Monday, July 31, 2023

धरमपाल जी

 - धरमपाल जी -


घर पहुंचा ही था कि घर की घंटी बजी. सामने धरमपाल जी खड़े थे. सफ़ेद धोती कुर्ता, सर पर एक मैली सी सफ़ेद चादर बांध कर लपेटा गया साफ़ा और हाथ में एक पोटली, जिसमें शायद एक-दो जोड़ी कपड़े थे उनके. ऐसे ही दिखते थे वह, जब मैं पिछली बार मिला था उनसे. धोती-कुर्ता नया था, परन्तु सर पर बांधा हुआ कपड़ा वही था, सफ़ेद किंतु मैला.

कुछ दिन पहले फ़ोन आया था उनका. एक-दूसरे का कुशल क्षेम जानने के बाद उन्होंने मेरा पता पूछा. उन्हें लिखना पढ़ना तो आता नहीं था. उन्होंने अपने बेटे को फ़ोन दिया और मैंने उसे अपना पता और कैसे पहुंचना है, आदि की जानकारी नोट करा दी. मैंने पूछा कि कब आ रहे हैं तो बोले, "जल्दी ही आऊंगा जी." मैंने उनसे कहा कि आने से पहले फ़ोन कर दें ताकि मैं उन्हें स्टेशन से लेने की व्यवस्था कर दूं. परन्तु धरमपाल जी तो स्वयंमेव अकेले ही पहुंच गए थे, बिना बताए.

धरमपाल जी से मेरी भेंट बैंक की शाखा में हुई थी जब मेरी तैनाती एक ग्रामीण शाखा में हुई थी.

दूर-दूर के गांवों से ग्रामीण आते थे यहां. धरमपाल जी भी एक दूर के गांव से ही आते थे. उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर तब आकृष्ट किया था, जब बैंक शाखा में कुछ ग्रामीण खाताधारक काउंटर पर बैठे एक कर्मचारी से अनावश्यक बहस कर रहे थे और उस कर्मचारी की सुन ही नहीं रहे थे. शोर सुनकर मैं उस काउंटर की ओर बढ़ा, परन्तु मेरे वहां पहुंचने से पहले ही धरमपाल जी प्रकट हुए और मोर्चा संभाल लिया. उन्होंने बहुत परिपक्वता के साथ उन लोगों को समझाया और मामला शांत हो गया. मैं दूर खड़ा चुपचाप उनसे सीख रहा था कि ग्रामीण ग्राहकों से कैसे व्यवहार करना चाहिए. आखिर, मेरा तो यह पहला अवसर था, ग्रामीण अंचल में काम करने का. मैं उनसे बहुत प्रभावित था और उन्हें अपने केबिन में ले गया.

धरमपाल जी से धीरे धीरे कुछ अधिक ही लगाव हो गया. वह एक निर्धन किंतु सुसंस्कृत ग्रामीण थे. कभी-कभी वह बिना काम के केवल मुझसे मिलने के लिए ही आ जाया करते. यह अलग ही प्रकार की #घुमक्कड़ी थी. पूछने पर कहते कि खेतों में काम तो भोर के समय ही होता है, उसके बाद तो किसान अपना दिन 'घेर' में ठाली (बिना प्रयोजन के) बैठकर ही गुज़ारते हैं. वही बातें दिन प्रतिदिन दोहराई जाती हैं. उससे अच्छा वह इधर आ जाते हैं जहां चार पढ़े लिखे लोगों से भेंट हो जाती है.

पता चला, वह पांच-छह किलोमीटर पैदल चल कर आते थे, गांवों की पगडंडियों से होते हुए. अधिक पूछने पर उन्होंने बताया कि गांव से सवारी बुग्गियां भी चलती हैं जो गांव की दूसरी ओर सड़क पर छोड़ती हैं और वहां से बस भी मिलती है. परन्तु वह बस के स्थान पर पैदल आना अधिक पसन्द करते थे. कहते, "बस का रास्ता बहुत लंबा पड़ता है, और उसमें भीड़ भी बहुत होती है."

जब मेरा स्थानांतरण वहां से हो गया तो भी वह मुझसे संपर्क में रहे, फ़ोन पर. आज वह सशरीर मेरे सामने खड़े थे. बोले, "आना तो बड़े बेटे के साथ था, मगर चलने के समय पर वह बिट्टर गया (उसने मना कर दिया) तो मैं अकेले ही चला आया, आपके पते का कागज लेकर. ट्रेन से उतर कर, वह कागज़ हाथ में लेकर पूछते-पूछते पैदल ही वह चले आए थे मेरे घर तक. परिवार में हम सब हैरान थे. इतने किलोमीटर शहर में पैदल? कोई आठ-दस किलोमीटर तो रहा होगा रास्ता!

कुछ दिन वह रहे हमारे यहां. वापस स्टेशन पर छोड़ने के लिए मैंने अपनी कार में उन्हें बिठाया. न नुकुर करके वह बैठ तो गए परन्तु पांच ही मिनट में वह मुझे उतारने के लिए दबाव डालने लगे, "मुझे धुआं चढ़ रहा है जी." ए. सी. कार में धुआं? मगर क्या करता, कार रोकनी पड़ी. ऑटो, बस के विकल्पों से भी उन्होंने इनकार कर दिया. बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु वह टस से मस नहीं हुए. "पैदल ही जाऊंगा जी!" और वह पैदल ही गए.

जो शहरी लोग दो सौ मीटर दूर सब्ज़ी लेने भी बिना वाहन के नहीं जाते, वे कैसे समझेंगे इस #पैदल_घुमक्कड़ी
के रस को!

Thursday, July 27, 2023

- देवदूत -

सुगम और सुखद अनुभव कम ही स्मरण रहते हैं. चुनौतियां ही स्मृतियों को सुखद बनाती हैं और स्मरणीय भी.


यह बात तब की है जब एक सरकारी बैंक में मेरी नौकरी का पहला वर्ष था. बैंक में पहला वर्ष ट्रेनिंग का होता था जिसमें विभिन्न शहरों की शाखाओं में भिन्न भिन्न प्रकार के कार्य करने और सीखने के वास्ते जाना होता था. पहले वर्ष में वर्षपर्यन्त केवल 12 आकस्मिक छुट्टियां मिलती थीं. एक भी छुट्टी अधिक लेने से न केवल तनख्वाह कटती थी बल्कि साथ ही जीवन भर के लिए अपने ग्रुप की सीनियरिटी भी जाती रहती थी.

मैं इससे पहले स्काउटिंग के कैंप आदि में तो जाता रहता था, परन्तु इतने लंबे समय के लिए घर से बाहर रहने का मेरा यह पहला अनुभव था. पहली पोस्टिंग दिल्ली में थी, दूसरी चेन्नई में, फिर दिल्ली, फिर चेन्नई और वहां से सीधे मुंबई. चेन्नई में रहते हुए रविवार या कोई राजपत्रिक अवकाश के साथ जोड़कर छुट्टियां लेकर दक्षिण भारत के अनेक मुख्य दर्शनीय एवं तीर्थ स्थान देख लिए. स्वाभाविक है, घर की बहुत याद आ रही थी. दीवाली के अवसर पर बचे-खुचे आकस्मिक अवकाश दीपावली अवकाश के साथ जोड़कर घर आए, परिवार के साथ मिलकर दीवाली मनाई. आने-जाने की ट्रेन रिजर्वेशन पहले से करा रखी थी मैंने.

जब जाने का समय आया तो बचपन के एक मित्र ने मेरे साथ मुम्बई चलने का कार्यक्रम बना लिया. वह एक व्यावसायिक परिवार से था और उसने कभी दिल्ली के बाहर अकेले कदम रखा ही नहीं था.

मैंने अपने लिए किसी फटीचर ट्रेन में रिज़र्वेशन करवा रखा था क्योंकि किसी सुपरफास्ट ट्रेन में बर्थ उपलब्ध नहीं थी. अब मित्र की रिज़र्वेशन कैसे मिलती? मित्र के पिताजी दिल्ली में पार्षद भी थे. उनकी सिफ़ारिश से उनके क्षेत्र के कई लोग वीआईपी कोटे का लाभ उठाते रहते थे. उनके अपने पुत्र के लिए क्या समस्या थी. अपने पुत्र को वह अकेले भेजना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने मेरा रिज़र्वेशन रद्द करवा दिया और एक सुपरफास्ट ट्रेन में हम दोनों की बर्थ्स वेटिंग में बुक करवा दीं और वीआईपी कोटे के लिए औपचारिकताएं कर दीं.

हमें स्टेशन तक छोड़ने मेरे मित्र के दो बड़े भाई आए थे. स्टेशन पहुंचे तो चार्ट में हम दोनों के नाम नहीं थे. यह देख मुझे तो काटो तो खून नहीं. मित्र के भाई बोले, "कोई बात नहीं, कल की बुकिंग करवा देते हैं. इस बार प्रधानमंत्री के कोटे से रिज़र्वेशन कन्फर्म करवा देंगे.

बहुत मुश्किल से उन्हें समझाया कि इस ट्रेन से जाने के अलावा मेरे पास कोई उपाय नहीं था क्योंकि मैं वर्ष की सभी 12 छुट्टियां ले चुका था एवं अगले दिन सुबह दस बजे से पहले यदि मैं बैंक नहीं पहुंचा तो इतने परिश्रम के बाद
प्रतियोगी परीक्षा में प्राप्त सीनियरिटी जाती रहेगी, मेरा करियर खराब हो जाएगा. मैंने उनसे कहा कि वे मेरे मित्र को अगले दिन भेज दें, मैं इसी ट्रेन से निकलूंगा चाहे जो हो जाए.

मित्र को यह स्वीकार नहीं था. ट्रेन चलने में अभी बहुत समय था और मित्र के भाई किसी जुगाड़ में लग गए. प्लेटफॉर्म पर ही एजेंट घूम रहे थे. उनमें मुख्य एजेंट था बॉबी. बाकी सब एजेंट भी उसी के लिए काम कर रहे थे. सबका यही कहना था की 'बॉबी साहिब की बहुत चलती थी रेलवे में.

'बॉबी साहिब' से बात की गई. उन्होंने कहा कि भाग कर टिकट काउंटर से फर्स्ट क्लास की दो टिकट्स ले आओ, बाकी मैं करवा दूंगा. जितने की टिकट्स आनी थी, उससे अधिक का 'सेवा शुल्क' मांगा उसने. भावतोल करने पर वह कहता 'फिक्स्ड रेट' और अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेता. प्लेटफॉर्म पर हम जैसों की बहुत भीड़ थी.

मुझसे पूछे बिना मेरे मित्र के भाईयों ने इस डील को स्वीकार कर लिया. अपने एक आदमी को बुलाकर बॉबी ने हमें उसे टिकट के मूल्य जितनी राशि देने को कहा. वह व्यक्ति पैसे लेकर चल दिया. "पता नहीं, वह व्यक्ति वापस आता भी है नहीं," यह सोचकर मैं उसके पीछे बदहवास भागा. टिकट काउंटर पर बहुत भीड़ थी. उधर ट्रेन का टाइम हो रहा था. मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं. काफ़ी देर बाद टिकट्स मिलीं उसे. मेरे मांगने पर उसने दो टूक उत्तर दिया कि टिकट्स तो बॉबी साहिब ही देंगे आपको.

प्लेटफॉर्म पर पहुंचे तो ट्रेन का टाइम हो गया था. कहीं ट्रेन चल न पड़े, यह सोचकर मेरा दिल धौंकनी की तरह चल रहा था. अपना सेवा शुल्क लेकर बॉबी ने हमें एक कोच नंबर और बर्थ्स नंबर बताए और बोला, "जल्दी सामान अंदर रखो, ट्रेन चल पड़ी है." हम सबने भागकर बताई गई कोच में सामान चढ़ाया. ट्रेन रेंगने लगी पटरी पर. अचानक मुझे स्मरण आया, अरे, टिकट्स तो बॉबी के पास ही हैं. मैं चलती ट्रेन छोड़ भागकर बॉबी के पास आया. उसने बिना किसी जल्दी के जेब से टिकट्स निकालकर मुझे दे दीं. मेरी सांस में सांस आई और मैंने फ़िर से चलती ट्रेन को भाग कर पकड़ लिया.

हम बॉबी द्वारा बताई गई बर्थ्स की ओर बढ़ ही रहे थे कि हमें टीटीई महाशय दिख गए. हम मुस्कुराते हुए उनकी ओर बढ़े उन्हें अनरिजर्वड टिकट देकर बोले, सर हमें बॉबी ने बताया है कि आपसे इन दो बर्थ्स के लिए बात हो गई है.

यह सुनते ही भलेमानस से दिखने वाले टीटीई महाशय के चेहरे पर कड़वे भाव आ गए. बोले, "तो उस बॉबी से ही ले लो न ये बर्थ्स! मैं किसी बॉबी-वॉवी को नहीं जानता. आप दोनों अगले स्टेशन पर अपने आप उतर जाना, वरना चालान भी करूंगा और पुलिस के हवाले कर दूंगा."

मैं तो उनका कड़ा रुख देखकर सकते में आ गया था, परन्तु मेरा मित्र उनसे अनुनय विनय करने लगा. सब प्रयास विफल रहे. अगला स्टेशन आने से पहले वह टीटीई महाशय सब काम छोड़कर हमें यूं घूर रहे थे, मानो उन्हें रेलवे ने हमें ट्रेन से उतारने के काम पर ही रखा था!

हम सामान सहित उस कोच से उतरे. बिना समय गंवाए मैंने निर्णय लिया और फर्स्ट क्लास की एक अन्य कोच में हम चढ़ गए. मित्र को सामान सहित एक ओर खड़ा किया और मैं निकल गया भीख मांगने! अंततः एक कूपे में बैठे दो यात्रियों को मैंने राज़ी करवाया कि वे हमारा सामान अपने कूपे में रख लें. हम कहीं भी, किसी भी क्लास में बैठ कर, खड़े होकर यात्रा कर लेंगे, हमने निर्णय किया.

अब हम सामान की चिंता से मुक्त हो गए थे. केवल अपने नश्वर शरीरों को टीटीई की निगाहों से बचाते हुए मुम्बई तक पहुंचाना बाकी था.

हम एक कोच से दूसरी कोच, फर्स्ट क्लास से एसी से स्लीपर क्लास में चढ़ उतर रहे थे. जब थक जाते तो फर्स्ट क्लास में जो अटेंडेंट की सीट होती है, उसपर बैठ जाते. उस सीट से वैसे भी कोच से जल्दी नीचे उतरने में सहायता होती है.

लुका-छिपी का यह खेल खेलते हुए रात होने को आई. रतलाम आने वाला था. हम उस कोच के गेट के पास नीचे प्लेटफॉर्म पर खड़े थे, जिसके एक कूपे में हमारा सामान रखा था, कि एक अन्य टीटीई महोदय हमारे पास आए और मुस्कुरा कर बोले, "मैं तुम्हें घंटों से देख रहा हूं, यह जो खेल तुम खेल रहे हो. मेरी ड्यूटी यहीं तक है. मैं तुम्हें बता दूं कि यहीं रतलाम में तुम उतर जाओ और आगे की यात्रा कल दिन में करना. रात के समय तुम्हें कोई कोच में ठहरने नहीं देगा और तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है." यह कहकर और मेरे कंधे पर स्नेह से हाथ रखकर वह चले गए. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा उन्हें धन्यवाद तक न कह सका.

परन्तु अगले दिन ड्यूटी ज्वाइन करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझ रहा था मुझे. हमने इसी ट्रेन में यात्रा जारी रखने का निर्णय लिया. हां, फर्स्ट क्लास से हटकर हम एसी कंपार्टमेंट में आ गए थे. एक अनजान सज्जन व्यक्ति ने हमें यह राय दी थी कि एसी में बर्थ मिलने की संभावना अधिक थी, पेनल्टी का भुगतान करके, और हम उसे आजमाना चाहते थे.

कोच में एक खाली बर्थ देखकर हम उसपर बैठ गए. थोड़ी ही देर में रतलाम से ही एक परिवार चढ़ा. हम बर्थ पर बैठे रहे. सोचा, अभी टीटीई आएंगे तो उठ जाएंगे. जिस बर्थ पर हम बैठे थे, वह इसी परिवार की थी, इतना तो हमें आभास हो गया था.

उस परिवार में एक बच्चा था, बहुत प्यारा और बातूनी बच्चा. आते ही वह हमारा मित्र बन गया. उसकी मासूम बातों को सुन हम कुछ पलों के लिए अपना कष्ट भूल से गए थे. उसके पापा बाहर निकले और खिड़की में से उसे आलू के चिप्स और कोल्ड ड्रिंक पकड़ाए. वह अपने पिता जी से हमारे लिए भी कोल्ड ड्रिंक्स लाने को कहने लगा. हमें बहुत अजीब लग रहा था. बहुत मुश्किल से उसे मनाया. फिर भी हमें यह मजबूर करके ही वह माना कि हम उसके पैकेट में से उसके चिप्स सांझा करें.

जब ट्रेन चली और उसमें रतलाम से जो टीटीई महोदय चढ़े, उन्हें देखकर तो मेरे होश ही उड़ गए. मैंने तब तक बहुत यात्राएं तो नहीं की थीं, परन्तु उन टीटीई महोदय की सख्ती मैं दिल्ली कानपुर रूट पर देख चुका था, दो नियमित यात्रियों की आपसी बात में उनकी बहुत बड़े 'खड़ूस' होने की चर्चा भी सुन चुका था. वह एक सरदारजी थे और न भूल सकने वाले व्यक्तित्व के धनी थे.

आते ही उन्होंने अपनी कर्कश वाणी में यह ऐलान कर दिया कि कोच में कोई बर्थ खाली नहीं थी और जिनके पास कन्फर्म्ड बर्थ न हो, वे अपना और उनका समय खराब न करें. बिना बात किए अगले स्टेशन पर उतर जाएं, वरना उनके साथ पुलिस बात करेगी. हमारी हालत खराब थी. यहां तो फर्स्ट क्लास से भी बुरा हाल हो रहा था.

अचानक बच्चे ने हमसे पूछा, "मगर आप लोग यहां क्यों बैठे हो? आपकी सीट्स कहां हैं?"

"अभी चले जाएंगे बेटा," मैंने उत्तर दिया, "हमारी बर्थ कन्फर्म्ड नहीं हैं. टीटीई अंकल से बात करते हैं, जब वह इधर आएंगे तो. आपको लेटना हो तो लेट जाओ, हम खड़े हो जाते हैं."

उस बच्चे ने जो आगे कहा, उसकी आशा हमें बिलकुल नहीं थी. वह बोला, "नहीं, नहीं अंकल, आप बैठो. मेरे पापा रेलवे में हैं; वह दिलवा देंगे आपको बर्थ." इतना कहकर वह अपने पापा से हमारे लिए सिफ़ारिश करने लगा ज़ोर शोर से. उसके पापा ने उसे समझाने की कोशिश की तो वह अड़ गया, "अगर इन्हें बर्थ नहीं मिली तो मैं दे दूंगा इन्हें अपनी बर्थ. मैं नीचे ज़मीन पर सो जाऊंगा.

उसके पापा हार गए अपने छोटे से पुत्र से. थोड़ी ही देर में जब टीटीई महोदय हमारे पास आए तो उन्होंने खड़े होकर उनसे बात की हमारे बारे में. टीटीई महोदय ने हमसे भी पूछताछ की. हमने उन्हें अपनी मजबूरी बता दी कि क्यों मेरा यही ट्रेन पकड़ना आवश्यक था. बॉबी वाला प्रकरण उनसे जानबूझकर छुपा लिया हमने. उन्होंने बहुत सौम्यता के साथ हमें बता दिया कि उनके पास न तो कोई खाली बर्थ उपलब्ध थी और न ही उन्हें मुम्बई तक किसी बर्थ के उपलब्ध होने की संभावना थी. फिर भी, उन्होंने हमें बैठे रहने को कहा और 'कुछ करने' का आश्वासन दिया.

हम हतप्रभ थे उस कर्कश दिखने वाले सरदार जी की सौम्यता देखकर. परन्तु हमारी निगाहें टिकी थीं उस बालक पर, जो हमें एक देवदूत सा दिख रहा था.

थोड़ी देर में सरदार जी वापस आए. बोले,"बर्थ तो पूरी ट्रेन में कहीं नहीं मिलेगी. मगर इतना बंदोबस्त हो सकता है कि तुम कल अपनी नौकरी ज्वाइन कर पाओ. कोच अटैंडेंट की बर्थ तुम्हें मिल सकती है, बिस्तर का प्रबन्ध भी हो जाएगा. मगर वहां सीट गद्देदार नहीं होगी, वहां एसी भी नहीं मिलेगा और एक बर्थ में तुम दोनों को एडजस्ट होना होगा. तैयार हो?" अंधा क्या चाहे, दो आंखें! हमने एकदम हामी भर दी. सरदार जी ने इशारा किया और हम उनके पीछे-पीछे चल दिए. ए.सी. के क्षेत्र से बाहर उस लकड़ी की बर्थ पर सरदार जी ने खुद अपनी देखरेख में बिस्तर लगवाया और हमें उसी बर्थ के नीचे वाली बर्थ, जिसपर परिचारक का कुछ सामान रखा था, में जगह बनवा कर हमसे कहा कि हम अगले स्टेशन पर उतर कर अपना सामान फर्स्ट क्लास के कूपे से लाकर वहां रख लें.

हमने उनका हृदय से आभार व्यक्त किया, कोच के भीतर जाकर उन अंकल का आभार व्यक्त किया, जिन्होंने हमारे लिए सरदार जी से सिफ़ारिश की थी. उस देवदूत की ओर देखकर तो हमारे नेत्र डबडबा रहे थे. दिल तो कर रहा था उसे अंक में भर लें, परन्तु ऐसा हम कर न सके. वह देवदूत इस बात से खुश तो नहीं था कि हमें कोच के बाहर सोना पड़ रहा था, परन्तु हमारे चेहरों पर प्रसन्नता देखकर वह चुप रहा. मेरी 'दो टकियों की नौकरी' के चक्कर में मेरा रईस मित्र भी फर्स्ट क्लास की टिकट से दुगनी राशि खर्च कर गर्मी में लकड़ी के फट्टों पर मेरे साथ बर्थ सांझा कर रहा था.


Friday, July 21, 2023

मेरी पहली एकल घुमक्कड़ी -

 यह मेरी पहली घुमक्कड़ी थी, अकेले. अकेले करनी पड़ी थी, वैसे पिताजी ने तो एक संरक्षक की देखरेख में ही भेजा था मुझे.


आप सही समझे. बात तब की है जब मैं एक किशोर था. पिताजी साउंड इंजीनियर थे और उत्तर भारत के अनेक सिनेमाघरों और विशेषकर कानपुर के प्रायः सभी सिनेमाघरों का रखरखाव उनकी जिम्मेदारी थी. चूंकि कानपुर में उनका अधिक समय रहना होता था, कभी-कभी मैं दिल्ली से उनके पास चला जाया करता था. मस्ती रहती थी, किसी भी सिनेमाघर में कभी भी चले जाओ, फ़िल्म अच्छी न लगे तो किसी अन्य सिनेमाघर में चले जाओ.

स्कूल खुलने वाला था और पिताजी को कानपुर से कहीं और जाना था, तो उन्होंने मुझे अकेले ही दिल्ली के लिए रवाना कर दिया.

'कोशिश' फ़िल्म के डिस्ट्रीब्यूटर फ़िल्म के सिलसिले में कानपुर आए हुए थे और वापस दिल्ली जा रहे थे. मेरे लिए भी उन्हीं के साथ ट्रेन में रिज़र्वेशन करवा दिया गया.

दिन की ट्रेन थी. पिताजी मुझे छोड़ने स्टेशन आए, मेरा उन सज्जन से परिचय कराया, मुझे उन 'अंकल' की बात मानने जैसी हिदायतें दीं, मेरी टिकट उनके हाथ में पकड़ाई और उनके साथ मुझे ट्रेन पर चढ़ा दिया गया. ट्रेन चल पड़ी और पिताजी पूरी तरह से आश्वस्त होकर चले गए.

जाते समय पिताजी मुझे कुछ कॉमिक्स वगैरह दे गए थे. मैं उनमें डूब गया. उन सज्जन को कोई परिचित मिल गए थे कोच में, जिनके साथ वह व्यस्त हो गए थे. "ठीक हो न बेटा", के अतिरिक्त हमारी कोई बात नहीं हुई.

आधे रास्ते बाद टूंडला स्टेशन आया. मेरी खिड़की के सामने एक बुक स्टॉल था जो मुझे अपनी ओर खींच रहा था. परन्तु 'अंकल जी' को अपने मित्र के साथ धूम्रपान आदि के लिए प्लेटफॉर्म पर उतरना था. चुनांचे वह मुझे "बेटा, सामान का ध्यान रखना," कहकर ट्रेन से उतर गए.

बहुत देर तक उनके वापस न आने से मैं उतावला हो रहा था. मुझे टॉयलेट भी जाना था, परन्तु "सामान का ध्यान रखना" वाली जिम्मेदारी के कारण मैं सीट से बंधा था.

बहुत देर बाद जब वे दोनों ट्रेन में चढ़े तो कंपार्टमेंट के सभी टॉयलेट भीतर से बंद थे. मेरी कठिनाई समझकर 'अंकल जी' ने प्लेटफॉर्म के दूसरी ओर खड़ी ट्रेन की ओर इशारा कर कहा, "उसमें चले जाओ, उस ट्रेन के चलने में अभी बहुत टाइम है."

"मगर यह, हमारी ट्रेन तो चलने वाली होगी!" मैंने शंका व्यक्त की.

"अरे नहीं, अभी तो बहुत देर है इसके चलने में. तुम आराम से घूम फिर कर आओ," उन्होंने आश्वस्त किया मुझे.

मैं भागकर चला गया, सामने खड़ी ट्रेन में. लघु शंका से निवृत्त होकर, हाथ मुंह धोकर फटाफट बाहर निकला तो देखा, मेरी दिल्ली वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. मैं ट्रेन के पीछे भागा, मगर विलंब हो चुका था. देखते ही देखते ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़कर आगे बढ़ गई और मैं हांफता हुआ प्लेटफॉर्म के अंतिम छोर पर थम गया.

कुछ लोग मेरी ओर देखकर हंस रहे थे. एक बुद्धिमान ने तो मुझसे पूछ भी लिया, "छूट गई ट्रेन?" मैं मन ही मन पिताजी से कह रहा था, "...कम से कम ट्रेन का टिकट तो मेरे पास रहने देते! अंकल जी मेरे टिकट का क्या करेंगे?"

उन दिनों मोबाइल तो होते नहीं थे, फ़ोन भी बहुत बड़ी बात थी. हमारे घर भी फ़ोन नहीं था, हालांकि दस-बीस साल हो चुके थे बुक किए हुए. पिता जी का भी कोई नंबर नहीं था मेरे पास. जेब में पैसे तो थे, घर पहुंचने के लिए, परन्तु अनुभव नहीं था. एक रेलवे कर्मचारी जैसे दिखने वाले व्यक्ति ने मुझसे पूछा और मैंने संक्षेप में उसे अपनी व्यथा बता दी और पूछा कि दिल्ली के लिए अगली ट्रेन कब जाती है और उसका टिकट कहां से मिलेगा. उस व्यक्ति ने मुझे ढांढस बताते हुए कहा, "अगली ट्रेन तो आने ही वाली है और तुम टिकट की चिन्ता मत करो. मैं तुम्हें ड्राइवर के पास बिठा दूंगा." मैं अनुभवहीन था परन्तु सामान्य बुद्धि से विहीन नहीं था. मैंने शंका व्यक्त की, "ड्राइवर मुझे दिल्ली तक तो ले जाएगा, परन्तु मैं बिना टिकट, स्टेशन से बाहर कैसे निकालूंगा." सज्जन हंस कर बोले, "चिंता मत करो, मैं ड्राइवर को बोल दूंगा. वह तुन्हें गेट से बाहर तक छोड़ने का प्रबंध कर देगा.

मैंने उन्हें सादर धन्यवाद दिया. इससे पहले कि गाड़ी आती, उन्हें दो व्यक्ति दिखाई दिए जो रेलवे के कर्मचारी ही दिख रहे थे और उनके परिचित थे. उन्हें देखकर वह सज्जन मुस्कुरा दिए और उनसे कुछ बात कर मुझसे बोले, "तुम्हारा काम हो गया. ये दोनों भी उसी ट्रेन से जा रहे हैं. तुम इनके साथ चले जाओ." यह कहकर वह सज्जन भीड़ में गुम हो गए.

ट्रेन आई. मैं उन दोनों व्यक्तियों के साथ हो लिया यद्यपि वह मेरे प्रति प्रारंभ से ही उदासीन दिख रहे थे. दो तीन घंटे ही हुए थे कि अलीगढ़ स्टेशन आ गया और वे दोनों ट्रेन के गेट की ओर बढ़े. मैंने उनकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा. वे बोले, "हमें यहीं उतरना है. तुम बैठे रहो, दिल्ली आने में अभी पांच छह घंटे लगेंगे."

मैंने अविश्वास के साथ पूछा, "मगर आप तो दिल्ली जाने वाले थे न?"

"सारी दुनिया दिल्ली थोड़े ही जा रही है! हमें अलीगढ़ उतरना है तो हम दिल्ली क्यों जाएंगे?"

मैंने पल भर में सोचकर उनसे कहा, "प्लीज़ आप मुझे अलीगढ़ स्टेशन के गेट के बाहर तक छोड़ दीजिए; मैं दिल्ली का टिकट लेकर अगली कोई ट्रेन पकड़ लूंगा."

नियति ने मानो पलटी मार ली थी. उत्तर मिला, "नहीं भाई, हम मेन गेट की ओर नहीं जा रहे. हम तो पटरियों के रास्ते से दूसरी तरफ़ जा रहे हैं."

मैंने अगली युक्ति लगाई. बोला, "तो आप मुझे ड्राइवर के पास बिठा दो. वह पहले वाले भाईसाहब तो मुझे ड्राइवर के पास ही बैठाने वाले थे; आपको देखा तो उन्होंने आपसे कह दिया मेरी मदद को.."

"ड्राइवर क्या हमारा चाचा लगता है जो हमारे कहने से तुम्हें दिल्ली ले जाएगा? ऐसे ही चले जाओ बिना टिकट इसी ट्रेन में. कुछ नहीं होगा."

घबराहट से मेरा गला सूख रहा था. आज बिना टिकट यात्रा के अपराध में जेल जाना निश्चित है, ऐसा लग रहा था.

मैं चुपचाप पैर घसीटता हुआ उन दोनों के पीछे चलने लगा. पटरियों वाला यह रास्ता कहीं तो जाता ही होगा. वहीं कहीं से रिक्शा पकड़ कर वापस स्टेशन आ जाऊंगा और टिकट खरीदकर दिल्ली की अगली ट्रेन पकड़ लूंगा, यह सोचकर मैं उनके पीछे चल रहा था. उन दोनों ने पीछे मुड़कर मेरी ओर एक बार भी नहीं देखा. शायद उन्हें लग रहा था मैं उनसे चिपक रहा हूं, उनके लिए एक बड़ा दायित्व बन रहा हूं.

आखिर उनके पीछे पीछे चलते हुए एक बस्ती में पहुंचा. रिक्शा वाले स्टेशन जाने को तैयार नहीं थे. बहुत घूम कर जाना पड़ता था. तभी मेरे दिमाग में एक और विचार आया. क्यों न मैं बस से चलूं दिल्ली! अगली ट्रेन पता नहीं कब मिले, बसें तो चलती रहती होंगी! वैसे भी, बस में सीट तो मिल जाएगी, ट्रेन में बिना रिज़र्वेशन के सीट भी कहां मिलने वाली थी?

बस स्टैंड के लिए रिक्शा आराम से मिल गई, फिर बस भी मिल गई और उसमें सीट भी. उन दिनों रोडवेज़ की बसें बहुत खटारा होती थीं, आधे-अधूरे शीशे और बहुत शोर करने वाले अस्थि-पंजर. ट्रेन के मुकाबले दो घंटे अधिक लगे दिल्ली पहुंचने में. जब दिल्ली बस-अड्डे पर मैं बस से उतरा तो धूल धूसरित था. बिना जेल यात्रा के अपने शहर पहुंच गया था, बस यही सोचकर मन में प्रसन्नता थी. अब चिंता यह थी कि 'अंकलजी' के पास मेरा सामान रह गया था, वह वापस मिलेगा अथवा नहीं.

अगले दिन सुबह मैं अपने बड़े भाईसाहब के साथ भगीरथ पैलेस, दिल्ली में था. पूछते पूछते फ़िल्म 'कोशिश' के डिस्ट्रीब्यूटर के दफ़्तर में पहुंचे. जाते ही दरबान ने बिना लंबी बात किए मेरा सामान हमारे हवाले कर दिया, "साहिब काम से गए हैं, बोल गए थे."

बाद में जब पिताजी घर आए तो उन्हें पूरी घटना बताई तो उन्होंने केवल इतना कहा, "अनुभवों से ही व्यक्ति सीखता है!"

और वह कहते भी क्या? जिन्होंने युवावस्था में देश के विभाजन की त्रासदी स्वयं देखी हो, बॉम्बे से दिल्ली की यात्रा अकेले की हो, रात के अंधेरे में खेतों, जंगलों से होते हुए, लाशों के बीच से गुजरते हुए फ़रीदाबाद से दिल्ली की यात्रा पैदल की हो, उनके लिए उनके पुत्र का यह अनुभव कौन सी बड़ी बात थी!

परन्तु यह बात मुझे कई वर्षों तक समझ नहीं आई कि पिताजी ने मेरी टिकट उन अंकलजी के हवाले क्यों कर दी थी? क्यों उन्हें अपने पुत्र पर इतना कम विश्वास था? क्यों उन्होंने मुझे स्वयं अनुभव लेने के लिए प्रेरित नहीं किया था?

जब मैं स्वयं पिता बना तो समझ आया, ऐसा ही होता है पिता का हृदय!

Friday, July 14, 2023

पांचवां टमाटर

हमेशा की तरह मैं थैला पकड़ श्रीमती जी के पीछे खड़ा था. साथ खड़े होने में बहुत दिक्कत होती है. नहीं, सब्ज़ी खरीदने जाने में मुझे कोई शर्म नहीं. बात सिर्फ़ इतनी है कि सब्ज़ी वाले से बिना मोल-भाव किए, बिना छांटे सब्ज़ी खरीदकर जो मैंने इमेज बनाई है अपनी, उसकी छीछालेदर हो जाती है श्रीमती जी के साथ जाने पर. जितनी सब्ज़ी मैं पांच मिनिट में खरीद लेता हूं, उतनी ही सब्ज़ी खरीदने में श्रीमती जी बीस मिनिट लगाती हैं - भाव तोल में, सब्जियों में नुक्स निकालकर उन्हें छांटने में. तो मैं श्रीमती जी के पीछे निरपेक्ष भाव से खड़ा रहता हूं और आदेश मिलने पर सब्ज़ी डलवाने के लिए थैले का मुंह खोलकर सब्ज़ी वाले भैया के सामने कर देता हूं. बस.


सब्ज़ी वाले भैया से सब्ज़ी खरीदते हुए वैसे तो हमेशा श्रीमती जी का पलड़ा भारी रहता है, परन्तु आज सब्ज़ी वाला भैया चहक रहा था. "मेम साहिब, टमाटर भी तो लीजिए," कहकर बार-बार उन्हें चिढ़ा रहा था, और श्रीमती जी उसे हर बार घूर देती.
टमाटर न खरीद पाने की विवशता के चलते वह जल्दी से बाकी तरकारियां खरीदकर वहां से निकलना चाहती थीं और सब्ज़ी वाला भैया भी उनकी मन:स्थिति समझ कर जानबूझकर देर लगा रहा था. कभी देसी टमाटर तो कभी हाइब्रिड टमाटर का भाव बिना पूछे जानबूझ कर उन्हें बता रहा था. मैं पीछे खड़ा मंद-मंद मुस्कुरा रहा था. मैं जानता था कि इतने महंगे टमाटर तो मेम साहिब खरीदने से रहीं.

हमेशा की तरह मेम साहिब ने मुझे गलत सिद्ध कर दिया. पत्नियों को पता नहीं क्या मज़ा आता है, पतियों को गलत सिद्ध करने में! मैंने देखा, वह टमाटर खरीद रही थीं, वह भी बिना भाव तोल के!

दुकानदार सकते में था और मैं सदमे में. इतने महंगे टमाटर खरीद लिए मैडम ने! इनके मायके से कोई आने वाला है क्या?

वापसी में थैला पीठ पर टांगे, मैं फिर श्रीमती जी के पीछे-पीछे ही चल रहा था. मन ही मन इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास कर रहा था कि आखिर कौन अतिथि आने वाला है, जिसके लिए श्रीमती जी दिल खोलकर पैसा खर्च कर रही थीं टमाटर पर. श्रीमती जी भी विचारामग्न थीं और बिना बात किए चल रही थीं.

घर पहुंचते ही श्रीमती जी बिफर गईं, "एक तो वैसे आग लगी है टमाटर को और उसपर वह नामुराद सब्ज़ी वाला! पीछे ही पड़ गया टमाटर खरीद लो, टमाटर खरीद लो."

"तुम न खरीदती. उसके कहने से क्या होता है?" मैंने धीमे से कहा.

"अब तुम्हें तो कोई परवाह है नहीं इज़्ज़त की, मुझे तो है. न लेती वह मुहल्ले की चार औरतों को बताता, कितनी बदनामी होती!"

पारा काफ़ी चढ़ा हुआ था, मैंने चुपचाप एक कोना पकड़ा और केजरीवाल की झीलों वाली दिल्ली की विडियो में नज़रें डुबो दीं.

मुझे लगा था, यह चैप्टर पूरा हो गया था, टमाटर वाला. इतने में श्रीमती जी ज़ोर से चिल्लाईं, "चोर ने एक टमाटर निकाल लिया!" मैं हड़बड़ी में उठा और प्रश्नवाचक दृष्टि से श्रीमती जी की ओर देखने लगा. पत्नियों को श्रोता पति बहुत पसन्द होते हैं. बोलने वाले नहीं और प्रश्न करने वाले तो कदापि नहीं.

"पांच टमाटर लिए थे मैंने. मुएं ने एक निकाल लिया. अब चार ही निकले हैं थैले में से," वह झल्ला रही थीं.

"तुम्हें गलती लग रही होगी, वह बेचारा क्यों एक टमाटर चुराएगा? और तुम तो नज़र इधर-उधर करती ही नहीं खरीदारी करते समय," चापलूसी के लहज़े में मैंने कहा.

"अरे, तुम नहीं जानते इन लोगों को, बहुत शातिर होते हैं. उंगलियों के खिलाड़ी होते हैं. उसी ने चुराया है मेरा पांचवां टमाटर," कहकर उन्होंने वह कह दिया जिसकी मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी, "जाओ, उससे लेकर आओ एक टमाटर!"

मुझे काटो तो खून नहीं! एक टमाटर के लिए इतनी दूर जाऊं कीचड़ वाली गलियों से होते हुए!

मैंने अपनी आवाज़ को चाशनी में घोलते हुए, एक निरीह प्राणी की तरह कहा, "एक टमाटर के लिए.."

"एक टमाटर? तुम्हें पता है कितने का आता है एक टमाटर? पूरे महीने का बजट खराब करके टमाटर खरीदे और उसे भी वह लूट कर ले गया! इतने दिनों से नींबू डालकर अच्छा खासा खाना बना रही थी और मुझे लूटने के लिए उसने ज़बरदस्ती खरीदवा दिए टमाटर! जाओ लेकर आओ उससे मेरा पांचवां टमाटर," आदेशात्मक स्वर में श्रीमती जी ने कहा.

"क्या कहूंगा मैं उससे जाकर? क्या सबूत है हमारे पास कि उसने चुराया है तुम्हारा टमाटर? और अब क्या होगा तुम्हारी इज्ज़त का, जब वह तुम्हारी पड़ोसनों को बताएगा कि एक टमाटर के लिए तुम्हारा पति उसके पास आया था?" मुझे लगा था कि श्रीमती जी का वार उनपर कारगर सिद्ध होगा, परन्तु ऐसा हुआ नहीं. वह अड़ी हुई थीं. इधर मैं भी 'नहीं जाऊंगा' पर अड़ गया था. टमाटर का लाल रंग हम दोनों के चेहरे पर चढ़ चुका था. घमासान का उद्घोष हो गया था. तलवारें म्यान छोड़ चुकी थीं.

इतने में घर की घंटी बजी. श्रीमती जी के भैया-भाभी थे. अभी थोड़ी ही देर पहले मैं जिनके आगमन की आशंका से परेशान था, मुझे लग रहा था कि उनके लिए टमाटरों पर पैसे लुटाए जा रहे थे, उन्हीं का आगमन मुझे ईश्वर का आशीर्वाद लग रहा था. पता लगाना मुश्किल था कि इस अतिथि युगल के आने की अधिक प्रसन्नता किसे थी, श्रीमती जी को या मुझे.

"इधर से गुज़र रहे थे, सोचा मिलते चलें," श्रीमती जी के भाई कह रहे थे.

और मैं सोच रहा था,"चलो, अब भोजन तो मिलेगा!"

चाय का दौर समाप्त हुआ. श्रीमती जी अपनी भाभीजी के साथ रसोई में चली गईं और मैं उनके भाई के साथ दिल्ली में जल भराव और ट्रैफिक जाम की समस्या पर गहन विचार विमर्श में जुट गया.

भोजन डाइनिंग टेबल पर लग गया था और हम सब क्रॉकरी और कटलरी के साथ टेबल पर सज्जित थे. अब चिंतन का विषय था, महंगे टमाटर. सलाद की प्लेट में कटे टमाटर गर्व से सर ऊंचा करके बैठे थे. उसी गर्व के साथ श्रीमती जी बार- बार दोहरा रही थीं, "अजी, कितने भी महंगे हो जाएं टमाटर, हमारा तो एक टाइम भी गुज़ारा नहीं होता टमाटर के बिना. सब्ज़ी में तो पड़ता ही है टमाटर, 'इन्हें' तो सुबह शाम सलाद भी चाहिए टमाटर का. आप भी लीजिए न टमाटर का सलाद.."

खाने में कम और बातों में अधिक टमाटर के साथ भोजन सम्पन्न हुआ.

टेबल से प्लेटें हटाने में श्रीमती जी की सहायता करते हुए उनकी भाभी जी अचानक उछलते हुए बोलीं, "यह क्या है?"

उनके पैर के नीचे आकर कुछ दब गया था. सबने उनके पैरों की ओर देखा, वह पांचवां टमाटर उनके पैरों तले आकर दम तोड़ चुका था!


Thursday, January 5, 2023

घुमक्कड़ी परिचय

जन्म कानपुर में हुआ, शिक्षा मुख्यतः दिल्ली में. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर हूं. तदनंतर पंजाब विश्वविद्यालय एवं भारतीय विद्याभवन से प्रबंधन एवं पत्रकारिता में तीन स्नातकोत्तर डिप्लोमा भी किए.

संसदीय कार्य विभाग, भारत सरकार, इंडियन बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, एक आई टी सम्बन्धित कंपनी एवं दो रियल एस्टेट कंपनियों में भी कार्य किया, जिनमें से एक सरकारी है.

आजकल घर में अपने 3 वर्ष के नाती को खिला रहा हूं, और वह मुझे! ❤️

मैंने स्वयं को घुमक्कड़ नहीं समझा, यद्यपि घूमना मुझे पसंद है. अभी अपना परिचय लिखते हुए ही मुझे यह ज्ञात हो रहा है कि अरे, मैं भी घुमक्कड़ हूं! 🙂

पिछले एक वर्ष में ही स्टेच्यू ऑफ यूनिटी, केवड़िया के साथ अहमदाबाद एवं गुजरात के अन्य शहरों में पुनर्भ्रमण किया. भुवनेश्वर एवं जगन्नाथपुरी का भ्रमण किया रथयात्रा के समय. इसी वर्ष कुमाऊं की दो सप्ताह की यात्रा में कैंची धाम यात्रा के साथ, नैनीताल, भीमताल, सात्ताल, नौकुचियाताल, मुक्तेश्वर, रानीखेत, सोमेश्वर, कौसानी, बागेश्वर, बिनसर के जंगल, कसार देवी, चितई गोलू, जागेश्वर धाम की यात्रा की. इससे पूर्व जिम कॉर्बेट आदि क्षेत्रों में भी जा चुका हूं. 

गढ़वाल क्षेत्र की तो अनेक यात्राएं की हैं, हरिद्वार, ऋषिकेश, नीलकंठ महादेव आदि पर्यटन स्थलों का रसास्वादन किया है.

बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथपुरी एवं रामेश्वरम चारों धाम कर चुका हूं. 

नौ देवी दर्शन कर चुका हूं: चंडी देवी, मनसा देवी, नैना देवी, चिंतपूर्णी, ब्रजरेश्वरी देवी - कांगड़ा, चामुंडा देवी, ज्वाला देवी एवं वैष्णो देवी.

12 ज्योतिर्लिंगों में से आठ सोमनाथ ज्योतिर्लिंग, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग, भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग, विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग, त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, रामेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं घृष्‍णेश्‍वर ज्योतिर्लिंग के दर्शनलाभ पा चुका हूं. 

अन्य प्रमुख तीर्थस्थल जहां मस्तक झुका चुका हूं, उनमें से जो स्मरण हैं, वे हैं, वृंदावन, मथुरा, तिरुपति बालाजी, महाबलीपुरम, कांचीपुरम, पद्मनाभास्वामी मंदिर त्रिवेंद्रम, मीनाक्षी मंदिर मदुरई, मां कामाख्या मंदिर, जगन्नाथ मंदिर पुरी आदि.

मां गंगा, मंदाकिनी, अलकनंदा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, हुगली, कावेरी, नर्मदा, साबरमती, तापी, व्यास, सतलुज, रावी, तुंगभद्रा, झेलम, तवी, शिप्रा, कोसी, सरयू, गोमती आदि पवित्र नदियों के जल का आचमन किया है अथवा दर्शन तो किया ही है.

दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, अहमदाबाद, मुजफ्फरनगर, गाज़ियाबाद में नौकरी/व्यवसाय कर चुका हूं. कलकत्ता, बंगलुरु, मैसूर, लखनऊ, भोपाल, श्रीनगर, जम्मू, अमृतसर, चंडीगढ़, देहरादून, आगरा, करनाल, कुरुक्षेत्र आदि अनेक शहरों में अनेक बार जा चुका हूं.

रमणीक पर्वतीय स्थलों में से कश्मीर, लेह लद्दाख, कारगिल, मीनामर्ग, गुलमर्ग, सोनमर्ग, पहलगाम, कुल्लू, मणिकर्ण, मंडी, मनाली, रोहतांग पास, शिमला,  डलहौजी, धर्मशाला, मैकलोडगंज, खजियार, पालमपुर, माउंट आबू, लोनावला, दार्जिलिंग, ऊटी, कोडईकनाल, नंदी हिल्स, मसूरी, धनौल्टी, चंबा, टिहरी, औली, पंचमढ़ी जैसे स्थलों में प्रकृति को निहार चुका हूं.

जुहू, चौपाटी तक ही सीमित नहीं हैं मुंबई के समुद्र तट. नाम स्मरण नहीं, परंतु मुंबई में मैंने दो समुद्र तट गोवा समान सुन्दर भी पाए थे. समुद्र तट पर रहना मुझे बहुत पसंद है. मेरा सबसे पसंदीदा समुद्र तट है त्रिवनंतपुरम में कोवलम बीच. इसके अतिरिक्त गोवा के अनेक समुद्र तट, कन्याकुमारी, चेन्नई में मरीना बीच, कोवलंग बीच, गोल्डन बीच, महाबलीपुरम बीच, रामेश्वरम का धनुष्कोटि तट, पुरी एवं कोणार्क आदि समुद्र तटों का अनुभव स्मरणीय है. अब गोकर्ण के समुद्र तटों पर समय बिताने की अभिलाषा है. 

पश्चिम में जयपुर, पुष्कर, उदयपुर, गिर, जूनागढ़, सूरत, पोरबंदर, पाटन, भावनगर, मोधेरा, सरदार सरोवर डैम, पूना, औरंगाबाद, एलोरा कैलाश मंदिर, शिरडी, शनि शिंगणापुर आदि स्थलों में एक या अधिक बार जा चुका हूं.

मध्यप्रदेश में पंचमढ़ी एवं उज्जैन के अतिरिक्त भोपाल, सांची, भीमबेडका आदि स्थल देख चुका हूं. अवसर मिला तो पूरा मध्यप्रदेश (और राजस्थान) देखने की इच्छा है. मुझे मध्यप्रदेश और राजस्थान के लोग बहुत पसंद हैं.

दक्षिण में ऊपर वर्णित प्रमुख शहरों, समुद्र तटों और मंदिरों के अतिरिक्त हासन, बेलूर, हेलेबिडू, श्रवणबेलगोला, थेक्कड़ी आदि स्थलों का आनंद ले चुका हूं तो  उत्तरपूर्व में सिलीगुड़ी, गुवाहाटी, शिलांग, चेरापूंजी आदि मनोरम स्थल मानो बार-बार बुलाते हैं. 

कैंची धाम मंदिर दर्शन


कैंची धाम काठ गोदाम से 37 किलोमीटर की दूरी पर शिप्रा नदी, जो थोड़ी ही दूरी पर गरमपानी नामक स्थान पर कोसी नदी में मिल जाती है, के किनारे एक छोटा सा मंदिर प्रांगण है। नीब करोली बाबा के देश विदेश में 108 मंदिर हैं, जिनमें से एक कैंची धाम है जिसकी स्थापना स्वयं बाबा ने वर्ष 1964 में मूलतः हनुमान मंदिर के रूप में की थी। तब से लेकर 1973 में वृंदावन में महाप्रयाण तक उन्होंने अपना दैहिक जीवन कैंची धाम में ही बिताया था. 

बाबा नीब करौली को मानने वालों में विदेशी सेलिब्रिटी भक्त स्टीव जॉब्स और मार्क जुकरबर्ग बड़े नाम हैं. इंटरनेट में बाबा के विषय में जानकारी भरी पड़ी है. 

कैंची धाम के लिए हल्द्वानी से बसें चलती हैं और काठगोदाम तक आते आते प्रायः भर जाती हैं। इसलिए बस में आने वाले यात्री, बेहतर है, हल्द्वानी में ट्रेन से उतर कर बस पकड़ लें। 

टैक्सी से आने वालों के लिए काठगोदाम उतरना बेहतर है क्योंकि यहां से कैंची धाम की दूरी अपेक्षाकृत कम है। इस जानकारी के अभाव में हम काठगोदाम उतरे थे, इसलिए बस का विकल्प हमारे पास था ही नहीं. 

काठगोदाम से कैंची धाम का हैचबैक का किराया 1200 से 1500 रुपये है। मोलभाव करके सीज़न के अनुसार कम भी हो जाता है। हमने स्टेशन पर थोड़ा धैर्य रखा और मात्र 800 रुपये देकर कैंची धाम पहुँच गए वैगन आर में। 

कैंची धाम पर अनेक छोटे छोटे होमस्टे उपलब्ध हैं. इन दिनों आम किराया 1500 से 2000 रुपये चल रहा है। इन होमस्टे की बुकिंग ऑनलाइन हो जाती है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कौन सा स्थान आपके लिए उपयुक्त रहेगा, यह देखकर ही पता चल सकता है। 

होमस्टे के नाम पर चल रहे इन होटलों में प्रायः अच्छी सुविधाएं नहीं हैं. OYO रूम्स जैसे व्यवस्थित होटल कुछ दूरी पर हैं. जिनके पास अपनी कार आदि नहीं है उनके लिए दूर ठहरना कष्टकर हो सकता है क्योंकि कैंची में फिलहाल कोई व्यवस्थित transport भी नहीं है. 

कैंची धाम के भीतर भी रहने की व्यवस्था है परन्तु बहुत जटिल है। कमरे धाम के पुराने श्रद्धालुओं की संस्तुति पर ही मिलते हैं। वहां प्रबंधक से तीन दिन तक बाबा और धाम के बारे में हुई बातचीत के आधार पर मेरी राय है कि धाम के भीतर रहने के विषय में जांच पड़ताल करना व्यर्थ है. धाम के सामने और निकट ही अनेक विकल्प हैं. 

हम 

निर्मल होम स्टे 8006817268 

(संपर्क: भारत)

एवं 

मारुति होमस्टे 8449434262

(संपर्क: विनोद) 

में रहे थे. दोनों ही स्थान ठीक ठाक हैं. दोनों में किराया 1500 प्रतिदिन था. 

मंदिर में पूजा, सफ़ाई आदि की व्यवस्था प्रशंसनीय है. प्रातः 7-20 पर और सायं 6-00 बजे आरती होती है. श्रद्धालु भी अनुशासित रहकर दर्शन लाभ करते हैं। 

कैंची धाम के बाहर रेस्टॉरेंट/ढाबे आदि हैं, जहां हर बजट का भोजन मिल जाता है. अनुपम रेस्टोरेंट भोजन के लिए एक बहुत अच्छा स्थान है जहां हर प्रकार का स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन मिल जाता है।

#नीब_करोरी_बाबा_के_चार_धाम_की_यात्रा 

कुमाऊँ क्षेत्र में निम्नलिखित चार आश्रम उनके चार धाम कहे जाते हैं. हमने टैक्सी द्वारा इन चारों धामों के दर्शन और नैनीताल के झील में नौका का आनंद एक ही दिन में ले लिया. 

हनुमान गढ़ी के एकदम निकट है नैनीताल का तल्ली ताल. नौका विहार के बाद हमने रिक्शा ली और नैना देवी मंदिर के दर्शन भी किए, जो मल्ली ताल के किनारे बना है और जिनके नाम से नैनीताल को अपना नाम मिला है. रिक्शा /e रिक्शा का किराया मात्र 10 रुपये प्रति व्यक्ति है. झील के किनारे किनारे यह यात्रा पैदल भी की जा सकती है, जिसका अलग ही मज़ा है. नैना देवी मंदिर के साथ ही है नैनीताल का बाज़ार जो घूमने और खाने पीने की असंख्य संभावनाओं से भरा है. 

1. #हनुमान_गढ़ी: नैनीताल के तल्ली ताल छोर के निकट ही एक पहाड़ी पर एक सुंदर और विशाल मंदिर है, हनुमान गढ़ी. इस क्षेत्र में बाबा द्वारा स्थापित यह पहला मंदिर था हनुमान जी का. 

तदनंतर बाबा जी ने 

2. #काकड़ी_घाट

और

3. #भूमियाधार 

में हनुमान जी के मंदिर स्थापित किए. बाबाजी अनन्य भक्त थे हनुमान जी के. 

4. #कैंची_धाम: बाबाजी यहां 1962 में आये थे और 1964 में इस धाम की स्थापना की थी उन्होंने. 

कैंची धाम में हम तीन दिन रुके. सुबह शाम आरती और स्तुति में भाग लिया. बहुत आनंद मिला. मन तो नहीं भरा, परन्तु आगे तो बढ़ना ही था.

Monday, November 9, 2020

गुजरांवाला

 

 

पूरे शहर में प्रसन्नता का वातावरण था। आज भारत माता सदियों की दासता से मुक्त होने वाली थी। अंग्रेज़ी सरकार की बेड़ियाँ टूटने वाली थी। मंगल पांडेरानी लक्ष्मी बाईभगत सिंहखुदीराम बोसअशफाक़उल्लाह खानउधम सिंहराजगुरुसुखदेवचन्द्रशेखर आज़ादराम प्रसाद बिस्मिल आदि अनेक शहीदों की आहुति आज रंग लाने वाली थी। गांधीनेताजी सुभाष चंद्र बोसपटेलसावरकर और करोड़ों भारतीयों का सपना साकार होने वाला था। चारों ओर उत्सव मनाया जा रहा था। गाजे-बाजे के साथ यात्राएं निकल रही थीं। मॉनसून के जाने का समय था। मौसम बहुत सुहाना था। हर खिड़कीहर बिजली का खंभापेड़ट्रामबसहर कार पर देश का नया ध्वज तिरंगा फ़हरा रहा था। बॉम्बे शहर माउण्टबेटन के भव्य स्वागत करने की तैयारी करने में लगा था जिनका जहाज अगले दिन सांताक्रूज़ हवाई अड्डे पर उतरने वाला था।

पंजाब और बंगाल में हो रहे भीषण दंगों की गर्मी से जैसे यह शहर अछूता था। जैसे देश के उस भाग में क्या हो रहा थाउससे किसी को कोई मतलब ही न हो! इस देश की यही त्रासदी रही है कि इसने स्वयं को कभी एक राष्ट्र के दृष्टिकोण से नहीं देखा। ऐसा न होता तो इस देश पर बाहर से आने वाले आक्रमणकारी सदियों तक राज कर पातेहर राजा ने आतताइयों का मुक़ाबला अकेले किया और दूसरे राजा अपने निहित स्वार्थ के चलते मुंह ताकते रहे। भारत के विभाजन की समस्या सीमावर्ती प्रदेश के लोगों की समस्या थी। पूरे देश ने इसे अपनी समस्या समझा होता, कभी यह अनुभव किया होता कि देश के टुकड़े करने वाली लकीर उन्हें विभाजित कर रही थी, कि घर से बेघर होने वाले उनके अपने थे, तो क्या वे ऐसा होने देते?

बंबई के लोगों को आम तौर पर इस बात का अहसास नहीं था कि पंजाब और बंगाल में लोगों पर क्या बीत रही थी। ऐसा नहीं कि बॉम्बे ने कभी दंगों की त्रासदी को भुगता न हो। 185118571874 में बॉम्बे ने पारसी-मुस्लिम दंगे देखे थे, परंतु अभी विपदा पंजाब और बंगाल पर थी, बॉम्बे पर नहीं. बॉम्बे ही क्यों, पूरे देश को स्थिति की भयावहता का अनुमान ही न था। देश के विभाजन की विभीषिका तो केवल उन लोगों के लिए काल बन कर आई थी जो देश को काटने वाली लकीर से कट रहे थे। न तो ब्रिटिश हुकूमत विभाजन से जनित त्रासदी को अधिक महत्व देना चाहती थी और न ही कांग्रेस। दोनों इस समय अपनी अपनी विजय दुंदुभि बजाने में मग्न थीं। ब्रिटिश हुकूमत विश्व में इस बात का डंका बजाना चाहती थी कि 200 वर्ष के औपनिवेशिक शासन के बाद उसने कितनी शांति से सत्ता का हस्तांतारण कर दिया। और कांग्रेस तो देश की स्वतन्त्रता को अपनी उपलब्धि के रूप में इतिहास में अंकित करवाना चाहती थीआत्ममुग्ध थी।

भूषण की प्रारम्भिक शिक्षा डीएवी कॉलेज लाहौर में हुई थी। पंजाब में लाहौर सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित शहर था। कहावत थी कि जिसने लाहौर नहीं देखावह पैदा ही नहीं हुआ। डीएवी कॉलेज की लाहौर शाखा उस कॉलेज की सबसे पहली शाखा थी भारत में। कॉलेज में धार्मिक और नैतिक शिक्षा पर बहुत बल दिया जाता था। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से परिचय कराया जाता था। राखीजन्माष्टमी आदि त्यौहार धूमधाम से मनाए जाते थे। राष्ट्रीयता और देशभक्ति से ओतप्रोत व्यक्तित्व निर्माण पर बल दिया जाता था और भारतीय परम्पराओं का सम्मान करना सिखाया जाता था।

परंतु बॉम्बे की बात कुछ और ही थी। उच्चस्तरीय शिक्षा के लिए भूषण को बॉम्बे भेज दिया गया था लाहौर सेसुप्रसिद्ध सेंट ज़ेवियर कॉलेजबॉम्बे में पढ़ने के लिए। सेंट ज़ेवियर कॉलेज की संस्कृति लाहौर से एकदम विपरीत थी। शिक्षा में पाश्चात्य सभ्यता और ईसाई धर्म का प्रभाव स्पष्ट दिखता था। यहाँ न हिन्दी पढ़ाई जाती थीन ही कोई हिन्दी में बात करता था। पूरी तरह से अंग्रेज़ियत वाला कॉलेज था। इतना ही बहुत था स्वयं को विशिष्ट अनुभव करने के लिए। भूषण तो वैसे भी विज्ञान का छात्र थाऔर कॉलेज में विज्ञान के छात्रों को सम्मान के साथ देखा जाता था। बंबई सही मायने में एक कास्मोपोलिटन शहर था, जहां सभी धर्मों और संस्कृतियों का सम्मिश्रण देखा जा सकता था यद्यपि पारसी और गुजराती संकृतियों का प्रभाव अधिक था। भारत की स्वतन्त्रता का उत्सव तो वैसे भी किसी धर्मजाति से ऊपर था। कहीं पंजाबी ढोल बज रहा था तो किसी प्रांगण में गरबा हो रहा था। उनके कॉलेज के प्रांगण में युवक युवतियाँ पाश्चात्य संगीत पर थिरक रहे थे एंड्रूस सिस्टर्स का रम एंड कोका कोला और जैज़ और स्विंग संगीत के अन्य गीत। कॉलेज के बाहर दूर कहीं से हिन्दी गीत की ध्वनि आ रही थी, “दूर हटो ऐ दुनिया वालोहिंदुस्तान हमारा है....।

परंतु इस गाजे-बाजे के बीच भूषण के मन में उदासी थी। कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था उसके पंजाब में। स्वतन्त्रता की प्रतीक्षा तो वह भी अपने जन्म से ही कर रहा था। उसे तो देशभक्ति जनमघुट्टी में पिलाई गई थी। उसके दादाजी कश्मीर के महाराज हरी सिंह के पुरोहित थे। उसके पिताजी को आधुनिक शिक्षा मिली और वह सरकारी अधिकारी बन गए। नियुक्ति पंजाब के गुजरांवाला में हुई तो वह वहीं आकर बस गए। वहीं भूषण का जन्म हुआ था।

भूषण को गुजरांवाला से केवल इसलिए प्रेम नहीं था कि वह उसकी जन्मभूमि थी। गुजरांवाला शेर-ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह और उनकी रक्षा के लिए शेर से लड़ने वाले सेनानायक वीर हरी सिंह नलवा की भी जन्मभूमि थी जिनके कारण भूषण को अपनी मातृभूमि पर गर्व था। जब अफ़ग़ानिस्तान से अहमदशाह दुर्रानी ने पंजाब पर आक्रमण किए तो सिखों ने उसकी फौजों का न केवल जमकर मुक़ाबला किया बल्कि उन्होंने सरहिंद और लाहौर पर भी अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। सिखों की सुक्करचक्किया मिसल के वीर चढ़तसिंह का मुख्य क्षेत्र गुजरांवाला था। उनके उत्तराधिकारी थे महासिंह जिनके पुत्र थे रणजीतसिंह।

भूषण के आदर्श शेरेपंजाब रणजीतसिंह भारत में सिख साम्राज्य के महाराजा थे जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम में भारत को एकीकृत किया और वहाँ राज किया। मात्र दस वर्ष की आयु में ही अपने पिता के साथ उन्होंने अपने जीवन का पहला युद्ध लड़ा था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कई युद्ध लड़े और अंततोगत्वा 21 वर्ष की आयु में ही वह पंजाब के महाराज कहलाए। गुजरांवाला के बाद उन्होंने लाहौर को अपना केंद्र बनाया और उसे पंजाब की राजधानी घोषित किया। बाद में सतलुज नदी पार कर फरीदकोटमुलेरकोटलाअंबाला और उत्तर पश्चिम में मुलतान और पेशावर पर कब्जा किया। उन्होंने न केवल कश्मीर को अतामोहम्मद के कब्जे से मुक्त कराया अपितु शाहशुजा अब्दाली को जेल से मुक्त कराकर उससे अमूल्य हीरा कोहिनूर भी प्राप्त किया। महाराजा रणजीत सिंह मंदिरों में ढेरों सोना दान करने के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी इच्छा थी कि वह कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में भगवान जगन्नाथ के चरणों में समर्पित करें। परंतु उनकी यह इच्छा पूरी होने से पहले ही वह यह संसार को छोड़कर चल बसे। जब तक वह जीवित रहे अंग्रेज़ पंजाब की धरती को पाने का मंसूबा पूरा नहीं कर पाये। उनकी मृत्युपर्यंत ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हुआ और भारत से कोहिनूर भी हथिया लिया गया।

रणजीत सिंह महान विजेता होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने ब्रिटिश एवं फ्रांसीसी सैन्य व्यवस्था के आधार पर एक कुशलसुप्रशिक्षित एवं सुसंगठित सेना का गठन किया। सरदार हरी सिंह नलवा उनका दाहिना हाथ थे। महाराजा रणजीत सिंह काल का प्रायः हर बड़ा युद्ध हरी सिंह नलवा के नेतृत्व में ही लड़ा और जीता गया था। पंजाब से अफ़ग़ानिस्तान तक विस्तृत उनके राज्य को एक कुशल प्रशासन और समृद्धि देने में हरी सिंह नलवा की प्रमुख भूमिका थी। उनके राज्य में बड़ी-बड़ी नई बस्तियाँ बसाई गईंजहां लोग नहीं रहते थे वहाँ खेतीबाड़ी के लिए प्रोत्साहन दिया गया और योजनाएँ लागू की गईं। नलवा ने अनेक नगरोंकिलोंप्राचीरोंहवेलियोंधर्मशालाओं और बगीचों का निर्माण करवाया। हरीपुर पूरे क्षेत्र में पहला किलाबंद और नियोजित नगर थाजिसमें आधुनिक जल वितरण की व्यवस्था थी। सभी सुविधाओं से सुसज्जित होने के कारण बाहर से खत्री एवं अन्य व्यवसायी वहाँ आकर बसे और नगर हर प्रकार से फलने फूलने लगा। महाराजा रणजीत सिंह और हरी सिंह नलवा आदर्श थे भूषण के।

13 अप्रैल 1919 को जब पंजाब बैसाखी का पर्व मना रहा थाजनरल डायर के एक आदेश पर अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एकत्रित 10,000 हिंदुओंसिखों को गोलियों से भून दिया गया। सैंकड़ों जानें गईं और हजारों घायल हुए। इस नरसंहार के बाद पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया जिसके उल्लंघन पर लोगों को बेतों से सरे-आम मारा जाता और नाना प्रकार के ज़ुल्म किए जाते। पूरे देश में इसके कारण आक्रोश था। नोबल पुरस्कार से सम्मानित रबीन्द्रनाथ टैगोर ने विरोधस्वरूप अपनी नाइट की पदवी त्याग दी थी। परंतु गांधीजी इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहते थे। पूरा देश उनकी ओर ताक रहा था। अंततः दिसंबर 1920 में उन्होंने देश में असहयोग आंदोलन का आह्वान किया था जिसे सत्याग्रह नाम दिया गया था। इस आंदोलन में भारतीयों को सभी ब्रिटिश संस्थानों का बहिष्कार करनेटैक्स अदा न करने और सरकारी नौकरियों को छोड़ देने को कहा गया।

जालियांवाला बाग कांड से क्षुब्ध भूषण के पिता ने हजारों देशभक्त भारतीयों की भांति तुरंत ‘म्लेच्छों की नौकरी का परित्याग कर दिया। परंतु सवा साल बाद ही उन्होंने स्वयं को ठगा सा पाया जब गांधीजी ने सत्याग्रह को इसलिए वापस ले लिया क्योंकि उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा नामक एक गांव में यह आंदोलन हिंसात्मक हो गया था। उनके द्वारा सरकारी अधिकारी की नौकरी का परित्याग निरर्थक हो गया था। फिर भी देश के लिए मर-मिटने की उनकी भावना अक्षुण्ण थीऔर यही संस्कार उन्होंने भूषण को दिये।

इस घटना के कुछ वर्ष बाद भूषण का जन्म गुजरांवाला में ही हुआ थाशेरे पंजाब की तरह। उन्हीं की भांति बाद में वह लाहौर आ गए थेउनकी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए। सरकारी अधिकारी का पद छोड़ देने के बाद भूषण के पिता वही करते थेजो उनके पूर्वज कश्मीर के दरबार में करते थेपुरोहित का कामयद्यपि उनके पास पूर्वजों की दी हुई इतनी संपत्ति थीकि बिना कुछ किए भी कुछ पुश्तें तो घर बैठे खा सकती थीं। बाद में उच्च शिक्षा के लिए उसे बॉम्बे भेज दिया गया था। उत्तर पश्चिमी भारत के अनेक सभ्रांत परिवार उनके शिष्य थे।

आज जब पूरा बॉम्बे उत्सव मनाने में मग्न थाभूषण का हृदय चीत्कार कर रहा था।

चार व्यक्तियोंमाउण्टबेटनगांधीनेहरू और जिन्ना ने मिलकर लिख डाला था भारत का भाग्य। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमंट ऐटली ने फ़रवरी1947 में भारत के वाइसरॉय के रूप में माउण्टबेटन की नियुक्ति की थी। उन्हें 30 जून2048 तक भारत की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के आदेश दिए गए थे। उन्हें यह भी कहा गया था कि वह यथासंभव भारत को विभाजित न होने दें। परंतु माउण्टबेटन अपने निजी कारणों से जून2048 तक अपने देश वापस जाना चाहते थे। वह वहाँ की रॉयल नेवी के प्रमुख बनने के लिए लालायित थे। सत्तालोलुप जिन्ना और नेहरू तथा गांधी के नेहरू प्रेम को भी यह अनुकूल लगा और आनन-फ़ानन में भारत की स्वायत्तता की तिथि 10 महीने पहले 15 अगस्त1947 निर्धारित कर दी गई। इस तिथि से माउण्टबेटन को व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी लगाव था क्योंकि 15 अगस्त 1945 को जापान की सेना ने उनके समक्ष आत्मसमर्पण किया था। जल्दबाज़ी में किए गए इस निर्णय के पक्ष में यह तर्क दिया गया कि शीघ्र कदम न उठाने से हालात बिगड़ जाएंगे और भारत में गृह युद्ध छिड़ जाएगा जबकि सत्य यह था कि कुछ लोगों को सत्ता पर आसीन होने की जल्दी थी तो कुछ को वापस इंग्लैंड लौटने की। निर्धारित तिथि से 10 महीने पहले स्वायत्तता देकर उलटे यह सुनिश्चित कर दिया गया था कि गृहयुद्ध होकर रहे।

स्वायत्तता की प्रतीक्षा तो पूरा देश कर रहा थापरंतु देश के टुकड़े कर दिये जाएंगेयह किसी ने नहीं सोचा था। भारत के विभाजन को भी स्वीकृति दे दी गई ताकि जिन्ना और नेहरू दोनों की महत्वाकांक्षाएँ पूरी हो जाएं। दोनों को एक-एक देश दे दिया गया राज करने को। इन चार व्यक्तियों को जो व्यक्तिगत कारणों से अनुकूल लगावह कर दिया गया। किसी ने यह नहीं सोचा कि यह सब होगा कैसे! कैसे इतने कम समय में लाखों-करोड़ों लोगों को नई सीमा रेखा के इस पार से उस पार कराया जाएगाबिना उन्हें क्षति पहुंचाए! किसी ने यह सोचा ही नहीं कि प्रश्न कागज पर कुछ नयी लकीरों का नहींकरोड़ों ज़िंदगियों का था। 9 अगस्त 1947 को सीरिल रेड्क्लिफ़ ने भारत के मानचित्र पर दो लकीरें खींच दीं और करोड़ों भारतीयों के भविष्य का निर्णय हो गया। एक लकीर से पश्चिमी पाकिस्तान बन गया और दूसरी लकीर से पूर्वी पाकिस्तान। अपने घर बैठे-बैठे भारतीय विदेश पहुँच गए। उन्हें मात्र इतना निर्णय करना था कि वे अब नए देश में रह कर प्रताड़ित होंगे अथवा प्रताड़णा झेलते हुएजीवित रहने का प्रयास करते हुए अपने देश में आना चाहेंगे। सीरिल रेड्क्लिफ़ एक वकील थेजो अपने जीवन में अब तक ब्रिटेन से बाहर पूर्व दिशा में कभी पेरिस से आगे नहीं गए थे। उन्हें ये लकीरें खींचने का अधिकार ब्रिटिश सरकार ने दिया था जिसे नेहरूजिन्नागांधी ने अपनी स्वीकृति दी थी।

जो खबरें युवा भूषण तक पहुँच रही थींउनपर विश्वास करना कठिन थाउसके युवा हृदय के लिए। दिल और दिमाग दोनों ही नकार रहे थे उन्हें। उनकी जांच वह स्वयं करना चाहता था। बहुत कुछ गलत हो रहा थाइतना तो अख़बारों में आ रही खबरों से भी पुष्ट हो रहा था। मुंबई से उत्तर दिशा में जाने वाली ट्रेन्स अनियमित थीं। उधर से आने वाले यात्री भी इन खबरों की पुष्टि कर रहे थे।

एक खबर के अनुसार गुजरांवाला में उसके घर से 30 मील दूर शेखूपुरा में घरों से हिंदुओंसिखों को इकट्ठा कर एक खुले मैदान में लाया गया और उनपर मिट्टी का तेल डालकर उन्हें जीवित जला दिया गया था। एक गली में उसके कुछ दूर के रिश्तेदारों और गली के अन्य हिंदुओं को भालों से मारा गया था और यह दृश्य उन्हीं में से एक परिवार की एक महिला नेजिसे चाची कहकर संबोधित करता था भूषणअपनी छत की मुंडेर के छिद्रों में से स्वयं देखा था और नेहरू-जिन्ना की लकीर लांघ कर इस पार आने वाले किसी रिश्तेदार से होती हुई यह खबर भूषण तक पहुंची थी। गली की एक वयोवृद्ध महिला अपने बेटे को छोड़ने की गुहार लगा रही थी। बदले में उन जल्लादों ने उसकी बाहों में से उसकी एक-वर्षीय पौत्री को छीना और उसे भाले से भेद कर उसे झंडे की तरह लहराने लगे... ला इलाहा इल्लल्लाह

भूषण का व्यथित हृदय अपने माता-पिता  और छोटी बहिन से मिलनेउन्हें देखनेउनका कुशल-क्षेम जानने को तड़प रहा था। कई पत्र लिखे थे उसने अपने माता-पिता  कोजो गुजरांवाला छोड़कर इधर-उधर भटक रहे थे परंतु उनका उत्तर नहीं आ रहा था। पता नहीं उसके पत्र उन्हें मिल भी रहे थे अथवा नहीं। बॉम्बे के बड़े बुज़ुर्गोंजिनमें से एक उसके कॉलेज में प्रोफेसर थे और पंजाबी थेने उसे उसके माता-पिता का हवाला देते हुए समझाया कि वह उनकी खातिर अपनी जान जोखिम में न डाले और धैर्यपूर्वक उनके पत्र की प्रतीक्षा करे। भूषण अपने माता-पिता  का इकलौता पुत्र था और उसकी जान की सुरक्षा उसे अपने माता-पिता के लिए ही करनी थी।

दिन पर दिन बीतते जा रहे थे। उसके पुरखों की धरती गुजरांवाला से एक दिल दहला देने वाली खबर आई। शहर के बड़े जमींदार बलवंत खत्री अपनी पत्नी प्रभावतीपुत्र बलदेव और सात पुत्रियों लाजवंतीराजवतीभगवतीपार्वतीगायत्रीईश्वरी और उर्मिला के साथ शांति और समृद्धि का जीवनयापन कर रहे थे। पत्नी प्रभावती प्रभावती पेट से थीं। कोठी में एक बार फिर किलकारियां गूंजने वाली थी। पंजाब के प्रायः हर शहर से खबरें आ रही थीं कि किस प्रकार भीड़ यलगार करती हुई आतीं और हिन्दू-सिख मर्दों को कत्ल कर उनकी औरतों को हड़पने का प्रयास करतीं। पर लाला जी आशावादी थे। उन्हें गांधी के आदर्शों पर विश्वास था। उन्हें लगता था ये कुछ मजहबी मदांध हैं। दो-चार दिन में शांत हो जाएंगे। और गुजरांवाला तो 'अव्वल अल्लाह नूर उपायागाने वाले लोग हैं। बाबा बुल्ले शाह और बाबा फरीद की कविताएं पढ़ते हैं। सूफी मजारों पर जाते हैं। ये लोग ऐसा नहीं करेंगेउनका मानना था। परंतु गुजरांवाला कोई अपवाद सिद्ध न हुआ। बल्कि वहाँ तो वह हुआ जिसकी कल्पना करना भी असंभव था। लालाजी को खबर मिली, “अपने मुख्तार भाई खुद भीड़ लेकर निकले हैंलाला जी। सारे हिंदू-सिख भारत भाग रहे हैं। 300-400 लोगों का एक जत्था घंटे भर में निकलने वाला है। परिवार के साथ शहर के गुरुद्वारे पहुंचिएफ़ौरन।

गुरुद्वारा हिंदू-सिखों से खचाखच भरा था। पुरुषों के हाथों में तलवारें लिए अपने परिवारों की औरतों की अस्मत बचाने के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार थे। गुजरांवाला शहर पहलवानों का शहर था। प्रायः हर बड़े मंदिर और गुरुद्वारे में अपने अखाड़े थे जहां नियमित रूप से कुश्तियाँ आयोजित की जाती थीं। कुछ लोग छत से निगरानी कर रहे थे। गुरुद्वारे के कुएं के पास रखे पत्थरों पर कुछ लोग तलवारों को धार दे रहे थे। महिलाएंलड़कियां और बच्चे दहशत में थे। सीने से बच्चों को चिपकाए हुईं माएँ ईश्वर से प्रार्थना कर रही थीं।

दूर से आ रही शैतानी आवाज़ें निकट आ रही थीं, “पाकिस्तान का मतलब क्याला इलाहा इल्लल्लाह... हंस कर लिया है पाकिस्तानखून से लेंगे हिंदुस्तान...भीड़ में शामिल लोगों के हाथों में तलवारफरसाचाकूचेन और अन्य हथियार थे। गुरुद्वारा उनका निशाना था।

खून की प्यासी भीड़ के पहले जत्थे को तो हिन्दू-सिख वीरों ने काट डाला। अब भीड़ गुरुद्वारे से कुछ दूर खड़ी नारे लगा रही थी, “काफिरोंकाटना हम दिखाएंगे... किसी मंदिर में घंटी नहीं बजेगी अब... हिन्दू की औरत बिस्तर में और आदमी शमशान में...

आधे घंटे में भीड़ हजारों दरिंदों की संख्या में परिणत हो गई। गुरुद्वारे में हिन्दू-सिखों की संख्या लगभग 400 थीजिनमें मात्र 40-50 ही युवा थे। आर-पार की घड़ी आ गई थी। अपना धर्म और औरतों का सम्मान बचाने के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की घड़ी थी यह। भीड़ गुरुद्वारे का दरवाज़ा तोड़कर भीतर घुस आई और कत्लेआम शुरू हो गया। रणबांकुरे अपनी आहुति देकर महिलाओं की रक्षा कर रहे थे। धीरे-धीरे तलवार हाथ में लिए हिन्दू-सिख ढेर होते गए और महिलाओं की सुरक्षा अब असंभव दिखने लगी।

अब वह हुआ जो मुग़लों के आक्रमण के समय भारत में हो चुका था। एक-एक कर लालाजी की पुत्रियाँ सामने आती गईं और लाला बलवंत उनके माथे चूम-चूम कर उनके सिर धड़ से अलग करते गए ताकि इन नरपिशाचों के हाथ वे न लगें। परंतु इन मृत महिलाओं के शरीर मृत्यु के बाद भी सुरक्षित नहीं थे। सबके शवों को लालाजी ने गुरुद्वारे के कुएं में डाल दिया। अपनी गर्भवती पत्नी को अपने पुत्र के साथ गुरुद्वारे के पिछले दरवाज़े से निकालकर लालाजी ने फिर मोर्चा संभाल लिया और अंत में स्वयं को चाकुओं से गोदकर उसी कुएं में छलांग लगा दी जिसमें अस्मिता बचाने के लिए उन्होंने अपनी पुत्रियों को डाला था।

भय और क्रोध के मारे भूषण का शरीर कांप रहा था। कहीं उसके माता-पिता वापस गुजरांवाला तो नहीं चले गए थे! कहीं गुरुद्वारे में इन 400 लोगों में वे भी तो नहीं थे! अपनों की चिंता में व्यक्ति किसी भी अनिष्ट की कल्पना करने लगता है।

1946 में भारत के विभाजन को लेकर ब्रिटिश सरकार ने जो कैबिनेट मिशन बनाया थाउसकी संस्तुतियों पर जिन्ना और नेहरू में मतभेद हो गए थे और जिन्ना ने जुलाई, 1946 में कैबिनेट मिशन की संस्तुतियों से अपनी सहमति वापस लेकर 16 अगस्त1946 को डाइरैक्ट एक्शन डे घोषित किया था और हड़ताल का आह्वान किया था। इससे बंगाल में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए और अकेले कलकत्ता में मात्र 72 घंटों में 4000 लोग मारे गए और एक लाख लोग घर से बेघर हो गए। सांप्रदायिक दंगों की इस आग की लपटें पंजाब में भी पहुँचीं और छिटपुट दंगे वहाँ भी शुरू हो गए थे। 

पूर्वी पंजाब में एक राजा थेभूषण के पिताजी को अपना गुरू मानते थे। उन्होंने अनुग्रह किया कि पंजाब में भी बंगाल की भांति भीषण दंगे भड़क सकते हैं। इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से वे कुछ समय के लिए उनके पास आ जाएँ। जब दंगे शांत हो जाएँ तो वे वापस जा सकते हैं। भूषण के पिताजी ने यह बात मान ली थी। भूषण तो पहले से ही बॉम्बे में था, उच्चस्तरीय पढ़ाई के लिए। गुजरांवाला में उनके पास उनकी पुत्री थी जिसे उन्होंने गोद में उठायाएक ट्रंक में कुछ कपड़े डाले और ‘कुछ दिनों’ के लिए मन बनाकर वे अपने शिष्य राजा के पास आ गए। अपनी अपार संपत्ति और उसके कागजात के बारे में सोचा ही नहीं और सब पीछे छूट गया गुजरांवाला में। जो लोग 1947 के उत्तरार्ध में भारत की सीमा में आए थेउनमें से अधिकांश जान पर खेलकर आए थे। उनमें से जो सीमा लांघ सकेउनके पास प्रायः अपनी संपत्ति के कागजात थेजिसके बदले में उन्हें भारत सरकार से कुछ मुआवजा मिला था। परंतु भूषण के माता-पिता के पास तो अब गुज़ारे के लिए नकदी भी समाप्तप्राय थी।

कुछ दिन’ द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ते जा रहे थे। कब तक वे किसी शिष्य के आसरे रहतेवे वहाँ से निकल आए और दिल्ली आ गए भूषण के मामाजी के घर। बीच बीच में वे अंबालाअमृतसर आदि स्थानों में रहने वाले अन्य रिश्तेदारों के पास भी जातेइस आस मेंकि एक बार वहाँ से गुजरांवाला होकर आने की कोई जुगत लग जाए। चाहकर भी वह अपने पूर्वजों की धरती कश्मीर में शरण नहीं ले सकते थे क्योंकि विभाजन के तुरंत बाद वहाँ से भी छिटपुट दंगों की खबरें आ रही थीं। फिरउनकी धन-सम्पत्ति तो सब गुजरांवाला में ही थी। बाद के महीनों में उनकी सोच की पुष्टि हुई जब 1947 में ही पचास हज़ार से अधिक हिंदुओं-सिखों को कश्मीर में मार डाला गया। परंतु अधिकांश समय वे दिल्ली में अपने मामाजी के पास ही रहते। जब तक भूषण को पत्र मिलता और उसे पता चलता कि वे अब कहाँ हैंतब तक वे स्थान बदल चुके होते। अपने घर के बिना कहाँ चैन मिलता है व्यक्ति को?

गुजरांवाला से आई खबर ने भूषण को भीतर तक झकझोर दिया था। अब वह और प्रतीक्षा नहीं कर सकता था। उसे अब जाना ही था अपने माता-पिता के पास। अपनी सुरक्षा के नाम पर वह अपने माता-पिता और छोटी बहन के कुशल-क्षेम के प्रति इस प्रकार निश्चेष्ट नहीं बैठ सकता था।

जब भूषण दिल्ली के लिए ट्रेन में बैठा तो उसे यह अहसास हुआ कि ऐसा नहीं था कि लोगों को दिल्ली और पंजाब की स्थिति के बारे में जानकारी थी ही नहीं। ट्रेन सामान्य की तरह खचाखच भरी नहीं थी। रास्ते में अन्य यात्रियों से बात कर उसे पता चला कि कोई विरला ही दिल्ली तक जा रहा था। अधिकांश  यात्री रास्ते के स्टेशनों पर ही उतरने वाले थे। सबने उसे यही सलाह दी कि इस समय दिल्ली जाना कोई अकलमंदी की बात नहीं थी। उसे भी कुछ दिनों के बाद ही जाना चाहिए।

कुछ ने तो यह भी बताया कि दिल्ली में तो स्थिति और भी भयावह थी। भारत के दो टुकड़े होने से पहले दिल्ली में हिन्दू मुसलमानों की जनसंख्या लगभग बराबर थी। सांप्रदायिक दंगे दिल्ली में अपने चरम पर थे। लाहौर और गुजरांवाला की तरह यहाँ एक-तरफ़ा ज्यादती नहीं थी। यहाँ तो हिन्दू और मुसलमान में भेद करना भी कठिन था। हर किसी के मन में असुरक्षा की भावना थी। कई जगहों पर छुरों से बात होती थीशब्दों से नहीं। कुल नौ लाख जनसंख्या वाले दिल्ली में से तीन लाख से अधिक मुसलमान पाकिस्तान के लिए पलायन कर गए थे अथवा कर रहे थे। साथ हीलगभग पाँच लाख हिन्दू अपने घर से बेघर होकर दिल्ली में शरण ले रहे थे। दिल्ली का कायाकल्प हो रहा था भीषण रक्तपात के साथ। सिंध प्रांत से आने वाले निर्धन कृषक और छोटे व्यापारी तो पैदल ही कराची पार कर राजस्थान और गुजरात में बस रहे थे। उनमें से अनेक को बाद में वहाँ से उठाकर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में ले जाया गया।

पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थियों में से अधिकांश ने पूर्वी पंजाब और दिल्ली का रुख किया। परंतु दिल्ली भी तैयार नहीं थी पंजाब से बेघर होकर आए शरणार्थियों को आसरा देने को। दिल्ली के मूल निवासी उन्हें शरणार्थी कहकर ऐसे पुकारते थे जैसे वे कोई निकृष्ट प्राणी हों। अपने घर से निष्कासितदिल्ली में तिरस्कृत हिन्दू और सिख जहां जगह मिलीबसने लगे। पश्चिमी पंजाब में बड़ी-बड़ी हवेलियों के मालिक फ़ुटपाथों पर सोने को मजबूर थेअपने ही देश में तंबुओं मेंखंडहरों मेंखुले मैदानों में रहने को मजबूर थे। आधा पेट भोजन करने को मजबूर थे।

यहाँ के मुस्लिमों को डर था कि पाकिस्तान के मुस्लिमों के पीड़ित हिन्दू प्रतिशोध ले सकते हैं। वे गांधीजी से मिले। गांधी जी को पाकिस्तान से प्रताड़ित होकर बेघर हुए हिंदुओं-सिखों से अधिक चिंता थी अपने घरों में सुख से रहने वाले मुसलमानों की। गांधीजी ने नेहरूजी से बात की और उन्होंने सरकारी आदेश जारी कर दिया कि कोई शरणार्थी हिन्दू-सिख पुरानी दिल्ली क्षेत्र में नहीं बस सकता।

जिनके पास धन-संपदा का प्रमाण थाउन्हें तो मुखर्जी नगरराजिन्दर नगरपटेल नगरइंदरपुरी और लाजपत नगर आदि नई बस्तियों में छोटे छोटे मकान आवंटित कर दिए गए परंतु जिनके पास प्रमाण नहीं थेवे दशकों तक अपने पैरों पर खड़े होने के लिए संघर्ष करते रहे। किंग्स्वेहड्सन लाइनरीड्स लाइन और खालसा कॉलेज जैसे क्षेत्रों में शरणार्थियों के लिए कैंप लगाए गए थेजहाँ पंजाबी अपने ही देश में शरणार्थी बनकर तंबुओं में रहने को मजबूर थे और हाथ में कटोरा लिए दो रोटी की प्रतीक्षा करते थे।

दिल्ली से पहले ही रेलवे के प्लैटफ़ार्म निर्जन दिखने शुरू हो गए थे। भूषण अपने ट्रेन के डिब्बे में अकेले बैठा विचारों में खोया हुआ था। यह कैसा समय आ गया थागुजरांवाला और लाहौर की कितनी मीठी यादों के सहारे ही तो वह बॉम्बे में रह रहा था! हर दिन वह प्रतीक्षा करता कि कब उसकी पढ़ाई पूरी हो और वह अपने घर गुजरांवाला वापस लौटे। भविष्य को लेकर उसके समस्त सपने उसके घर गुजरांवाला और लाहौर से जुड़े हुए थे। अचानक सब कुछ इतना कैसे बदल गयालोग कैसे बदल गएपड़ोसियों ने पड़ोसियों को मार डाला! बचपन के मित्र खून के प्यासे हो गए! घरहवेलियाँ लूट कर जला दी गईं। महिलाओं का बलात्कार किया गयाबच्चों को उनके भाई-बहनों के सामने काट डाला गया। यह धार्मिक उन्माद था या फिर लूट की भूखकुछ ही महीनों में लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को बेघर कर दिया गांधीजी की इस ज़िद ने कि विभाजन होकर रहेगा!

रास्ते में लोगों और प्लैटफ़ार्म पर दूकानदारों से भूषण को जो खबरें मिल रही थीं वे बहुत विचलित करने वाली थीं। दिल्ली में एक ट्रेन पहुंची थी जिसमें केवल शव ही शव थे। जब ट्रेन में चढ़े थे तो सबके नाम थेपहचान थीरिश्ते थेसपने थे। रास्ते में ही उन्हें लाशों में परिणत कर दिया गया थातीन हज़ार से अधिक लोगों को। सीमा पार से अपनी जान बचाकर निकले हिन्दू-सिखों पर रास्ते में आक्रमण कर दिया गया था और वृद्धयुवास्त्रीबच्चे सभी यात्रियों को काट डाला गया। उनके पास जो भी सामान थावह भी लूट लिया गया था। ऐसी अनेक ट्रेनें थीं जिनपर रास्ते में हमला किया गया था। कितनी प्यास थी लहू कीकितनी भूख थी सोनेचांदी के ज़ेवरों की जो महिलाओं के शवों से खींच लिए गए थेकितनी नफ़रत थी उन हिंदुओं-सिखों सेजो कल तक मुसलमानों के सुख-दुख के सहभागी थे पश्चिमी पंजाब में?

भूषण की ट्रेन प्लैटफ़ार्म से बहुत पहले ही रुक गई थीफ़रीदाबाद पार करने के बाद कहीं खेतों में। खबर मिली कि दिल्ली स्टेशन पर मार-काट चल रही थी। एक और ट्रेन आई थी पंजाब से जिसमें से लहू बहकर रेलवे प्लैटफ़ार्म को लाल रंग रहा था जिसे देखकर कुछ हिन्दू-सिखों का लहू उबल गया था और हिंसा का तांडव चल रहा था वहाँ। कुछ लोग बता रहे थे कि पुरानी दिल्ली को शाहदरा से जोड़ने वाला यमुना पुल लाशों से पटा हुआ था। पुल के पास ही मुसलमानों की बस्ती थी और उन्होंने कब्जा कर लिया था पुल पर और हर आने जाने वाले हिंदू-सिख को वे काट रहे थे। जहां-जहां मुसलमान अधिसंख्य थेवहाँ-वहाँ दंगे हो रहे थे। इन दंगों के शिकार भी अधिकतर पंजाब से आए हुए शरणार्थी ही थे क्योंकि वे सड़कों पर थे। घर तो उनके पास थे नहीं दिल्ली में।

भूषण के पास जो अंतिम सूचना थी उसके अनुसार उसके माता-पिता उनके मामा जी के पास कहीं करोल बाग में थे। फ़रीदाबाद के पास ट्रेन से उतर कर भूषण ने पैदल ही करोल बाग जाने का निर्णय किया। यही सुरक्षित था। लगभग बीस मील की वह पैदल यात्रा उसके जीवन की सबसे कठिन और लोमहर्षक यात्रा थी। संध्या का समय था और ट्रेन समय से पहले ही फ़रीदाबाद पार कर चुकी थी। ट्रेन जंगल में कहीं खड़ी थी। भूषण ने रात में ही करोल बाग तक की पैदल यात्रा पूरा करने का निर्णय लिया।

1947 तक दिल्ली मूलतः एक दीवार के भीतर सुरक्षित शहर था। इस दीवार के उत्तर में सिविल लाइंस था जो किंग्स्वे कैंप तक विस्तृत थादक्षिण में अंग्रेजों का लुट्यंस नई दिल्ली थापश्चिम में दीवार के साथ सटा पहाड़गंज और करोल बाग क्षेत्र था तो पूर्व में यमुना नदी बहती थी जिसके पार शाहदरा की पुरानी बस्ती थी। शेष क्षेत्र कृषि क्षेत्र था जिसके बीच-बीच में कुछ गांव और पुराने शहरों के अवशेष थे। जनसंख्या की दृष्टि से गुजरांवाला के बराबर ही था दिल्ली शहर।

ट्रेन से उतर कर पैदल यात्रा करने वाले कुछ और लोग भी थे। किसी ने हौज़ खास जाना था तो किसी ने धौला कुआं तो कोई पुरानी दिल्ली जाना चाहता था। हौज़ खास और धौला कुआं में कुछ बस्तियाँ थीं। जब तक संभव हुआभूषण ने उन लोगों का साथ नहीं छोड़ा। हौज़खास था तो मूलतः हिंदुओं का गांव परंतु उसके पास कुछ मुस्लिम गांव भी थे। पैदल यात्रियों में एक व्यक्ति हौज़खास का रहने वाला था परंतु उससे भी रात के अंधेरे में भूल हो गई। वह उन सबके साथ एक मुस्लिम गांव के पास पहुँच गया। इस भूल का अहसास उसे तब हुआ जब कुछ हथियारबंद मुस्लिम सामने से आते दिखे। उस स्थानीय यात्री ने सबको तुरंत आगाह कर दिया और सबसे कह दिया कि वे अपने लिए कोई मुस्लिम नाम सोच कर रख लें और कोई पूछे तो अपना मुस्लिम नाम ही बताएं।

भूषण के दिमाग में गुजरांवाला और लाहौर से आने वाली खबरें चलचित्र की भांति घूम गईं। एक पल को उसे ऐसा लगा मानो सब यात्रियों का अंतिम समय आ गया हो। उसने ठान लिया कि यदि मरना भी पड़ा तो कम से कम दो को तो मारकर ही मरेगा वह। मन ही मन वह स्वयं को कोस रहा था कि क्यों उसके हाथ में भी कोई हथियार नहीं था। अब तो इन हमलावरों से हथियार छीनकर ही युद्ध करना पड़ेगा। बिना युद्ध के एक निरीह बकरे के समान आत्मसमर्पण करना तो कायरता होती।

हथियारबंद मुस्लिमों का वह जत्था निकट आ गया था। भूषण ने मन ही मन यह सोचना शुरू कर दिया कि वह किस प्रकार सामने वालों में से एक पर आक्रमण कर उसका हथियार छीनेगा और उनपर उस हथियार से हमला कर देगा।

भूषण का सहयात्री, जो वहीं का रहने वाला था, बहुत साहसी और समझदार निकला। उसने आगे बढ़कर उन हथियारबंद मुस्लिमों से पूर्ण विश्वास से बात की और सामने से आने वाला झुंड मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया। कुछ कदम चलने के बाद उसने बताया कि उसने उनसे किसी स्थानीय मुस्लिम के बारे में कुछ पूछा जिससे उन्हें भरोसा हो गया कि वे भी मुस्लिम ही थे। भूषण और अन्य यात्रियों की जान में जान आई। यदि वह स्थानीय साहसी व्यक्ति उनके साथ न होता तो आज उनके लिए वह अंतिम समय होता।

धौला कुआं से आगे करोल बाग तक का रास्ता जंगल और रिज का मार्ग था। मार्ग में हिंस्र पशुओं का खतरा था परंतु दिन में खतरा अधिक था। यह रास्ता उसे अकेले ही पार करना थाबिना रुके। एक बार मौत का साक्षात्कार करने के बाद उसका डर भी बहुत कम हो गया था।

पौ फट गई थी। भूषण करोल बाग क्षेत्र में प्रवेश कर चुका था जो एक हिन्दू-बहुल क्षेत्र था। मुस्लिम वहाँ नगण्य थे। भूषण अब सुरक्षित था। परंतु माता-पिता और बहिन के कुशल-क्षेम की भूषण की चिन्ता अब और भी प्रबल हो गई थी। कैसे होंगे वेयहीं करोल बाग में होंगे नकहीं वापस गुजरांवाला के लिए तो नहीं निकल पड़े होंगेया फिर अमृतसरअंबाला जैसे किसी और स्थान के लिए तो प्रस्थान नहीं कर गएयदि वे यहाँ न मिले तो वह कैसे ढूंढेगा उन्हेंसुरक्षित तो होंगे न वे सब?

पता पूछते-पूछते वह अपने पिताजी के मामा के घर तक पहुँच गया। उसके दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं। सहमे हाथों से उसने दरवाजा खटखटाया। दरवाज़ा उसकी माताजी ने ही खोला। पीछे-पीछे उसके पिताजी आ रहे थे। उन्हें देखकर भूषण का शरीर शिथिल हो गया, आँखें नम हो गईं और होंठ कांपने लगे। माता-पिता का मन! पता नहीं कैसे उन्हें अहसास हो गया था कि उनका पुत्र है दरवाज़े पर! कितने दिनों से उनकी निगाहें दरवाज़े पर ही टिकी हुई थीं! कितने पत्र लिखे थे उन्होंने! परंतु न पिता के पत्र पुत्र को मिल रहे थे और न ही पुत्र के पत्र उसके माता-पिता को। दरवाज़े पर ही आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी। माता-पिता और पुत्र के आनंद की सीमा नहीं थी। उसकी छोटी बहिन शोर सुनकर बिस्तर से उठी थी और पिताजी के मामा की गोद में अलसाई हुई इस दृश्य को समझने का प्रयत्न कर रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपने भैया को इतने लंबे अंतराल के बाद देख कर खुश हो अथवा वह भी रोये औरों की भांति।

एक छोटे से परिवार का महीनों बाद पुनर्मिलन हो गया था परंतु सब कुछ बदल चुका था इस बीच। जैसे एक युग बीत गया हो। वह बड़ी हवेली पीछे छूट गई थी। वे खेत-खलिहान बहुत पुरानी बात हो चुकी थी। अब तो उनके पास एक छत भी नहीं थी अपनी। पहलवानों के देस गुजरांवाला के पण्डितजी सूख कर कांटा हो चुके थे। जो पंडिताइन अपने बड़े जिगरे के लिए पूरे शहर में विख्यात थींजिनके घर से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटता था, जिनके घर में धन खुली टोकरियों में रखा होता था, वह स्वयं अपने बच्चों के मुंह में निवाला डालने के लिए किसी और पर निर्भर थीं जो स्वयं अपने संयुक्त परिवार के साथ करोल बाग के साथ एक छोटे से मकान में रहते थे। भूषण की माताजी की आँखें रो-रोकर रुग्ण हो गई थींपरंतु इलाज के लिए पैसे नहीं थे।

शाम को भूषण छत पर अकेला टहल रहा था। अगर उसके माता-पिता विभाजन के बहुत पहले ही अपना शहर छोड़ कर इधर न आ गए होते तो उनके पास समय होताधन-संपत्ति साथ लाने का। ज़मीन-जायदाद के कागजात साथ लाने का। तो आज वे इस प्रकार बेबस न होते आर्थिक दृष्टि से। परंतु क्या वे आ भी पाते जीवित?

एक नया जीवन मिला था भूषण और उसके माता-पिता कोपरिवार को। इस नए जीवन में बहुत कुछ करना था भूषण को। माताजी की आँखों का ऑपरेशन करवाना था। पिताजी की खोयी हुई सेहत को वापस लाना था। छोटी बहन की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था करना था। परिवार के लिए एक घर ढूँढना थाकिराये पर ही सही। उस किराये की व्यवस्था करनी थी। उधर कृशकाय पिताजी ने अपनी अंतिम इच्छा की घोषणा कर दी थीबीते हुए कल को भूलकर वह अपने बेटे के सिर पर सेहरा देखना चाहते थे।

भूषण के लिए सबसे पहला आवश्यक कदम थाअपने लिए एक नौकरी ढूँढना। और हाँउससे पहले बॉम्बे जाकर अपनी पढ़ाई को भी तो बीच में छोड़ना थाहॉस्टल खाली करना था.... विनाश के बीच निर्माण करना थासृजन करना था।