है. विपक्ष के नेता गे. व्यभिचारी ने एक प्रैस कॉन्फ़्रेंस को सम्बोधित करते हुए कहा कि जहां एक ओर देश में अवयस्क बालक-बालिकाओं की संख्या कुल जनसंख्या का मात्र 4% रह गयी है, वहां इस प्रकार से बच्चों का पलायन चिन्ताजनक है. इस विषय में उन्होंने एक उच्चस्तरीय जांच आयोग के गठन की मांग की.

इस विषय में जब जनसंख्या विस्तार॓॓ मन्त्री से बात की गयी तो उन्होंने विपक्ष पर जनता को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार पड़ोसी गरीब देशों से बच्चे भारत में मंगवाने का प्रयास कर रही है. विदेशों से बच्चे हमारे देश में आएं इसे बढ़ावा देने हेतु एक कार्ययोजना तैयार की जा रही है जिसके लिए बजट में 30 अरब करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है.

एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सूचना दी कि पिछले छह माह में देश में स्वास्थ्य की दशा में सुधार आया है और अब देश में ऐसे व्यक्तियों की संख्या 3.45 प्रतिशत है जिन्हें कोई गुप्त रोग नहीं है. पिछले वर्ष यह संख्या 3.30 प्रतिशत थी.‌

उधर मानवाधिकार कमीशन के अध्यक्ष ने कमीशन के वार्षिक अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए सरकार से मांग की है कि सरकार मादा पशुओं में सबलैंगिकता उत्पन्न करने सम्बन्धी ड्रग्स के अनुसंधान कार्य में तेज़ी लाये. इस सम्बन्ध में सबलैंगिक महिला मोर्चे का एक प्रतिनिधिमण्डल मानवाधिकार मन्त्री से भी मिला था और उनका ध्यान सबलैंगिक स्त्रियों की इस व्यथा की ओर आकृष्ट किया था कि जहां एक ओर सबलैंगिक पुरुष तो मादा पशुऒं के साथ शारीरिक सुख प्राप्त कर लेते हैं, वहीं स्त्रियां इस सुख से अभी तक वंचित हैं, यद्यपि इस विषय में पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं कि पुरुष एवं महिलाएं दोनों जैनेटिक कारणों से सबलैंगिक होते हैं, और आदि काल से इस प्रकार के व्यक्ति हमारे समाज में रहे हैं और प्राचीन काल में तो उन्हें समाज में विशेष सम्मान प्राप्त था. मन्त्री महोदय ने उन्हें इस विषय में आवश्यक कार्यवाही का आश्वासन दिया.

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* समलैंगिकता को वैधानिक मान्यता मिलने के बाद अब अगला चरण सबलैंगिकता ही तो हो सकता है!

** दिल्ली के चांदनी चौक में आज 2010 में पैदल चलने के लिए भी जगह नहीं मिलती!‍ समाज में समलैंगिकता के व्याप्त हो जाने से जनसंख्या-वृद्धि कोई समस्या नहीं रह जाएगी, अपितु जनसंख्या प्रसार के उपाय नहीं सूझेंगे! सड़कें खाली और सुनसान मिला करेंगी.

॓ सन 2050 में सन्तानोत्पत्ति एवं जनसंख्या-विस्तार जैसे मन्त्रालय सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होंगे!‌ अभी, जिन पाश्चात्य देशों में समलैंगिकता का प्रचार-प्रसार हो चुका है, वहाँ व्यभिचार सभी कल्पनीय सीमाएं लांघ चुका है. जिसके परिणामस्वरूप समाज गुप्त रोगों से जूझ रहा है.

- नज़दीक से

विक्रम शर्मा

जय माता दी!

बारिश तेज़ हो गयी थी. हमारी चाल भी तेज़ हो गयी. शायद निकट ही अगला पड़ाव हो, छत हो! तभी बिजली भी चली गयी. पर्वतीय मार्ग पर बारिश और घुप अंधेरा. हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था.

कैसी परीक्षा ले रही हो माँ? हम सोच रहे थे. पत्नी ने ज़ोर से मेरा हाथ पकड़ लिया. "जय माता दी", सामने से आवाज़ आयी. "जय माता दी" प्रत्युत्तर में हम भी बोले. कैसा जादू है इन शब्दों में. सहज स्फ़ूर्ति आ जाती है तन-मन में. सुनकर, बोलकर. वैष्णो देवी की यात्रा में ये स्वर कानों में मानो अमृत घोल देते हैं. अनजाने भी अपने बन जाते हैं इन शब्दों के आदान-प्रदान से.

अभी तो ये शब्द अंधकार में सूचना का काम भी कर रहे थे. सावधान, सामने से कोई आ रहा है. बीच-बीच में बिजली कड़क जाती और सामने से आते लोग स्पष्ट दिखायी दे जाते.

हम पहले भी अनेक बार वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आ चुके थे. हर बार माँ ने प्रकारान्तर से हमें अपनी कृपा से कृतार्थ किया था. इस बार ही पता नहीं क्यों...

मुझे स्मरण हो आयी अपने कॉलिज के मित्रों के साथ की गयी वह यात्रा. हम पाँच मित्र थे. उन दिनों आज की तरह पक्की सड़कें नहीं हुआ करती थीं. कटरा से वैष्णो भवन तक पथरीले संकरे रास्ते हुआ करते थे. बीच-बीच में बनी सीढ़ियों का प्रयोग तब अधिक हुआ करता था. हम लोग कभी कच्चा रास्ता पकड़ते तो कभी सीढ़ियाँ. जवानी का जोश था. कुछ नया करने का मन करता. एक मित्र ने दूसरे के साथ शर्त लगायी और एक नया रास्ता पकड़ लिया - पहाड़ का रास्ता. उसका साथ देने के लिए उसके पीछे-पीछे मैं भी हो लिया. मुझे लगा था, थोड़ा ऊपर जाकर वापस आ जाएंगे.

लेकिन मेरा मित्र छरहरे बदन वाला एक खिलाड़ी था. वह रुका ही नहीं. उसके पीछे-पीछे मैं. बाकी मित्र वापस आने की गुहार लगाने लगे किन्तु उसपर तनिक भी असर नहीं. हम चढ़ते गये. नीचे का मार्ग जहाँ हम अपने बाकी मित्रों को छोड़कर आये थे, दिखने बंद हो गये थे. हम पत्थर और पौधे पकड़-पकड़ कर आगे बढ़ते जा रहे थे. हमारी सांसें फूल गयी थीं. वापस जाने की कोई विधि नहीं थी. नीचे देखो तो हालत खराब. कई किलोमीटर नीचे कटरा दिखाई पड़ रहा था. यानी पाँव फिसला तो सीधे कटरा!

आगे बढ़ना कठिन से कठिनतर होता जा रहा था. चढ़ाई ऊर्ध्वमुखी होती जा रही थी और पत्थरों का स्थान कच्ची मिट्टी ने ले लिया था. बड़े पुष्ट पौधों का स्थान घास ने ले लिया था, जिन्हें पकड़ कर ऊपर नहीं चढ़ा जा सकता था. प्राण मुँह को आ रहे थे.

आखिर हमें वह पर्वत समाप्त होता दिखाई दिया. ऊपर कुछ लोगों की भीड़ थी. थोड़ी देर बाद उस भीड़ में हमारे मित्र भी दिखाई देने लगे जो सीधे रास्ते से चलकर ऊपर पहुँच चुके थे. सब मिलकर हमें देख रहे थे और माँ की जय-जयकार के साथ हमारा उत्साहवर्धन कर रहे थे.

अब हम उस पर्वत के शिखर पर लगभग पहुँच ही गये थे. हम अपने मित्रों से बात कर सकते थे. भक्तों की भीड़ उनके साथ थी. किन्तु मंज़िल के निकट पहुँच कर हम असहाय खड़े थे. आगे कच्ची मिट्टी की सीधी दीवार थी और पकड़ने के लिए कुछ नहीं था. हमने मुस्कुराहट का आवरण पहन रखा था किन्तु भीड़ में चिन्तित चेहरे बता रहे थे कि हम कितनी बड़ी मुश्किल में थे. कोई हमें उत्साहित कर रहा था तो कोई इस बेवकूफ़ी के लिए डाँट रहा था. कोई कह रहा था कि कुछ लोग रस्से का प्रबन्ध करने आदि-कुँवरी को गये हैं तो कोई बीच-बीच में वैष्णो मैया का जयकारा लगा रहा था.

हम उंगलियों से खुर्च-खुर्च कर मिट्टी में गड्ढे करते जा रहे थे और माँ का स्मरण कर उन गड्ढों में हाथ-पाँव फ़ँसा कर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ते जा रहे थे. कहीं भी कच्ची मिट्टी हमें धोखा दे सकती थी और हम क्षण भर में मीलों नीचे पहुँच सकते थे. किन्तु सैंकड़ों लोगों की प्रार्थना रंग लायी और हमने माँ का नाम लेकर अन्तिम बार हवा में झूलते हुए छलांग लगायी और ऊपर जा रही सड़क का किनारा पकड़ कर लटक गये. पता नहीं उन भक्तों में से किनकी पुकार माँ ने सुनी और हम सुरक्षित ऊपर पहुँच गये. मानो एक चमत्कार हो गया. हमारे साथ सैंकड़ों भक्तों ने चैन की सांस ली और माँ का गुणगान शुरू कर दिया.!

ऐसी कृपा से माँ ने हमें सदैव अनुग्रहीत किया है...

अंधेरे में चलते-चलते अचानक मेरा पांव टेढ़ा पड़ गया और उसमें मोच आ गयी. इस बार पता नहीं क्यों माँ सब कुछ उलटा ही करती जा रही है. अब एक और मुसीबत!

मुझे स्मरण आया, उस बार भी तो मोच ही आयी थी.. माँ साक्षात आ गयी थीं कृपा करने...

हमारी बेटी तब ढाई वर्ष की थी. न वह पैदल चलने को तैयार थी और न घोड़े पर बैठने को. एक पिट्ठू हमारे साथ चल रहा था किन्तु उसकी सेवाएं भी वह अस्वीकार कर चुकी थी. केवल पापा गोदी! पापा अर्थात मेरी पीठ में मोच आ गयी थी. खुद ही चलना दूभर हो गया था. बच्चे को उठाकर चलना तो असम्भवप्राय था. चार कदम चलना भी मुश्किल हो गया था.

श्रीमती जी ने राय दी कि यदि मैं उनसे दूर चला जाऊँ, दिखूँ ही न, तो शायद बिटिया पिट्ठू की सवारी को स्वीकार कर ले. मरता क्या न करता. बेटी को उसकी माँ और पिट्ठू के हवाले कर मैं आगे बढ़ गया.

आदि-कुँवरी पर पहुँच कर मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. मैंने दर्द की दवा का सेवन कर लिया था. काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करने से मुझे आराम करने का अवसर भी मिल गया था, जिससे मेरे पीठ की दर्द जाती रही थी.

बहुत देर बाद मुझे पत्नी और बिटिया आते हुए दिखे. दोनों प्रसन्न थे. बिटिया पैदल चल रही थी. मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था. मेरे पूछने पर श्रीमती जी ने बताया कि बिटिया पिट्ठू पर तो बिलकुल नहीं बैठी.

"तो फिर क्या सारा रास्ता पैदल आयी?" मैंने पूछा.

"हाँ," उसने कहा.

"कैसे?"

"इसके साथ," कहकर पत्नी ने इधर-उधर देखना शुरू कर दिया. "कहाँ गयी वह?" श्रीमती जी आश्चर्य में बोल रही थीं.

"कौन?" मैंने पूछा.

"वह लड़की जिसका हाथ पकड़ कर वह आयी है यहाँ तक. मेरे तो काबू में नहीं आ रही थी यह. पता नहीं कहाँ से वह लड़की आयी और उसका हाथ पकड़ लिया इसने. और चुपचाप उसके साथ चल पड़ी," पत्नी की नज़रें ढूँढ रही थीं उस लड़की को. "लाल कपड़ों में थी वह," उसने कहा और साथ ही वह ठिठक गयी.

"मगर मैंने तो किसी लड़की को नहीं देखा," मैंने कहा.

"आप कैसे देखते? मैं कई किलोमीटर उसके साथ आयी, मुझे भी नहीं ध्यान उसका चेहरा. सिर्फ़ इतना अहसास है कि बहुत प्यारी सी बच्ची थी वह!"

हम दोनों समझ गये थे, माँ की कृपा को, माँ की लीला को.

माँ की कृपा असीम है. हर बार माँ ने हमें उसका रसास्वादन कराया है. फिर इस बार ही क्यों...?

विवाह के उपरान्त अपनी माताश्री की इच्छा से हम पति-पत्नी उनके साथ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आये थे. हमारे बार-बार आग्रह पर भी माताश्री ने घोड़े-पालकी आदि का लाभ उठाने से इनकार कर दिया. उनकी इच्छा थी, माँ के चरणों बैठकर पूजा करने की. और माँ भगवती की पिण्डियों के पास आधा घण्टा बैठकर पूजा करने का चमत्कारी अवसर हमें मिला.

वैष्णो मैया जानती है कि मैं बहुत आराम-तलब व्यक्ति हूँ; इसलिए वह हमेशा मेरे आराम का ख्याल रखती है, यथा हमेशा कमरे की व्यवस्था; एक बार तो हज़ारों लोगों की भीड़ में बिना बुकिंग के भी हमें कमरा मिल गया. एक बार श्रीमती जी ने दो बार दर्शन की ज़िद की तो माँ ने उस ज़िद को भी पूरा कर दिया...

परन्तु इस बार...?

इस बार तो माँ ने हद कर दी. बढ़ती उम्र में इस बार यात्रा की कठिनाई से वैसे ही डर लग रहा था. कमरा बुक नहीं हो पाया. मजबूरी में उसी दिन वापसी का कार्यक्रम बनाना पड़ा. धीरे-धीरे यात्रा करने से विलम्ब होना स्वाभाविक था. सोचा था वापसी में बैटरी कार ले लेंगे. विलम्ब होने से पता चला सायंकाल के बाद बैटरी कार भी नहीं चलती. भवन में पहुँचे तो आरती का समय हो गया. माँ के दर्शन के लिए दो घण्टे अतिरिक्त प्रतीक्षा करनी पड़ी.

माँ के दर्शन के बाद वापसी की यात्रा आरम्भ करते-करते आधी रात का समय हो गया. ऊपर से बारिश.

"जय माता दी" बोलते-बोलते अन्ततः हम कटरा पहुँच गये. हमारी यात्रा सम्पन्न हो गयी थी.

परन्तु माँ ने इस बार किया क्या?

वापस पहुँच कर हमें अहसास हुआ कि माँ ने इस बार भी हम पर कृपा की थी. पहली बार माँ ने छत्र-चोला-चुनरी की भेंट स्वीकार की थी. हमें ज़बरदस्ती आरती के समय भीतर बैठाया था. ऐसे में जबकि ढलती उम्र के चलते हम यात्रा की असुविधा को लेकर बहुत चिन्तित थे. पहली बार हमने बिना भवन पर विश्राम किए आने-जाने की यात्रा एकसाथ सम्पन्न की थी. पहली बार हमने इतने खराब मौसम में यात्रा की थी. पहली बार हमारी यात्रा के समय बार-बार बिजली गुल हुई थी.

माँ हमारी परीक्षा नहीं ले रही थी. माँ हमें बता रही थी कि माँ ने हमें सक्षम बनाया है और उसकी कृपा के चलते कुछ भी असम्भव नहीं.

- नतमस्तक

विक्रम शर्मा

विस्मृत

अरे हाँ, यह तो मन्त्री जी ही हैं. हम सकपका गये. सुना तो था, कि कभी-कभी मन्त्री जी स्वयं कॉफ़ी बोर्ड के काउण्टर पर आकर कॉफ़ी पीते हैं, किन्तु विश्वास नहीं होता था. आज जबकि हम स्वयं खड़े थे काउण्टर पर, तो उन्हें प्रत्यक्ष देखकर अचरज भी हुआ और थोड़ी घबराहट भी हुई. आखिर वह हमारे मन्त्री महोदय थे और हम उनके मन्त्रालय में काम करने वाले सामान्य कर्मचारी!

हम सकपकाते हुए काउण्टर से अलग हो गये ताकि मन्त्री महोदय पहले अपना ऑर्डर दे सकें. मन्त्री जी ने निकट आकर सौम्यता के साथ कहा, "आप लोग पहले से खड़े हैं. पहले आप लीजिए." हमने चुपचाप आज्ञा का पालन किया. अपनी बारी आने पर मन्त्री जी ने पहले भुगतान किया, फिर कॉफ़ी का मग लेकर हमारे निकट ही खड़े हो गये.

कॉफ़ी बोर्ड की कॉफ़ी का मज़ा ही कुछ और था. वैसे चाय कॉफ़ी हमारी सीटों पर भी उपलब्ध हो जाती थी, किन्तु कॉफ़ी बोर्ड की कॉफ़ी नहीं. उच्चाधिकारियों और मन्त्रीगण के पास तो निजी परिचारक उपलब्ध रहते हैं. परन्तु मन्त्री जी की सादगी थी अथवा व्यवस्था पर नज़र बनाये रखने का एक बहाना, वह ऐसी सामान्य जगहों पर अक्सर देखे जा सकते थे.

मेरे साथ मेरे वरिष्ठ सहयोगी वर्मा जी थे. कई वर्षों से वहाँ कार्यरत थे. मन्त्रालय का कोना-कोना उनसे परिचित था. पिछले मन्त्री जी के निजी स्टाफ़ में भी रह चुके थे. बातों-बातों में उन्होंने मुझे अगले दिन मन्त्री जी का कार्यालय दिखाने का वादा कर दिया.

अगले दिन हम लोग मन्त्री जी के कार्यालय में थे. मन्त्री जी के निजी स्टाफ़ के अधिकांश व्यक्ति वर्मा जी के मित्र थे. मन्त्री जी कार्यालय में नहीं थे. सब लोग अनौपचारिक तरीके से बातचीत कर रहे थे. थोड़ी देर में मन्त्री जी के बारे में बात होने लगी. कुछ लोग उनकी सादगी की प्रशंसा कर रहे थे तो कुछ उन्हें अनाड़ी बता रहे थे. कुछ उनकी ईमानदारी के कायल थे तो एक ने तो यहाँ तक कह डाला, "अजी काहे का ईमानदार! भुक्खड़ है****, न खाता है, न खाने देता है."

बातों-बातों में पता चला, मन्त्रियों के स्टाफ़ के काफ़ी विशेषाधिकार होते हैं. ऊपर की आमदनी नहीं तो खाने-पीने की मौज तो रहती ही है. पिछले मन्त्री जी के कार्यकाल में आये दिन मन्त्री जी के मेहमानों के लिए विशेष भोजन की व्यवस्था की जाती थे. वही भोजन उनके निजी स्टाफ़ के लिए भी आता था. लगे हाथ स्टाफ़ के लोग अपने मित्रों को भी आमन्त्रित कर लिया करते थे. तो आए दिन पार्टी हो जाया करती थी.

जब से इन मन्त्री जी ने कार्यभार संभाला था, एक बार भी भोजन का आयोजन नहीं किया गया था. मेहमानों के स्वागत के लिए केवल चाय-कॉफ़ी और साथ में नमकीन काजू. मेहमान के विदा होने के बाद वे काजू वापस डिब्बे में रख दिये जाते और अगले आगन्तुक के आने पर उन्हें दोबारा प्लेट में सजा कर प्रस्तुत कर दिया जाता. "यह जनता का पैसा है. हमें कोई हक नहीं बनता कि इस पैसे का दुरुपयोग करें," वह अकसर कहा करते. इस मितव्ययिता के कारण उन्हें ’भुक्खड़’ नाम से सम्मानित किया गया था.

बाद में वर्मा जी ने मुझे बताया कि स्टाफ़ कई कारणों से मन्त्री जी से चिढ़ता था. मन्त्री जी एक अपवाद की हद तक मितव्ययी थे. अपनी निजी आवश्यकताओं को सीमित रखने के पक्षधर थे. मन्त्री होने के नाते जिन सरकारी सुविधाओं पर उनका सहज अधिकार था, उनसे भी वह यथासंभव बचते. स्टाफ़ के लोग अवसर पाकर उन्हें बार-बार उनके अधिकार स्मरण कराते और हर बार वह टाल जाते. स्टाफ़ का मन्तव्य स्पष्ट था, मन्त्री जी के बहाने सुविधाओं का लाभ उठाना.

कार्य के सिलसिले में मन्त्री जी के घर भी स्टाफ़ का आना-जाना रहता. मन्त्री जी के सामने दाल न गलती देख स्टाफ़ सदस्यों ने उनकी पत्नी के माध्यम से खेल खेलना प्रारम्भ कर दिया. "भाभी जी, मन्त्री जी तो देवता समान हैं. बहुत सीधे हैं. भला जो हक है उनका, उसे लेने में कैसा ऐतराज़? अब देखिए न, आप मन्त्री की पत्नी हैं, फिर भी आपके पास गाड़ी नहीं! यह कोई बात है? ऐसा भी कोई करता है? मन्त्री बनने का परिवार को भी तो कुछ लाभ होना चाहिए."

मन्त्री जी की पत्नी को समझाने में वे सफल हो गये. श्रीमती जी ने अपने पति के सामने गाड़ी के लिए गुहार लगायी. पति देव ने पूछा, "आप करेंगी क्या, गाड़ी का?"

उत्तर मिला, "तरकारी लेने जाएंगे."

"अपने शहर में क्या तरकारी लेने के लिए गाड़ी में जाया करती थीं?"

"तब की बात और थी. अब हम मन्त्री की बीवी हूँ."

"हम हमेशा के लिए मन्त्री नहीं बना हूँ. जब मन्त्री नहीं रहूँगा, तब कहाँ से लाएंगी गाड़ी? अभी तो आदत नहीं पड़ी है. जब आदत पड़ जाएगी, तब कैसे गुज़ारा करेंगी?"

"तब की तब देखी जाएगी. अभी तो हमें गाड़ी चाहिए, बस!" श्रीमती जी ने अलटीमेटम दे दिया.

"यह आपकी समस्या नहीं है. यह हमारी समस्या है. आप बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी तब, जब आपके पास गाड़ी नहीं रहेगी. या तो हम गलत तरीके से कमाई करके आपकी गाड़ी के लिए पैसा इकट्ठा करना शुरू करें. या फिर आपको पल-पल जलते हुए देखें. आपकी जली-कटी सुनें सारी उम्र. बेहतर है, ईश्वर ने जिस हाल में हमें रखा है, उसी हाल में खुश रहें." मन्त्री जी का दो-टूक उत्तर था.

कुछ दिन बाद श्रीमती जी ने खुद को समझा लिया. स्टाफ़ ने भी.

28 महीने बाद मन्त्री जी की पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी. मन्त्री जी वापस अपने घर चले गये. गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गये.

उसके बाद किसी पत्र-पत्रिका में उनका नाम नहीं छपा. किसी ने उनके बारे में बात नहीं की. किसी ने उन्हें स्मरण नहीं किया.

पत्र-पत्रिकाओं में भ्रष्टाचार के समाचार छपते रहे. टी. वी. में भ्रष्ट आचरण पर स्टिंग ऑपरेशन होते रहे, सनसनी मचती रही, पत्र-पत्रिकाओं में तहलका मचता रहा, मगर कभी किसी चैनल ने, किसी पत्र-पत्रिका ने लोगों को यह नहीं बताया कि ऐसे भले, सच्चे और ईमानदार मन्त्री भी हुए हैं.

शायद अब भी हों. किन्तु कौन कहना सुनना चाहता है ऐसे लोगों के बारे में! क्या ऐसे लोगों के साथ एक दिन भलाई, सच्चाई और ईमानदारी भी विस्मृत हो जाएगी?

नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

पिघलती हुई आइसक्रीम

राजू, मुन्नी, बिल्लू... सब खुशी से फूले न समा रहे थे. बात ही ऐसी थी. पापा ने हथियार डाल दिये थे. रेफ़्रिजरेटर आ गया था.

बहुत दिनों से टाल रहे थे शुक्ला बाबू. पर आखिर कब तक टालते! बच्चों की ही इच्छा होती तो और बात थी - उन्हें तो समझाया जा सकता था. पर श्रीमती जी को समझाना उनके बूते की बात न थी. और सच तो यह है, वह स्वयं अपने मन को भी एक अरसे से मार रहे थे. उनकी तो अपनी पुरानी इच्छा थी, घर में रेफ़्रिजरेटर लाने की. पर हालात! खैर! पुराना ही सही, अब रेफ़्रिजरेटर तो वह ले ही आये थे - जो होगा भुगत लेंगे.

लोग बधाई देने आ रहे थे और मुंह मीठा करके जा रहे थे. शुक्ला बाबू आज बहुत स्मार्ट दीख रहे थे. सबको रेफ़्रिजरेटर की खूबियां बताते थक नहीं रहे थे.

"कितने का लिया, शुक्ला बाबू," ऐनक आंखों पर चढ़ाते हुए दास बाबू जे पूछा.

"अजी बस यूँ समझिए, मिल ही गया सस्ते में! वरना आजकल आसमान छू रही हैं कीमतें तो," चहकते हुए शुक्ला जी कीमत गोल ही कर गये.

"सो तो है, सो तो है," मानो दास बाबू को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया हो.

"इम्पोर्टेड लगता है," गुप्ता जी अपनी समझ और जानकारी का प्रमाण देते हुए बोले.

"अजी, लगता है? है," शुक्ला बाबू ने ठहाका मारा, "ठोक बजा कर लिया है, ऐसे थोड़े ही!"

"वैसे साहिब, सैकण्ड हैण्ड चीज़ तो सैकण्ड हैण्ड ही होती है," दोष निकालने के लहजे में उनके पड़ोसी सिन्हा साहिब बोले.

"अजी रंग करवा लूंगा न, तो आपके ’डिब्बे’ से तो लाख दर्जे अच्छा दिखेगा," और शुक्ला बाबू ने बाकी लोगों से अनुमोदन की अपेक्षा करते हुए नज़र घुमायी और ज़ोर से एक और ठहाका लगाया.

रसोईघर में देवियों की भीड़ लगी थी. मिसेज़ दास दार्शनिक अन्दाज़ में कह रही थी, "वैसे फ़्रिज का सुख बड़ा है."

"सो तो है ही, इतनी बर्फ़ जमती है कि खुद तो खुद, अड़ोसी-पड़ोसियों को भी बाज़ार से बर्फ़ खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ती," मिसेज़ गुप्ता ने एडवांस बुकिंग करा ली. वह साथ वाले कमरे में ही रहती थीं.

"जी, और चीज़ें जो खराब होने से बच जाती हैं! अब देखो न, इनके साथ आज मेहमान आने वाले थे. मैंने चार आदमियों के लिए ज़्यादा खाना तैयार कर लिया. मगर वे आये नहीं - अब या तो खुद खा के पेट खराब करो, या फिर फेंको," मिसेज़ वर्मा ने भी चुस्ती दिखायी.

मिसेज़ शुक्ला ने भी रंग में आते हुए कह दिया, "क्यों? यह फ़्रिज हमने किसलिए लिया है? यहाँ रख जाना सारा सामान."

"अजी, कहाँ हो, ज़रा चाय तो बनाओ भई इनके लिए," सुभाष बाबू की आवाज़ आयी कमरे में से.

"बनाती हूँ," कहकर मिसेज़ शुक्ला अपनी मित्रमण्डली की ओर मुखातिब हुईं, "अब देखो न, फ़्रिज हो तो क्या बात है - स्क्वायश घोली और छुट्टी. ऐसे दुनिया भर के झमेले करो, तो जा के चाय बने."

बच्चे आपस में सलाह-मशवरा कर रहे थे. राजू को आम की आइसक्रीम अच्छी लगती थी तो मुन्नी को सादी. फ़ैसला नहीं हो पा रहा था कि कैसी आइसक्रीम बनवायी जाए.

धीरे-धीरे भीड़ छंटती गयी और आखिर घर में परिवार के व्यक्ति ही रह गये. मिसेज़ शुक्ला ने सादी आइसक्रीम जमा दी थी और बच्चे बेसब्री से उसके जमने का इन्तज़ार कर रहे थे. शुक्ला बाबू कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर पड़े थे. आज एक बोझा उनके सर से उतर गया था.

बोझा उतरा था या और बढ़ गया था - यही जानने की कोशिश कर रहे थे शुक्ला बाबू! कितना अच्छा होता, अगर आज मां और पिताजी भी घर में होते! कितने खुश होते वे 'ठण्डे पानी वाली मशीन’ देख कर! शुक्ला बाबू के बस में होता तो वह रोक लेते उन्हें, पर उन्हें तो अब हर क्षण भारी लग रहा था, इस घर में. खैर तीर्थ-यात्रा कर आएंगे तो चित्त प्रसन्न हो जाएगा उनका. अच्छा ही है, घर की कुढ़न से तो अच्छा है, कुछ समय अलग, बाहर रह लेना.

पर! शुक्ला बाबू भुला नहीं पाते थे, वह दिन जब उनके मां-पिताजी उन्हें छोड़ गये थे. इतना नाराज़ पहले कभी नहीं देखा था उन्होंने माँ को. पहले कभी वह नाराज़ हुआ करती थीं तो उन्हें मनाना कोई मुश्किल न था, मगर उस दिन तो वह कुछ बोली ही नहीं; कोई शिकायत नहीं, कोई सफ़ाई नहीं! बस एक अडिग निश्चय! अब मैं यहाँ और नहीं रह सकती, नहीं रह सकती! शुक्ला बाबू कारण पता करने में असमर्थ रहे थे - माँ ने नहीं बताया, पिताजी ने भी नहीं और श्रीमती जी ने कहा कि कुछ बात हुई ही नहीं.

बीती घड़ियों के स्मरण से शुक्ला बाबू की आँखों में आंसू आ गये. लेकिन क्या लाभ इन आंसुओं का जो असमय आएँ. यदि उस दिन ये आंसू टपक पड़ते तो शायद माँ-पिताजी घर छोड़ कर जाते ही न.

पिता जी ने औपचारिक स्वर में कहा था, "कोई बात नहीं बेटा! ज़रा घूम आएंगे तीर्थ, तो तबीयत बहल जाएगी."

"लेकिन कुछ दिन रुक कर चले जाइएगा. मैं पैसों का इन्तज़ाम तो कर दूँ."

"तुम उसकी चिन्ता मत करो. वह मैं छोटे से ले आया हूँ."

छोटे शुक्ला बाबू के छोटे भाई थे. माँ-पिताजी हमेशा से ही बड़े बेटे के साथ रहते आये थे. छोटे की शादी हुई, वह अलग रहने लग गया; माँ-पिताजी बड़े के साथ ही रहे. कई बार छोटे शिकायत करता तो पिताजी एकाध रोज़ के लिए उसके पास भी रह आते. आज यह सुनकर कि पिताजी छोटे से पैसे ले आये हैं, शुक्ला बाबू को सुखद आश्चर्य हुआ. वह समझते थे छोटे की भावनाओं को, इच्छा को कि पिताजी उस पर भी अपना अधिकार समझें. कई बार उन्हें लगता भी कि माँ और पिताजी उनसे अधिक स्नेह करते थे और छोटे को अनुचित रूप से स्नेह से वंचित रखते थे.

अरे हाँ! छोटे तो आज आया ही नहीं - उन्हें याद आया - "अरे भई, कहलवा तो दिया था छोटे को?"

"हाँ कहलवा दिया था. कल मैं खुद कह आयी थी और आज राजू के हाथ कहलवा दिया था."

शुक्ला बाबू फिर खो गये विचारों में! तीर्थ-यात्रा पर जाने से एक दिन पहले माँ और पिताजी छोटे के साथ उसके घर चले गये थे. शुक्ला जी को बिलकुल अलग कर दिया गया था. छोटे ने उनसे कहा था, "आप चिन्ता न करें, मैं स्वयं चढ़ा आऊंगा इन्हें बस में."

"लीजिए, ज़रा स्वाद देखिए," श्रीमती जी आइसक्रीम ले आयी थीं.

"अरे, पूरी तरह जम तो जाने देतीं. रखो अभी, छोटे आएगा तो इकट्ठे ही..." शुक्ला जी ने देखा, छोटे का पुत्र रज्जी कमरे में दाखिल हुआ.

"पिताजी ने यह खत भिजवाया है."

शुक्ला जी घबरा गये - सब कुशल तो है!

उन्होंने पत्र खोला; लिखा था, "बधाई! माँ और पिताजी को घर से निकाल कर जो खर्च बचाया है, उसका इससे ज़्यादा और सदुपयोग और क्या हो सकता...."

शुक्ला जी ने नज़र उठायी, रज्जी कमरे में नहीं था.

सामने पड़ी आइसक्रीम पूरी तरह से पिघल गयी थी.


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

जिजीविषा

एक अजीब सा रिश्ता बन गया था हम दोनों में. जब भी मैं उनके घर के सामने से निकलता हमारी नज़रें मिलतीं और हम दोनों मुस्कुरा देते.

हमारी मुलाकात डी. टी. सी. की एक बस में हुई थी. मैं सीट पर बैठा हुआ था, जब वह मेरे पास आकर खड़ी हो गयीं. मैंने स्वभाववश खड़े होकर उन्हें अपनी सीट प्रस्तुत कर दी. उन्होंने मुस्कुरा कर सीट ग्रहण की और बोलीं, "भगवान तुम्हें ज़िन्दगी की हर खुशी दे बेटा. लोग तो लेडीज़ सीट पर बैठे हुए भी महिलाओं को देख कर मुँह दूसरी तरफ़ फ़ेर लेते हैं. कौन खड़ा होता है अपनी सीट से, महिलाओं को देखकर!" मैंने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया, "मैं भी हमेशा महिलाओं और बुज़ुर्गों के लिए सीट खाली कर देता हूँ. कौन देता है, इतने आशीर्वाद बदले में!" उन्होंने मेरी आंखों में आंखें डालकर एक भरपूर मुस्कान बिखेरी और हमारे बीच में एक अटूट रिश्ता बन गया.

उन्हें मैंने अपने घर की पिछली गली में पहले भी देखा था. हमारे घर के पीछे एक अनधिकृत कॉलोनी थी जिसमें कच्चे-पक्के छोटे-छोटे मकान बने थे. उन मकानों के दरवाज़े ठीक सड़क पर खुलते थे. उन्हीं दरवाज़ों में से एक में बैठी मिलती थीं वह, हर शाम.

अब मैं हर रोज़ उसी रास्ते से आने लगा, उनकी उस मुस्कान का प्रसाद पाने की आकांक्षा लिए. कभी-कभी मुझे लगता, वह भी हर शाम मेरे उधर से गुज़रने की प्रतीक्षा में ही दरवाज़े पर बैठी मिलती थीं.

दो-तीन बार उन्होंने मुझे रोक कर भीतर आने और चाय पीने की दावत भी दी, किन्तु हर बार मैं मुस्कुरा कर टाल जाता.

एक शाम जब मैं उनके घर की ओर बढ़ रहा था, मैंने उनके घर के सामने एक सफ़ेद अम्बैसडर कार खड़ी देखी. पास ही एक स्मार्ट से सज्जन खड़े थे, तायी के साथ. मैं उन्हें तायी कह कर सम्बोधित करने लगा था. जब तक मैं निकट पहुँचूं, वह सज्जन कार में बैठे और कार चल दी. तायी खड़ी होकर जाती हुई उस कार को एकटक देख रही थीं.

मैंने तायी को इतना गम्भीर पहले कभी नहीं देखा था. आज भी तायी मुस्कुरायीं, किन्तु यह एक फीकी मुस्कान थी, उनकी वह चिर-परिचित मुस्कान नहीं. मुझे लगा, मामला कुछ गम्भीर था. तायी ने मेरे कन्धे पर हल्के से हाथ रखा और भीतर आने का संकेत दिया. मैं पहली बार उनके घर में प्रवेश कर रहा था. घर के नाम पर दो छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं. बाहर की कोठरी को वे रसोई और बैठक के रूप में प्रयोग कर रहे थे. भीतर की कोठरी को वे शयन के लिए प्रयोग करते होंगे. भीतर की अंधेरी कोठरी में एक चटाई बिछी हुई दिख रही थी और पास ही एक अटैची रखी हुई थी.

तायी ने बाहर की कोठरी में एक चटाई बिछायी और मुझे बैठने का संकेत दिया. स्वयं वह पहले से बिछे एक टाट के टुकड़े पर बैठ गयीं. पास ही एक चमचमाता हुआ गैस का चूल्हा, सिलिण्डर और स्टील की एक रैक में कुछ नये बरतन रखे थे. तायी गुमसुम बैठीं शून्य में ताक रही थीं.

मैंने चुप्पी तोड़ने के उद्देश्य से कहा, "आज चाय के लिए नहीं पूछेंगी तायी?" तायी ने मायूसी से उत्तर दिया, "कैसी अभागी है तेरी तायी. आज दो-दो बेटे घर आये और आज ही चाय के लिए घर में दूध नहीं है." तायी के नेत्र सजल थे. मैं चुपचाप तायी के आगे बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था.

अचानक तायी के चेहरे पर वही मुस्कान बिखर गयी, "वह जो मोटर में आया था न, वह मेरा बेटा है. मेरा अपना बेटा," उनके मस्तक पर गर्व की लकीरें उभर आयीं, "बहुत बड़ा अफ़सर है मेरा बेटा. सरकार ने उसे मोटर-बंगला सब दे रखा है. बहुत रुतबा है उसका." कुछ क्षण रुक कर बोलीं, "दो नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चे भी हैं उसके, पिंकी और बण्टू. भरा-पूरा परिवार है! बहुत ही भला है बेटा मेरा."

"इसीलिए आपको यहाँ छोड़ रखा है उसने," न चाहते हुए भी मेरे मुँह से अनायास निकल गया.

"ऐसे न कहो बेटे. सब भाग्य की बातें होती हैं. इसमें उसका कोई दोष नहीं. वह तो बार-बार वापस चलने को कहता है. पैसे से मदद करने की कोशिश भी करता है. तेरे ताऊ ही नहीं मानते."

मेरे चेहरे पर ढेर सारे प्रश्न लिखे थे, जिन्हें पढ़ना कठिन नहीं था. पता नहीं तायी ने वे प्रश्न पढ़े अथवा नहीं. वह तो कहीं और ही खोयी हुई थीं. फिर भी वह निर्बाध मेरे प्रश्नों का उत्तर बिना पूछे दिये जा रही थीं.

"इसकी पत्नी का भी कोई दोष नहीं. बस, उसके संस्कार कुछ अलग हैं. खुले विचारों वाली है वह. वैसे हम भी खुद को बहुत आज़ाद विचारों वाला मानते थे. बहू घर आयी तो पता चला, आज़ाद विचार कैसे होते हैं. हम सोचते थे, कुछ हम सीखेंगे और कुछ बहू भी हमें समझ जाएगी. यही सोचते-सोचते वर्षों बीत गये. शुरू के सालों में वह इतनी मुखर नहीं थी. बाद में जब पिंकी और बण्टू स्कूल जाने लगे तो शायद उसे हमारी ज़रूरत नहीं रही. उसके बर्ताव में तल्खी आनी शुरू हो गयी. मैं तो अभी भी ऐड्जस्ट कर लेती. किन्तु एक रोज़ तेरे ताऊ जी से बर्दाश्त नहीं हुआ और हम अटैची उठाकर उसके घर से चल दिये."

"आपने रोका नहीं ताऊ जी को?" मैंने पहली बार तायी के स्वगत-कथन में व्यवधान डाला.

"औरत तो परछाईं होती है अपने पति की, बेटा. ऐसे ही घर चलते हैं. वैसे इतने साल जो कट गये, वे मेरी सुनते रहे, तभी कट पाये. आज सोचती हूँ, व्यर्थ ही रोकती रही मैं उन्हें. लाभ क्या हुआ? जो होना था, वह तो हो कर ही रहा! बल्कि इन वर्षों में तेरे ताऊ जी का स्वास्थ्य भी पहले जैसा नहीं रहा. दिल के मरीज़ हो गये. दो अटैक आ चुके हैं उन्हें. इस हालत में उन्हें नयी ज़िन्दगी शुरू करनी पड़ रही है. पहले ही यह कदम ले लिया होता तो अब तक तो हम अपने पैरों पर खड़े हो भी गये होते.

"कोसती हूँ खुद को, क्यों मैं पढ़ी लिखी नहीं. क्यों मैं नौकरी पर नहीं जा सकती. इतनी बुरी सेहत में वह सारा दिन काम करते हैं और मैं हट्टी-कट्टी यहाँ आराम करती रहती हूँ," रुंधे गले के साथ तायी बोल रही थीं.

"तू चिन्ता मत कर बेटा," खुद को संभालती हुई बोलीं तायी, "सब ठीक हो जाएगा. देख, इस महीने ये बरतन और गैस-चूल्हा खरीद कर दिया है तेरे ताऊ की पहली कमाई से. इस महीने दो मोबाईल खरीदेंगे; एक तेरे ताऊ के पास रहेगा, एक मेरे पास. तेरे ताऊ की बहुत चिन्ता लगी रहती है सारा दिन. अगले महीने कुछ फ़र्नीचर खरीदेंगे. अभी इस हाल में तो पिंकी और बण्टू को यहाँ बुला भी नहीं सकते. हमें इस हाल में देखकर वे अपने माता-पिता के बारे में अच्छा नहीं सोचेंगे न. दो-तीन महीने बाद जब यह घर जैसा दिखने लगेगा, तब बुलाएंगे बच्चों को यहाँ."

तायी की आंखों में कुछ अश्रु थे, कुछ चमक, कुछ स्वप्न और थी अदम्य जिजीविषा!

नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

आभासी दुनिया

जैसे फ़िल्मों में दिखाते हैं, मेरे दिल और दिमाग के बीच घमासान युद्ध जारी था. दिल इस आलेख को लिखने को कह रहा था और दिमाग सावधान कर रहा था कि ऐसा करना खतरे से खाली नहीं था. इसमें कुछ मित्रों को नाराज़ करने का जोखिम था! दोनों के तर्क-वितर्क को मैं साक्षी भाव से सुन रहा था.

मेरे दिल और दिमाग के गुत्थम-गुत्था होने को अनदेखा करते हुए मेरे भीतर का साहित्यकार (मानो या न मानो!) यह आलेख टाइप करने में जुटा हुआ था.

फ़ेसबुक पर मेरा पदार्पण इसी वर्ष हुआ था. उधर घर की दीवार पर मुफ़्त में मिला कैलेण्डर टँगा, इधर फ़ेसबुक में मेरा खाता खुला. उसके बाद प्रारम्भ हुआ मेरा रोचक एवं शिक्षाप्रद अनुभवों से भरा सफ़र.

मैंने पाया कि फ़ेसबुक भड़ास निकालने का सबसे प्रभावी, सस्ता एवं सुलभ माध्यम है. यहाँ सभी प्रकार के दबे-छुपे, अधमरे, कुचले भाव न केवल पुनर्जीवित हो जाते हैं, वरन उन भावों को प्रकट करने का साहस स्वतः आ जाता है. बेखौफ़, बेझिझक और चाहो तो बेशर्मी के साथ अपनी बात कह सकते हैं यहाँ. आखिर यह एक आभासी दुनिया है, वास्तविक थोड़े ही है.

कभी-कभी मुझे लगता है इसे आभासी (Virtual) कहना तर्कसंगत नहीं है. यह तो वास्तविक दुनिया का सच्चा प्रतिरूप है. बचपन में सुना था कि शराब के नशे में व्यक्ति का असली स्वरूप दिखाई पड़ता है. फ़ेसबुक एक नशा है, सस्ता किन्तु असरदार. यहाँ भी व्यक्ति अपने असली स्वरूप में दिखाई पड़ता है.

अंग्रेज़ी के F***, S**** जैसे शब्द तो यहाँ ऐसे बिखरे पड़े हैं, जैसे अमावस के काले, स्वच्छन्द आकाश में तारे. जिनका हाथ अंग्रेज़ी में बहुत तंग है, वे हिन्दी के तेरी*** जैसे मुहावरों से काम चला लेते हैं. यहाँ सब शेर हैं. कोई क्या बिगाड़ लेगा? इण्टरनैट पर थप्पड़ या घूँसा तो कोई मार नहीं सकता! तो दो गाली, जमकर.

वैसे फ़ेसबुक पर सिर्फ़ गाली गलौज ही नहीं होता. प्यार-मोहब्बत भी होता है. सब तरह का प्यार. मानवता से लेकर प्रेमी-प्रेमिका से होकर प्रेमी-प्रेमी अथवा प्रेमिका-प्रेमिका वाला प्यार. कोई कामुक-कमसिन हसीना यदि आपसे प्रेम का इज़हार करे तो क्या करेंगे आप? सावधान! वह कामुक सी दिखने वाली हसीना एक मर्द भी हो सकता है, जो आपको बेवकूफ़ बना रहा हो. यदि आप मर्द हैं तो घबरा मत जाइएगा, जब कोई मर्द ही आपसे प्रेम का इज़हार करे - दोस्ताना फ़िल्म वाला प्रेम! महिलाएं भी सावधान रहें.

फ़ेसबुक पर दोस्ती बढ़ाने का सबसे कारगर तरीका है, एक-दूसरे की पीठ खुजाना. तुम मेरी तारीफ़ करो, मैं तुम्हारी करूंगा. ख्याल रहे, इसमें एक बार भी चूक हो गयी तो दोस्त खोने का ख़तरा है. दोस्ती की शर्त ही यह है कि मैं जो भी लिखूँ, जैसा भी लिखूँ उसकी तारीफ़ करनी पड़ेगी. सांत्वना इस बात की है बदले में आप भी मुझसे वही प्रत्याशा रख सकते हैं जिसकी अवहेलना होने पर आप दूसरे मित्र तलाशने को स्वतन्त्र हैं. किसी ने सही संज्ञा दी है फ़ेसबुक को, 'तेलबुक'!

यदि आपको फ़ेसबुक पर अपना मित्र-मण्डल बढ़ाना है तो समान विचारधारा के लोगों को ढूंढिए. देखते ही देखते आपके ढेर सारे मित्र होंगे. अब मिलकर एक ही बात को बार-बार दोहराइए. एक ही राग बार-बार अलापिए. जिसे कोसना है, मिलकर कोसिए. जिसका गुणगान करना है, ताल ठोंक कर करिए. यदि गलती से कोई विरोधी स्वर मुखर हो जाए, तो टूट पड़िए उस पर और मनचाही भाषा में गाली-गलौज कीजिए. भूलकर भी विरोधी कैम्प की तरफ़ मत बढ़ जाइएगा, वरना आपका भी वही हश्र होगा जो आप दूसरों का अपने मित्रों के साथ मिलकर अपने गढ़ में करते हैं.

फ़ेसबुक पर कई आन्दोलन चल रहे हैं. कोई किसी विचारधारा अथवा संस्था विशेष को प्रतिष्ठापित करने के लिए गाली-गलौज कर रहा है तो कोई उस विचारधारा का नामो-निशान मिटा देने का संकल्प लिए हुए ऐसा कर रहा है. आप किसी भी बारे में बात कीजिए, ये आन्दोलनकारी घुमा-फिराकर, येन केन प्रकारेण बात को उसी बिन्दु पर ले आएंगे, जो उन्हें प्रिय है अथवा जिसके लिए उन्होंने जन्म लिया है!

यदि आप किसी को प्रभावित करना चाहते हैं अथवा स्वयं को एक बुद्धिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं तो अपने पेज पर बुद्धिजीवी विचार-विमर्श प्रारम्भ कीजिए. ध्यान रहे, दूसरे लोग आपके पेज पर आने चाहिएँ. भूलकर भी किसी दूसरे के पेज पर जाकर गम्भीर विषयों पर टिप्पणी मत कीजिएगा. इससे आपका कद कुछ छोटा होने की आशंका है.

यदि आपकी जानकारी कुछ कम है तो भी वार्तालाप करने से पीछे मत हटिए. जानकारी न होते हुए भी उसे प्रदर्शित करने एक तकनीकी उपाय है. गुरू गुग्गल की शरण में जाइए. जिस विषय में वार्तालाप हो रहा हो, उस विषय में सर्च कीजिए और कॉपी-पेस्ट कर डालिए. कहते हैं, नकल के लिए भी अकल चाहिए. फ़ेसबुक पर वह भी आवश्यक नहीं! वैसे भी वार्तालाप में कौन पढ़ने वाला है आपके लिखे को. सब अपना-अपना लिखने में व्यस्त हैं अथवा अस्त-व्यस्त हैं. आपकी पेस्ट की हुई सामग्री यदि अप्रासंगिक भी हुई तो कोई बात नहीं, बस उच्च-स्तरीय अथवा क्लिष्ट होनी चाहिए. जब समझ नहीं पाएंगे दूसरे, तो आपके ज्ञान का लोहा मान ही जाएंगे!

अन्तिम बात, मेरी तरफ़ से. जो कुछ भी ऊपर लिखा है, मेरे साहित्यकार ने, वह दूसरों के बारे में है. आपके बारे में नहीं. आप तो मुझ जैसे हैं!

नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

Monday, December 27, 2010

तुम रहने ही दो

आज मैं बहुत प्रसन्न था. मेरा बरसों पुराना स्वप्न साकार होने जा रहा था.

मैं एक पत्रकार बनना चाहता था. पत्रकार की कलम में बहुत शक्ति होती है, मेरा विश्वास था. साहित्यकार की कलम से भी अधिक. साहित्यकार तो कभी-कभी लिखते छपते हैं. पत्रकार प्रतिदिन लिखते हैं और छपते हैं. सामाजिक क्रान्ति की दिशा में पत्रकारिता का मार्ग सबसे गारण्टीकृत मार्ग है, ऐसा मेरा मानना था.

इसी हेतु मैंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया, देश के उदीयमान पत्रकारों के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह से अशोक हॉल में मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ.

किन्तु मैं एक नियमित पत्रकार न बन सका. अपनी मौजूदा नौकरी को छोड़कर उससे आधी आमदनी वाला व्यवसाय अपनाने की हिम्मत न जुटा पाया और नौकरी की व्यस्तता में स्वतन्त्र पत्रकारिता भी न अपना सका.

किन्तु पत्रकारिता के लिए मेरे हृदय में सम्मान बढ़ता ही जा रहा था. जब भी अवसर मिलता, किसी पत्रकार के निकट जाने का, उसे मैं गंवाता नहीं.

उस दिन, मौसाजी के घर उनके एक पत्रकार मित्र को देखकर तो मैं दंग ही रह गया. मौसाजी के घर जमघट लगा था. एक स्थानीय नेता के कहने पर मौसाजी ने अपने प्रख्यात पत्रकार मित्र एल. एन. को बुला रखा था. कुछ दिन पहले पुलिस ने उन नेता के साथियों को दंगा करने के आरोप में धर-दबोचा था और हर रोज़ उन्हें तंग कर रहे थे. और दारोगा नेताजी के दबाव में नहीं आ रहा था. एल. एन. सर ने फ़ोन पर बात की दारोगा से. उनका लहज़ा ऐसा था मानो वह उसके बॉस हों. चुटकियों में नेता जी की समस्या हल हो गयी. नेताओं और पुलीस से भी अधिक शक्ति है, पत्रकारों में, मुझे इसका सुखद अहसास हुआ.

अन्ततोगत्वा हिम्मत कर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी. अब मैं स्वतन्त्र था. पत्रकारिता अपनाने का निर्णय ले लिया था.

और आज एल. एन. सर मुझे अपने साथ ले जाने वाले थे. मॉडर्न पत्रकारिता क्या होती है इसका परिचय कराने. मैं बहुत उत्तेजित था.

सबसे पहले हम एक पाँच-सितारा होटल में गये. किसी बड़ी कम्पनी द्वारा एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया गया था. कुछ नीरस भाषण हुए, कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे गये, बेमन से. प्रैस-विज्ञप्ति वितरित की गयी, बहुत सुन्दर फ़ोल्डर में, जिसे बिना पढ़े एल. एन. सर ने अपने बैग में रख लिया.

उसके बाद एक आलीशान भोज की व्यवस्था थी, जिसमें नाना-प्रकार के व्यंजन थे और देसी-विदेशी पेय थे. चलते समय एक गिफ़्ट भी दी गयी सभी पत्रकारों को.

बाहर निकलकर वह बोले, "आजकल पत्रकारों की कीमत ऐसे लंच-डिनर रह गयी है. ये कॉर्पोरेट वर्ल्ड वाले समझते हैं, खरीद लिया उन्होंने पत्रकारों को खाना खिलाकर." फिर एक ठण्डी साँस भर कर बोले, "वैसे कई बिक भी जाते हैं, इस खाने और गिफ़्टों के बदले... बड़ा बनना है तो बड़ा सोचो. पत्रकारिता का पहला पाठ!"

कुछ विशेष नहीं था एल. एन. सर के पास करने को. बोले, पास ही एक एम. पी. महोदय रहते हैं. उनके घर चलते हैं." फ़ोन पर उनसे बात कर बोले, "घर में ही हैं." फिर ड्राइवर को निर्देश देकर उन्होंने आंखें बन्द कर लीं. इतना स्वादिष्ट भोजन कर मुझे भी नींद आ रही थी!

रास्ते में एक फ़ोन आया एल. एन. सर को. कार एक पार्क के पास से गुज़र रही थी. कार रुकवा कर वह तेज़ी से पार्क की तरफ़ बढ़े. पीछे-पीछे मैं भी हो लिया. अचानक एल. एन. सर ऊँचे स्वर में बोलने लगे. वह टी. वी. के लिए रिपोर्टिंग कर रहे थे, "...जी हम मुख्यमन्त्री निवास के बाहर खड़े हैं. सुबह से ही यहाँ वी.आई.पीज़. का तांता लगा हुआ है. बहुत गहमा-गहमी है. अभी-अभी प्रधानमन्त्री के प्रतिनिधि श्री...."

मैं अवाक था. रिपोर्टिंग पूरी होने पर एल. एन. सर ने मेरी तरफ़ विजयी मुद्रा में देखा और मेरे चेहरे पर लिखे मेरे प्रश्न के उत्तर में बोले, "समाचार को प्रामाणिक बनाने के लिए यह सब करना पड़ता है. वैसे मैंने कुछ मनगढ़न्त नहीं बोला. सभी चैनल यह खबर दे रहे हैं. मुझे यह बताया गया और वैसा ही मैंने बोल दिया!"

मैं प्रभावित नहीं था.

कुछ ही देर में हम एम. पी. साहिब के घर पर थे. हमारे पहुँचते ही एम. पी. साहिब ने सब आगन्तुकों को विदा कर दिया. फिर देर तक बतियाते रहे दोनों. बातचीत से पता चल रहा था दोनों के बीच बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध थे.

विदाई का पल आया. एम. पी. साहिब ने एल. एन. सर की गाड़ी तोहफ़ों से भर दी. एल. एन. सर ने न-नुकुर की किन्तु एम. पी. साहिब ने कहा, "मैं कौन सा खरीद कर दे रहा हूँ भाई!"

मैं दोनों के बीच घनिष्ठता देख अचम्भित था. रास्ते में मैंने कहा, "बहुत निकट हैं आप दोनों तो." ठहाका मार कर हँस पड़े एल. एन. सर, "अरे, चोर है, स्सा... अहसान मानता है अपना बस. ऐसे लोग किसी के निकट नहीं होते. सब मतलब के यार होते हैं." मैं समझ नहीं पा रहा था, क्या सच है... जो अभी-अभी एल. एन. सर ने बोला या फिर जो मैं कुछ ही पल पहले देख रहा था, अनुभव कर रहा था! थोड़ा रुक कर बोले, "तुम्हारे लिए एक बहुत बड़ा मौका था एक एम. पी. से जान-पहचान बनाने का. मगर तुम तो ऐसे बैठे थे जैसे तुम्हारा कोई मतलब ही नहीं हो उससे!"

"चलो तुम्हें घर छोड़ देते हैं," दिन की समाप्ति का संकेत दिया एल. एन. सर ने. शायद मुझसे निराश हो गये थे वह.

मेरा घर आने से कुछ पहले मुझ पर अर्थपूर्ण निगाहें डालते हुए एल. एन. सर बोले, "किसी बड़े डॉक्टर को जानते हो जो टी. वी. में इण्टर्व्यू करवाना चाहता हो? एक प्रोड्यूसर पूछ रहा था. कुछ तुम्हारी भी कमाई हो जाएगी!"

मैंने अचकचाते हुए कहा, "ऐसा कोई डॉक्टर ध्यान तो नहीं आ रहा... वैसे किसी डॉक्टर के इण्टर्व्यू से मेरी कमाई कैसे होगी. उस इण्टर्व्यू में मेरा क्या योगदान होगा?"

एक कुटिल मुस्कान के साथ एल. एन. सर ने कहा, "भई, एक मालदार डॉक्टर का इण्टर्व्यू करवाओगे तो सारा योगदान तुम्हारा ही तो हुआ!"

मेरा घर आने ही वाला था. मुझे हेय दृष्टि से देखते हुए वह बोले, "यार यह पत्रकारिता तो तुम रहने ही दो. नौकरी ही कर लो फिर से. ज़्यादा मज़े में रहोगे."


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

उन्माद

दिल्ली की चौड़ी सड़कें सुबह और शाम के समय संकरी लगने लगती हैं. सड़कें दिखती ही नहीं. हर तरफ़ केवल ट्रैफ़िक ही ट्रैफ़िक! गाड़ियाँ और उनसे निकलता धुआँ! गाड़ियों में ड्राइवर की सीटों पर बैठे चेहरे, दिखने में अलग फिर भी एक जैसे - उदास, परेशान, तनावपूर्ण, चिन्तामग्न और शाश्वत युद्धरत चेहरे.

आजकल ट्रैफ़िक आम ट्रैफ़िक से कहीं अधिक घना है. श्रावण के कृष्ण-पक्ष में ट्रैफ़िक अधिक होता ही है. शिवरात्रि पर्व के लिए अपने इष्ट भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनके भक्त इन दिनों शिवरात्रि पर शिवलिंग का अभिषेक करने की अभिलाषा लिए अपने कन्धों पर रंग-बिरंगे काँवड़ों में गंगा-जल उठाये सड़कों पर उतर आते हैं. खूब ढोल बज रहे हैं, लाउड-स्पीकरों पर धार्मिक और फ़िल्मी सब तरह के गीत बज रहे हैं, प्रभु भोलेशंकर की झांकियाँ निकल रही हैं, जगह-जगह श्रद्धालुजन शिविर लगाये, प्रभु के भक्तों की प्रतीक्षा कर रहे हैं, फलों और भाँति-भाँति के खाद्य एवं पेय पदार्थों के साथ उनका स्वागत करने को आतुर. कान फाड़ देने वाले संगीत की धुनों पर मतवाले कांवड़िये और अन्य भक्तगण नाच रहे हैं.

मैं कार चला रहा हूँ और अपने कन्धों पर एक उद्विग्न चेहरा लिये बैठा हूँ. चौराहे पर बार-बार बत्तियों का रंग बदलते देख रहा हूँ और उस बत्ती में मुझे मेरे बॉस के चेहरे के बदलते हुए रंग दिखाई पड़ रहे हैं. वाह! क्षण-भर को मैं प्रसन्न हो जाता हूँ. मेरी कार चौराहे पर सबसे आगे खड़ी है और मेरे सामने वाली बत्ती हरी हो गयी है.

प्रसन्नचित्त मैं क्लच दबाकर गियर डालता हूँ.. अरे यह क्या? गेरुये वस्त्र धारण किये कुछ युवक मेरे सामने अपनी मोटर साइकिलें अड़ा देते हैं. एक तरफ़ से एक ट्रैक्टर से बंधी एक सजी हुई ट्रॉली आ रही है, जिसपर ढेर सारे युवक नाच-गा रहे हैं. चौराहे पर पुलिस वाले मेरी तरह असहाय मुद्रा में खड़े देख रहे हैं.

लाउडस्पीकर पर एक फ़िल्मी गाना बज रहा है..

.. उस दिन भी कुछ ऐसा ही माहौल था.. मैं 11 वर्ष पहले की एक ऐसी ही सुबह की याद में खो जाता हूँ.

... मैं सुबह के समय स्नान को जा रहा था कि फ़ोन की घण्टी बज उठी. फ़ोन पर मेरी माताजी थीं. घबराये हुए स्वर में बोलीं, "बेटा जल्दी से आ जाओ. तुम्हारे पिताजी को कुछ हो गया है. डॉक्टर को फ़ोन कर दिया है." मेरे घर से 4-5 किलोमीटर दूर मेरे छोटे भाई का घर था, जिसके साथ मेरे माता-पिता रह रहे थे, उन दिनों. भाई दौरे पर बाहर गया हुआ था. डॉक्टर को मैं तुरन्त कुरते पाजामे में ही कार उठा कर भागा. मुख्य सड़क पर आते ही मिला ट्रैफ़िक जाम. पुलिस ने काँवड़ियों की सुविधा के लिए सामान्य ट्रैफ़िक हेतु सड़क बंद कर रखी थी. मैंने पुलिस के सिपाहियों को अपने पिताजी के बारे में बता कर विनती की किन्तु उन्होंने मेरी मदद करने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी. मुझे हार कर कार मोड़नी पड़ी और दूसरे बहुत लम्बे रास्ते से होते हुए मैं भाई के घर पहुँचा. 5-10 मिनट के स्थान पर मुझे एक घण्टे से अधिक समय लग गया.

मेरे विलम्ब से पहुंचने के कारण मेरे पिताजी मुझसे रूठ कर चले गये थे, इस संसार से हमेशा के लिए! पीछे रह गया था उनका पार्थिव शरीर! वहाँ पहले से उपस्थित लोग कह रहे थे, "बड़ी पुण्यात्मा थी, जो इतना सुन्दर दिन लिया महाप्रयाण के लिए. श्रावण की शिवरात्रि और वह भी सोमवार का दिन!" एक सज्जन मुझे सांत्वना दे रहे थे, "तुम क्या कर सकते थे बेटे? धार्मिक-उन्माद है यह तो उन काँवड़ियों का!".

.. .....पसीने में लथपथ मैं अपनी तन्द्रा से बाहर आता हूँ. ट्रैक्टर-ट्रॉली ठीक मेरे सामने से गुज़र रही है. ट्रॉली पर चढ़े युवक झूम-झूमकर नाच रहे हैं. लाउडस्पीकर पर गीत बज रहा है, "...हम जग की परवाह करें क्यूँ, जग ने हमारा किया क्या? दम मारो दम..."

"धार्मिक-उन्माद", मेरे मस्तिष्क में वे शब्द गूँज रहे हैं. "उन्माद तो यह निस्सन्देह है, पर इसमें धार्मिक क्या है?" मैं स्वयं से प्रश्न कर रहा हूँ.


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

खूबचन्द जी

ठीक से कह नहीं सकता, कि यह मेरी विद्यार्जन की पिपासा थी, अपनी व्यावसायिक उन्नति की अभिलाषा अथवा अपने कॉलेज के दिनों को पुन: जीने की तमन्ना, कि मैंने नौकरी के साथ-साथ प्रबन्धन में अनुवर्ती शिक्षा के लिए सायंकालीन पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया.

देखने में बहुत कुछ कॉलेज जैसा ही था. वैसी ही भव्य इमारत, बड़े-बड़े कमरे, गलियारे, खेल का मैदान, लाइब्रेरी, कैण्टीन. कैण्टीन में चाय के प्यालों की खनक भी वैसी ही थी और पकौड़ों-समोसों की सुगन्ध भी बिलकुल वही थी.

फिर भी बहुत कुछ अलग था. शरीर वैसा ही था, किन्तु आत्मा लापता थी. लड़के-लड़कियां भी वैसे ही थे, किन्तु मानो निष्प्राण. वह चहकना, वह चीखना चिल्लाना, वह अनौपचारिकता, वह अनगढ़ खूबसूरती लापता थी. हाँ, एक अन्तर और था. टीचरों की उम्र वाले हमारे साथी छात्र-छात्राएं.

इन चेहरों में से एक चेहरा था हमारे खूबचन्द जी का. खूबचन्द जी दिखने में बड़ी उम्र के अवश्य लगते थे, किन्तु उनके सीने में जो दिल था, उसके बारे में कहा जा सकता था, दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी! बेबाक, सबके दोस्त. उम्र की सच्चाई से बेखबर, हमेशा हँसते-खिलखिलाते, बतियाते, चुहलबाज़ी करते.

खूबचन्द जी के व्यक्तित्त्व से मैं बहुत प्रभावित था. इतनी बड़ी उम्र में भी पढ़ाई का यह जज़्बा! मन ही मन नतमस्तक हो जाता मैं. उनसे मिलकर हमेशा अच्छा लगता, किन्तु जैसे-जैसे उनसे निकटता बढ़ती जा रही थी, उनका व्यक्तित्त्व कुछ रहस्यमयी सा लगने लगा था.

नौकरी और घर की जिम्मेदारियों के साथ पढ़ाई को जारी रख पाना मुझे बहुत कठिन लग रहा था. महीने में एक-आध बार ही लाइब्रेरी आ पाता था मैं. किन्तु जब भी मैं लाइब्रेरी आता, किसी भी समय, खूबचन्द जी को वहीं जुटा पाता.

आज मुश्किल से बॉस की अनुमति मिली थी कुछ पहले आने की. लाइब्रेरी में सन्नाटा था, हमेशा की तरह. चन्द लोग और ढेर सारी किताबें. शायद वह किताबों की खुशबू थी जिससे खिंचा मैं लाइब्रेरी की ओर चला जाता था. कुर्सियों और मेज़ों की कतारों के बीच चार-पाँच छात्र और छात्राएं बैठे थे. उनमें से एक थे हमारे खूबचन्द जी.

लाइब्रेरियन के साथ पुस्तकों का आदान-प्रदान करके हटा ही था कि खूबचन्दजी को साथ खड़े पाया.

अवसर मिलते ही मैंने पूछ ही लिया, "आप भी तो नौकरी करते हैं न?"

"हां!"

"पर मैं जब भी यहाँ आता हूँ, दिन में, आप यहाँ होते हैं. क्या लम्बी छुट्टियों पर हैं?"

खूबचन्द जी हँस पड़े. बोले, "छुट्टी क्यों लूंगा भाई. छुट्टियाँ तो मेरी हर साल बेकार जाती हैं."

मेरे लिए यह एक पहेली के समान था. मैंने फिर पूछा, "फिर ऑफ़िस के समय में आप यहाँ कैसे होते हैं?"

"ऑफ़िस में मेरा चश्मा ड्यूटी दे रहा है," वह मुस्कुराये.

"मतलब?"

"देखो, मेज़ पर कुछ फ़ाइलें रखीं; उनपर रखा अपना चश्मा. अब चश्मा मेज़ पर रखा है, इसका मतलब तो यही हुआ न कि मैं भी ऑफ़िस में ही हूँ, कहीं आस-पास."

"लेकिन काम भी तो होता होगा! वह कौन करेगा?" मेरा कुतूहल बढ़ता जा रहा था.

"अब जा रहा हूँ न काम निपटाने. दो घण्टे सुबह भी लगाकर आया था. अब दिन भर ऑफ़िस में बैठकर दूसरों का समय खराब करने से तो अच्छा है न, यहाँ आ जाओ!" अजीब तर्क था. मैं उनके आगे बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था.

वह बोले, "अभी ऑफ़िस जाऊंगा, दूसरे विभागों को हड़काऊंगा, सबको काम पर लगाऊंगा, ऑफ़िस बन्द होने के समय के बाद बॉस के कमरे में जाऊंगा. उन्हें भी तो पता चलना चाहिए न खूबचन्द जी कितनी देर तक परिश्रम करते हैं!"

मैं हतप्रभ था, उनकी बातों से.

"20 सालों के अनुभव का निचोड़ दे रहा हूँ, महानुभाव! वह भी मुफ़्त में! सोच क्या रहे हो?"

मैं सोच रहा था, दो घंटों बाद क्लास में प्राचार्य आएंगे. कितना अलग होगा उनका शिक्षण खूबचन्द जी के इस उपदेश से!

"चलता हूँ दोस्त. क्लास शुरू होने से पहले पहुँच जाऊंगा," खूबचंद जी चलने की मुद्रा में बोले, "चलते-चलते ऑफ़िस में काम करने की टैकनीक दिये जाता हूँ:

काम करो न करो, काम की फ़िक्र करो.
फ़िक्र करो न करो, फ़िक्र का ज़िक्र करो!"

किंकर्तव्यविमूढ़, मैं मन ही मन ढूंढ रहा था अपने ऑफ़िस के खूबचन्दों को!


नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

बॉबी

भीड़ भरी सड़क पर किसी ने मुझे ज़ोर से पुकारा और फिर कन्धे पर हाथ रख दिया. पीछे मुड़कर देखा तो आंखों पर सहज विश्वास ही नहीं हुआ. "बॉबी?" मेरे मुख से अनायास निकल गया. वर्षों बाद भी वही चेहरा, वही मुस्कुराहट!

हम दोनों हाथ पकड़कर सड़क के किनारे हो लिए. इतनी सी देर में मेरे सामने बचपन की ढेर सारी यादें मानो चलचित्र की भांति मेरे सामने से गुज़र गयीं.

बॉबी मौज-मस्ती करने वाला, हमेशा प्रसन्नचित्त, प्रफुल्लित रहने वाला एक लड़का था. मुझसे दो-तीन वर्ष बड़ा था किन्तु फ़ेल हो-होकर वह मेरी कक्षा में आ गया था. हमारी गली के दूसरे मुहाने पर रहता था. पूरी गली का चहेता. सबके काम आने वाला. किन्तु घर वालों की दृष्टि में आवारागर्द, निखट्टू. वैसे था वह कुशाग्र बुद्धि का स्वामी. पढ़ता भी बहुत, किन्तु स्कूल पाठ्यक्रम की पुस्तकों से वह कोसों दूर रहता. हर समय उसके हाथ में कोई उपन्यास होता. चालू किस्म का जासूसी या रोमाण्टिक उपन्यास. सड़क पर चलते-फिरते भी वह उपन्यास पढ़ रहा होता.

एक बार वह दिल्ली मिल्क स्कीम का दूध लेने जा रहा था. उन दिनों डी.एम.एस. का दूध काँच की बोतलों में मिला करता था. खाली बोतलों से भरा थैला उसके कन्धे पर और हाथ में उपन्यास. सामने से एक स्कूटर सवार से टक्कर हुई, थैला नीचे गिर गया, और काँच की बोतलीं टूट गयीं. महाशय ने थैला उठाया, उपन्यास चश्मे के सामने किया और चल दिये दूध लेने. डिपो पर जाकर देखा कि बोतलें टूटी हुई थीं. घर में आने वाली शामत से डर कर हेराफ़ेरी के सहारे टूटी बोतलें लाइन में रखी किसी और की बोतलों से बदलीं, दूध लिया और उपन्यास पढ़ते हुए जनाब घर वापस!

घर में बड़े भाई ने पूछा नयी बोतलों के लिए पैसे कहाँ से लाये? महाशय चकराये, कि भाई को कैसे पता चला बोतलों के टूटने के प्रकरण के बारे में! झूठ बोलने का प्रयास किया तो पता चला, जनाब जिस स्कूटर-सवार से टकराये थे, वह कोई और नहीं स्वयं उनका बड़ा भाई था. उपन्यास पढ़ने की तल्लीनता में उन्हें न तो यह पता चला कि वह किससे टकराये थे और न ही अपनी टांग में लगी चोट का कोई अहसास हुआ!

कुछ अरसे बाद अचानक बॉबी के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया. उसके पिताजी का देहान्त हो गया. बड़े भाई ने एक बार डाँट-डपट कर घर छोड़ने को कह दिया. महाशय ने घर छोड़ दिया. यहाँ-वहाँ नौकरी की, किसी सहकर्मी से विवाह करना चाहा तो घर से दूरियां और बढ़ गयीं. अन्तत: उसने अपनी प्रेमिका से विवाह कर ही लिया और बाद में पता चला, पहले उसने शहर छोड़ा और बाद में देश.

आज दशकों बाद दिखा वह. विदेश से छुट्टियों पर स्वदेश आया था अपनी भतीजी की शादी के लिए. सुनकर अच्छा लगा कि उसके परिवार के साथ उसका मन-मुटाव समाप्त हो गया था. पास ही उसके भाई का घर था, जहाँ वह ठहरा था. उसकी पत्नी के दर्शन करने और उसके भाई को बधाई देने के लिए मैं उसके साथ चला गया.

शादी एक दिन पहले ही सम्पन्न हुई थी. अगले दिन मेरे मित्र का परिवार वापस विदेश जा रहा था. पूरे परिवार के साथ मेरी अच्छी गपशप हुई. बचपन की कई यादें ताज़ा हो गयीं. वर्षों पहले की कड़वाहट कहीं नहीं दिख रही थी.

थोड़ी देर के लिए मेरा मित्र अपनी पत्नी के साथ बाहर गया. अब मेरे साथ बॉबी के बड़े भाई और उनकी पत्नी थे. उनके भाई जैसे इस अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे. बोले, "जानते हो इस निखट्टू बॉबी ने क्या किया.... मेरे बेटी की शादी उसने की है. हम लोग तो लगभग सड़क पर आ गये थे. मेरा धन्धा चौपट हो गया. पुराना मकान बिक गया. वह मकान पुश्तैनी था. फिर भी कभी हक नहीं जमाया बॉबी ने उसपर. उलटे यह छत भी, जहाँ हम अपनी लाज बचाये बैठे हैं, बॉबी की ही दी हुई है. मेरी बेटी की शादी के खर्च की एक-एक पाई बॉबी ने दी है.

तुम्हें याद है, बॉबी का उपन्यास पढ़ने के लिए दीवानापन. घर छोड़ने के बाद उसने उपन्यास पढ़ना तो बन्द कर दिया मगर अपना दीवानापन नहीं छोड़ा. उसी दीवानगी और लगन से उसने जीवन में मेहनत की और आज वह इतना बड़ा आदमी बन गया है." बड़े भाई का गला भर आया.

"हमारा रोम-रोम ऋणी है, बॉबी और उसकी पत्नी का," अश्रुपूरित नेत्रों के साथ बड़ी भाभी बोलीं.


नज़दीक से
-विक्रम शर्मा

बचपन का मित्र

वर्षों बाद मिलने वाला था मैं बचपन के अपने प्रिय मित्र को. कितना विचित्र है न, जब कोई हमारे पास होता है, तब हम उसके होने का मूल्यांकन नहीं कर पाते. बिछड़ने के बाद बोध होता है उसके न होने के महत्त्व का.

उसके बारे में बहुत कुछ जानने की उत्कंठा थी. कुछ भी तो नहीं मालूम था मुझे उसके बारे में, सिवाय इसके कि उसकी शादी हो गयी थी, उसके तीन बच्चे थे और वह कपड़ों का व्यवसाय करता था. मन में एक सिहरन सी थी. कैसा दिखता होगा वह! क्या बातें करेंगे! कैसी मस्ती होगी जब मिलेंगे बचपन के दो सखा!

बचपन में उसका अधिकांश समय हमारे घर ही गुज़रता. घर में सबका मित्र बन गया था वह. मेरे पिताजी को तो वह मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक मानता था. अपने पिताजी से वह सनातन रुष्ट था. "अरे बापू को तो तिजोरी भरने से फ़ुरसत नहीं है", "बापू को पता चल गया तो खून पी जाएगा", "बापू तो बाबा आदम के ज़माने की आइटम है", "बापू का बस चले तो वह दुनिया को दो हिस्सों में बाँट दे, एक में लड़के रहेंगे और दूसरे में लड़कियाँ. ताकि दोनों कभी एक-दूसरे को देख भी न सकें". समझाने पर बोलता, "एक तेरे पिताजी हैं, कितने फ़्रैंडली, एकदम दोस्तों जैसे. मेरा खूसट बापू तो कभी सीधे-मुँह बात ही नहीं करता", "बापू का भोंपू तो हर समय बजता ही रहता है. हर वक्त लैक्चर ही लैक्चर."

मेरे पिताजी के सामने वह नतमस्तक रहता. उनके उपदेशों और डांट को भी वह चुपचाप सुनता. मैं जब बाद में उसे इस बात पर चिढ़ाता तो वह कहता, "अंकल की बात और है."

बहुत ज़िन्दादिल इनसान था वह. गोरा रंग. हृष्ट-पुष्ट. हर समय मज़ाक. हर बात का चुटकला बना देता वह. बुरा मानना तो उसने सीखा ही नहीं था. सबके काम में हाथ बँटाता. माताजी भी उसे अपने बेटे जैसा ही मानती थीं. पिताजी उसकी बनायी चाय बहुत पसंद करते थे, यद्यपि वह स्वयं चाय कभी नहीं पीता था.

आज मैं दशकों बाद उससे मिलने जा रहा था.

घर का बाहर वाला दरवाज़ा खुला था. मकान वही था, पुश्तैनी, किन्तु उसका नवीकरण हो चुका था. घर में नौकर था, जो मुझे भीतर ले गया. मुझे उसके स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता हुई. अवश्य ही कुछ गड़बड़ है, वरना वह तो भागकर बाहर आता.

किन्तु मेरा डर अनावश्यक था. वह सही-सलामत था और एक फ़ोन पर व्यस्त था. किसी से पैसे की वसूली के लिए दबाव बना रहा था. फ़ोन रखते ही बोला, "यार आजकल किसी से पैसे निकलवाना टेढ़ी खीर हो गया है. एक तो धन्धे में वैसे ही दम नहीं रहा, ऊपर से ये लोग पैसे मारकर बैठ जाते हैं. और तू सुना, तू तो नौकरी करता है न. यार नौकरी वालों के मज़े हैं. पहली तारीख को नोट खरे. न कोई टैंशन न कोई लफड़ा... अरे छोटू, चाय तो ला भई."

मैं हतप्रभ था. जिस गर्मजोशी की उम्मीद मैं कर रहा था, वह दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी.

मेरे मित्र का रंग काला पड़ गया था. गाल पिचक गये थे. खिचड़ी बाल. आंखों पर चश्मा. एकदम अपने पिता की तरह दिखता था अब वह.

छोटू चाय ले आया. मैंने पूछा, "तुमने चाय पीना शुरू कर दिया?" बोला, "यार, चाय के बिना कहाँ गुज़ारा है? वैसे भी असली दूध मिलता कहाँ है? यूरिया वाले दूध से तो चाय ही भली."

"भाभीजी दिखाई नहीं पड़ रहीं?" मैंने पूछा.

"तुम्हारी भाभी तो यार, बीमार रहती है. महीने में 25 दिन."

"क्या हुआ है उन्हें?" मैंने चिन्ता व्यक्त की.

"कुछ खास नहीं, बस बीमार रहने की आदत सी पड़ गयी है. अब परिवार की चिन्ता में यह सब तो लगा ही रहता है."

"चिन्ता? कैसी?"

"अब एक हो तो बताऊँ. आजकल के लड़के-लड़कियाँ. तुम तो जानते ही होगे. कहाँ जा रही है यह दुनिया? संस्कार तो रहे नहीं. मनमानी करते हैं. समझते कुछ हैं नहीं. घर के बड़े तो जैसे इनके दुश्मन हैं.

अब तुमसे क्या छुपाऊँ! बड़ी बेटी ने विधर्मी से शादी कर ली. हमने उससे नाता तोड़ लिया. लेकिन तुम्हारी भाभी है कि दिल को लगा बैठी उस कुलच्छनी के कुकर्म को.

एक दर्द जैसे कम था. दूसरी को मॉडल बनना है. ओछे कपड़े पहनकर डोलती फिरती है पूरे शहर में. हमारे समाज में जहाँ लड़कियाँ बिना चुनरी के भी घर से बाहर कदम नहीं रखती थीं वहाँ इस नयी पीढ़ी को किन्हीं मूल्यों की परवाह ही नहीं. उलटे हमें ही समझाते हैं कि समाज बदल गया है; कि हम पिछड़े हैं.

अब हम कैसे समझाएं उन्हें. उन्होंने तो अपने लिए एक नया समाज गढ़ लिया है. हम कहाँ से लाएँ नया समाज?"

मैं अपने मित्र के पीछे दीवार पर लगी उसके पिताजी की तस्वीर को देख रहा था. मेरा मित्र अपने पिताजी जैसा दिख ही नहीं रहा था, उन जैसा बोल भी रहा था.

उसने मेरी नज़र को पढ़ लिया.

"बापू की बहुत याद आती है, यार," कहकर वह फफक-फफक कर रो पड़ा.


नज़दीक से
-विक्रम शर्मा

शीत लहर

अखबार की सुर्खियाँ थीं, "शीत लहर से 47 मरे." मुझे जनगणना की अवधारणा भी कुछ अजीब लगती है. मनुष्य कोई गिनने की वस्तु है? गिनती तो मवेशियों की होती है. मनुष्यों की कैसी गिनती?

दरअसल मनुष्यों की किसे परवाह है? गिनती तो हिन्दू मुसलमानों की होती है, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की होती है, वोट बैंक की होती है. अब अन्य पिछड़ी जातियों की भी हो रही है. मानो कोई लक्ष्य है, जिसके प्राप्त होने की समीक्षा की जा रही हो!

शीत लहर से कितने मरे, लू से कितने मरे, बाढ़ से कितने मरे, सूखे से कितने मरे.. क्या इसके भी लक्ष्य होते हैं, जिनकी ऋतु के हिसाब से समीक्षा की जाती है? ऐसा ही होता होगा, वरना अखबार में ये खबरें केवल आंकड़ों की तरह ही छपती हैं, इनका कोई असर तो होता दिखता नहीं.

श्रीमती जी इस खबर को पढ़कर विचलित हो गयीं. बोलीं, सरकार तो कुछ कर नहीं रही. उलटे रैन-बसेरे तोड़े जा रहे हैं. समाज को ही आगे आना होगा. हम ही इस दिशा में पहल करते हैं. वैसे भी इतने गरम कपड़े पड़े हैं. भला हो मॉल्स में लगने वाली इन सेल्स का, घर में कपड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. चलो अलमारियों को कुछ हलका करें. कुछ भलाई का काम करें.

हमने फ़ालतू गरम कपड़ों की दो पोटलियाँ बनायीं और कार में रख लीं. सोचा, हर लाल बत्ती पर भिखारी मिल जाते हैं, काम पर जाते या वापस आते समय ज़रूरतमंदों में बाँट देंगे.

घर से कार्यालय तक हमें किसी भी लाल बत्ती पर कोई भिखारी नहीं मिला. न ही शाम को घर आते वक्त. सर्दियों में दिन जल्दी ढल जाता है. "इतनी सर्दी में ज़रूरतमंद भिखारी कहीं आग ताप रहे होंगे. चौराहों पर थोड़े ही मिलेंगे," श्रीमती जी ने बोलीं.

दो दिन तक ऐसा ही चलता रहा. पोटलियाँ कार में रखी रहीं. हमें कोई ज़रूरतमंद नहीं दिखा. तीसरे दिन छुट्टी थी. हम दिन में किसी काम से बाहर निकले. एक चौराहे पर हमें एक महिला और दो बच्चे दिखे. एक छोटा बच्चा पैदल चल रहा था, महिला की उंगली पकड़कर और दूसरा उसकी गोद में था. दोनों बच्चे निर्वस्त्र थे. देखकर दुख भी हुआ और खुशी भी! दुख उन बच्चों की दुर्दशा को देखकर और खुशी इस बात की कि शायद हमें अपना गंतव्य मिल गया था. किन्तु बहते ट्रैफ़िक में हम रुक नहीं पाये और वह स्त्री उन बच्चों के साथ हमारी विपरीत दिशा में बढ़ती चली गयी. लाल बत्ती पर हम रुके.

जाना पहचाना चौराहा था. हमें अकसर किताबें बेचने वाला एक नवयुवक दिखा. श्रीमती जी बोलीं, यह भी तो गरीब है, इसे भी दे देते हैं, कोई स्वैटर. किन्तु उस नवयुवक ने साफ़ मना कर दिया. बोला, "हम मेहनत करके कमाते हैं. नसीब में होगा तो भगवान अपने आप दे देगा." गोद में रखी गरम कपड़ों की पोटली मुझे मानो बरफ़ की सिल्ली सी शीत लगने लगी. उसके लिए मन श्रद्धा से भर उठा.

उन निर्वस्त्र बच्चों की तरफ़ इशारा करके मैंने कहा, "चलो उन बच्चों को दे देना. उनके लिए ले कर रख लो." उसने हँसकर उत्तर दिया, "अरे वह औरत तो नौटंकी है! आपसे कपड़े ले भी लेगी तो भी वो बच्चे नंगे ही रहेंगे. बेच देगी वह कपड़े. बच्चों को कपड़े पहना दिए तो उसे भीख कौन देगा?"

पता नहीं मुझे पुण्य कमाने की जल्दी थी अथवा पोटलियों से छुटकारा पाने की. मैंने कहा, "कोई बात नहीं, बेचेगी भी तो ये पुराने कपड़े कौन खरीदेगा. कोई ज़रूरतमंद ही न?" किन्तु मेरी बात पूरी होने से पहले वह नवयुवक दूसरी तरफ़ भाग गया. हमारी बत्ती हरी हो गयी थी, और ग्राहक लाल बत्ती पर मिलते हैं!

महान बनना इतना आसान नहीं होता. हमें लाचार होकर वहाँ जाना पड़ा जहाँ ज़रूरतमंद मिलने की संभावना प्रबल थी. मन्दिर के पीछे की झुग्गियों में. झुग्गियों के सामने कार का रुकना था कि झुग्गियों में से अनेक हाथ सशरीर बाहर निकल पड़े. पलक झपकते ही हमारी पोटलियों का खज़ाना कम पड़ गया. एक वृद्ध युगल हमें आशीर्वाद देते थक नहीं रहे थे. झुर्रियों वाली उनकी गालों पर अश्रुप्रवाह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. सच्चे मन और भारी कदमों के साथ मैं कार से बाहर आया और बुज़ुर्गों को प्रणाम कर उनके आशीर्वाद का पात्र बना.

घर लौटते समय मैं विचार कर रहा था, कितने कृतघ्न हैं हम अपनों के प्रति. हमारे लिए वे कितना भी कर लें हम आभार नहीं मानते. और ये पराये लोग पुराने, उतरे हुए कपड़ों के लिए भी कितनी दुआएं दे रहे हैं!

मन में संतोष था. हमें लग रहा था जैसे किसी यज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न हुई हो.

घर से एक मोड़ पहले सड़क किनारे कुछ लोग इकट्ठे थे. पूछा तो पता चला, शीत लहर की चपेट में से एक और आ गया!

अभी तो यज्ञ प्रारम्भ भी नहीं हुआ, हमें समझ आया.

नज़दीक से
-विक्रम शर्मा

जाहिल माँ

डॉक्टर के आने में विलम्ब होता जा रहा था और रोगियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी.

सबसे पहले आये हुए रोगियों की सहनशक्ति जवाब देने लगी थी. चार-पाँच वर्ष के एक बालक की बालसुलभ चंचलता उससे अजीब-अजीब हरकतें करवा रही थी. माँ की गोद में वह सिमट नहीं रहा था. कभी वह प्रतीक्षारत व्यक्तियों के लिए रखी पत्रिकाओं को उलट-पुलट देता तो कभी दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाता. उसकी माँ उसके पीछे-पीछे दीवानों की भाँति भागती फिर रही थी. अचानक उस बच्चे के हाथ में एक इस्तेमाल किया जा चुका सीरिंज देख कर उसकी माँ चीख उठी. झपट कर उसने बच्चे के हाथ से वह सीरिंज छीना और एक थप्पड़ उसकी गाल पर रसीद कर दिया. बच्चा ज़ोर से रो पड़ा.

पास बैठे एक युवा युगल ने एक-दूसरे से बातचीत शुरू कर दी. युगल छोटी शॉर्ट्स और बनियान-नुमा टी-शर्ट्स पहने था और अंग्रेज़ी में बातचीत कर रहा था. युवक कह रहा था, ".. जल्द ही कानून आने वाला है. बच्चों पर ऐसी ज़्यादती करने वाले माता-पिता को जेल की सैर करनी पड़ेगी."

उनके पास बैठे एक सज्जन बोले, "बेड़ा गर्क कर दो देश का. बरबाद कर दो औलाद को ऐसे कानूनों से."

युवती ने उत्तर दिया, "पश्चिमी देशों को देखा है? वहाँ ऐसे कानून पहले से हैं, और कितनी तरक्की की है उन देशों ने!"

एक और सज्जन बोले, "क्या तरक्की की है? रिश्ते खत्म हो गये हैं वहाँ. कोई मूल्य नहीं हैं वहाँ जीवन के. इसे तरक्की कहते हो?"

एक बुज़ुर्ग बोले, "अब तो भारत में भी अमरीका बनेगा. पूरी आज़ादी रहेगी. लड़के-लड़के और लड़की-लड़की में शादियाँ होंगी. एक गोत्र में शादियाँ होंगी. माँ-बाप कुछ बोलेंगे तो राक्षस कहलाएंगे. जेल होगी उन्हें!"

एक अधेड़ व्यक्ति ने उन बुज़ुर्ग को शान्त कराते हुए कहा, "आप अमेरिका को गाली मत दीजिए. अमेरिका वाले तो अब इस आज़ादी के खोखलेपन से तंग आ चुके हैं. वे तो अब भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं. भारतीय मूल्यों की कद्र करते हैं वे. कर लेने दीजिए इन मॉडर्न लोगों को भी कुछ बरबादी. जब समझ आ जाएगी, तो संभल जाएंगे!"

शॉर्ट्स वाली युवती झल्ला कर बोली, "कुछ नहीं हो सकता इन पिछडों का. ये जाहिल के जाहिल ही रहेंगे."

रिसेप्शनिस्ट ने एक रोगी का नाम पुकारा. डॉक्टर साहिब आ गये थे.

बच्चा अपनी जाहिल माँ के सीने से लगकर इस गरमा-गरम बहस से बेखबर चैन की नींद सो रहा था.

नज़दीक से
-विक्रम शर्मा

मॉडर्न इण्डिया की एक सड़क

दिल्ली. सुबह का समय, जब काम पर जाने के लिए निकले लोग मिलकर ट्रैफ़िक नाम की वस्तु को जन्म देते हैं और फिर उसी ट्रैफ़िक को जम कर कोसते हैं. मैं स्वयं ड्राइव कर रहा हूँ और एक चौराहे पर बार बार लाल दिख रही बत्ती पर फँसा हुआ हूँ.

कोहरे भरी सुबह है. मेरी कार का हीटर चल रहा है और मैं एफ़. एम. पर चल रहे संगीत का रसास्वादन कर रहा हूँ.

ढक.. ढक.. ढक.. ढक.. मुझे कुछ आवाज़ें सुनाई दे रही हैं. मैं चारों ओर देखता हूँ. मज़दूर सा दिखने वाला एक आदमी. धुँधले शीशे में से ऐसा लगता है जैसे वह किसी कार का शीशा साफ़ कर रहा है. मैं मुड़ कर सिग्नल की तरफ़ देखता हूँ हरी बत्ती की उम्मीद के साथ. अभी भी लाल बत्ती है. ढक.. ढक.. ढक.. ढक.. की ध्वनि फिर आ रही है.


वह आदमी शीशा साफ़ कर रहा है? फिर ये आवाज़ें कैसी? दिमाग की बत्ती जलती है! मैं मुड़कर आवाज़ की दिशा में देखता हूँ. उस आदमी के हाथ में एक पत्थर है, बड़ा सा... नहीं. वह शीशा साफ़ नहीं कर रहा. वह तो शीशे तोड़ रहा है.. पत्थर से.. एक युवती ड्राइवर की सीट पर बैठी है - हक्की- बक्की!

वह व्यक्ति संतुष्टि एवं आत्मविश्वास से भरपूर भाव-भंगिमा के साथ मुड़ता है और आराम से ट्रैफ़िक में खो जाता है.

युवती चीखती-चिल्लाती नहीं. वह भी आश्वस्त कदमों के साथ कार से बाहर निकलती है और अपने मोबाइल फ़ोन पर कोई नम्बर डायल करती है. लोग, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, उसकी तरफ़ बिना किसी भाव के देख रहे हैं.

"शायद इस लड़की ने उस आदमी को कार से टक्कर मारी होगी और कार भगाकर ले गयी होगी," मेरी पत्नी, जो मेरे साथ कार में बैठी है, अपनी राय बताती है. रात ही हमने मूवी 'ऐक्सीडेण्ट ऑन ए हिल रोड' देखी थी जिसकी याद शायद पत्नी के दिमाग में ताज़ा थी.


बत्ती हरी हो जाती है. पीछे से पों पों कर हॉर्न बजने शुरू हो जाते हैं. ट्रैफ़िक के साथ मैं भी कार चला रहा हूँ, यह सोचते हुए कि अभी-अभी जो मैंने देखा, वह सत्य था अथवा मिथ्या? क्या यह उसी रोड-रेज (सड़क वाले गुस्से) का नमूना था? क्या यह उसी तरह की एक बासी खबर का अगला चरण था जिसमें अमीरों की बिगड़ैल औलाद आम आदमी की जान की परवाह नहीं करतीं? क्या यह पिछड़े और शोषित वर्ग की चेतावनी थी कि अब वह और बर्दाश्त नहीं करेंगे और ईंट का जवाब पत्थर से देंगे? लोगों से भरी सड़क पर एक युवती की कार पर सरे-आम आक्रमण और सबका मूक दर्शक बने देखते रहना क्या आम आदमी की समाज के प्रति अनासक्ति का नमूना था? या ये सब?

क्या यही मॉडर्न इण्डिया की असली तस्वीर है?

नज़दीक से
-विक्रम शर्मा