सुगम और सुखद अनुभव कम ही स्मरण रहते हैं. चुनौतियां ही स्मृतियों को सुखद बनाती हैं और स्मरणीय भी.
यह बात तब की है जब एक सरकारी बैंक में मेरी नौकरी का पहला वर्ष था. बैंक में पहला वर्ष ट्रेनिंग का होता था जिसमें विभिन्न शहरों की शाखाओं में भिन्न भिन्न प्रकार के कार्य करने और सीखने के वास्ते जाना होता था. पहले वर्ष में वर्षपर्यन्त केवल 12 आकस्मिक छुट्टियां मिलती थीं. एक भी छुट्टी अधिक लेने से न केवल तनख्वाह कटती थी बल्कि साथ ही जीवन भर के लिए अपने ग्रुप की सीनियरिटी भी जाती रहती थी.
मैं इससे पहले स्काउटिंग के कैंप आदि में तो जाता रहता था, परन्तु इतने लंबे समय के लिए घर से बाहर रहने का मेरा यह पहला अनुभव था. पहली पोस्टिंग दिल्ली में थी, दूसरी चेन्नई में, फिर दिल्ली, फिर चेन्नई और वहां से सीधे मुंबई. चेन्नई में रहते हुए रविवार या कोई राजपत्रिक अवकाश के साथ जोड़कर छुट्टियां लेकर दक्षिण भारत के अनेक मुख्य दर्शनीय एवं तीर्थ स्थान देख लिए. स्वाभाविक है, घर की बहुत याद आ रही थी. दीवाली के अवसर पर बचे-खुचे आकस्मिक अवकाश दीपावली अवकाश के साथ जोड़कर घर आए, परिवार के साथ मिलकर दीवाली मनाई. आने-जाने की ट्रेन रिजर्वेशन पहले से करा रखी थी मैंने.
जब जाने का समय आया तो बचपन के एक मित्र ने मेरे साथ मुम्बई चलने का कार्यक्रम बना लिया. वह एक व्यावसायिक परिवार से था और उसने कभी दिल्ली के बाहर अकेले कदम रखा ही नहीं था.
मैंने अपने लिए किसी फटीचर ट्रेन में रिज़र्वेशन करवा रखा था क्योंकि किसी सुपरफास्ट ट्रेन में बर्थ उपलब्ध नहीं थी. अब मित्र की रिज़र्वेशन कैसे मिलती? मित्र के पिताजी दिल्ली में पार्षद भी थे. उनकी सिफ़ारिश से उनके क्षेत्र के कई लोग वीआईपी कोटे का लाभ उठाते रहते थे. उनके अपने पुत्र के लिए क्या समस्या थी. अपने पुत्र को वह अकेले भेजना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने मेरा रिज़र्वेशन रद्द करवा दिया और एक सुपरफास्ट ट्रेन में हम दोनों की बर्थ्स वेटिंग में बुक करवा दीं और वीआईपी कोटे के लिए औपचारिकताएं कर दीं.
हमें स्टेशन तक छोड़ने मेरे मित्र के दो बड़े भाई आए थे. स्टेशन पहुंचे तो चार्ट में हम दोनों के नाम नहीं थे. यह देख मुझे तो काटो तो खून नहीं. मित्र के भाई बोले, "कोई बात नहीं, कल की बुकिंग करवा देते हैं. इस बार प्रधानमंत्री के कोटे से रिज़र्वेशन कन्फर्म करवा देंगे.
बहुत मुश्किल से उन्हें समझाया कि इस ट्रेन से जाने के अलावा मेरे पास कोई उपाय नहीं था क्योंकि मैं वर्ष की सभी 12 छुट्टियां ले चुका था एवं अगले दिन सुबह दस बजे से पहले यदि मैं बैंक नहीं पहुंचा तो इतने परिश्रम के बाद
प्रतियोगी परीक्षा में प्राप्त सीनियरिटी जाती रहेगी, मेरा करियर खराब हो जाएगा. मैंने उनसे कहा कि वे मेरे मित्र को अगले दिन भेज दें, मैं इसी ट्रेन से निकलूंगा चाहे जो हो जाए.
मित्र को यह स्वीकार नहीं था. ट्रेन चलने में अभी बहुत समय था और मित्र के भाई किसी जुगाड़ में लग गए. प्लेटफॉर्म पर ही एजेंट घूम रहे थे. उनमें मुख्य एजेंट था बॉबी. बाकी सब एजेंट भी उसी के लिए काम कर रहे थे. सबका यही कहना था की 'बॉबी साहिब की बहुत चलती थी रेलवे में.
'बॉबी साहिब' से बात की गई. उन्होंने कहा कि भाग कर टिकट काउंटर से फर्स्ट क्लास की दो टिकट्स ले आओ, बाकी मैं करवा दूंगा. जितने की टिकट्स आनी थी, उससे अधिक का 'सेवा शुल्क' मांगा उसने. भावतोल करने पर वह कहता 'फिक्स्ड रेट' और अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेता. प्लेटफॉर्म पर हम जैसों की बहुत भीड़ थी.
मुझसे पूछे बिना मेरे मित्र के भाईयों ने इस डील को स्वीकार कर लिया. अपने एक आदमी को बुलाकर बॉबी ने हमें उसे टिकट के मूल्य जितनी राशि देने को कहा. वह व्यक्ति पैसे लेकर चल दिया. "पता नहीं, वह व्यक्ति वापस आता भी है नहीं," यह सोचकर मैं उसके पीछे बदहवास भागा. टिकट काउंटर पर बहुत भीड़ थी. उधर ट्रेन का टाइम हो रहा था. मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं. काफ़ी देर बाद टिकट्स मिलीं उसे. मेरे मांगने पर उसने दो टूक उत्तर दिया कि टिकट्स तो बॉबी साहिब ही देंगे आपको.
प्लेटफॉर्म पर पहुंचे तो ट्रेन का टाइम हो गया था. कहीं ट्रेन चल न पड़े, यह सोचकर मेरा दिल धौंकनी की तरह चल रहा था. अपना सेवा शुल्क लेकर बॉबी ने हमें एक कोच नंबर और बर्थ्स नंबर बताए और बोला, "जल्दी सामान अंदर रखो, ट्रेन चल पड़ी है." हम सबने भागकर बताई गई कोच में सामान चढ़ाया. ट्रेन रेंगने लगी पटरी पर. अचानक मुझे स्मरण आया, अरे, टिकट्स तो बॉबी के पास ही हैं. मैं चलती ट्रेन छोड़ भागकर बॉबी के पास आया. उसने बिना किसी जल्दी के जेब से टिकट्स निकालकर मुझे दे दीं. मेरी सांस में सांस आई और मैंने फ़िर से चलती ट्रेन को भाग कर पकड़ लिया.
हम बॉबी द्वारा बताई गई बर्थ्स की ओर बढ़ ही रहे थे कि हमें टीटीई महाशय दिख गए. हम मुस्कुराते हुए उनकी ओर बढ़े उन्हें अनरिजर्वड टिकट देकर बोले, सर हमें बॉबी ने बताया है कि आपसे इन दो बर्थ्स के लिए बात हो गई है.
यह सुनते ही भलेमानस से दिखने वाले टीटीई महाशय के चेहरे पर कड़वे भाव आ गए. बोले, "तो उस बॉबी से ही ले लो न ये बर्थ्स! मैं किसी बॉबी-वॉवी को नहीं जानता. आप दोनों अगले स्टेशन पर अपने आप उतर जाना, वरना चालान भी करूंगा और पुलिस के हवाले कर दूंगा."
मैं तो उनका कड़ा रुख देखकर सकते में आ गया था, परन्तु मेरा मित्र उनसे अनुनय विनय करने लगा. सब प्रयास विफल रहे. अगला स्टेशन आने से पहले वह टीटीई महाशय सब काम छोड़कर हमें यूं घूर रहे थे, मानो उन्हें रेलवे ने हमें ट्रेन से उतारने के काम पर ही रखा था!
हम सामान सहित उस कोच से उतरे. बिना समय गंवाए मैंने निर्णय लिया और फर्स्ट क्लास की एक अन्य कोच में हम चढ़ गए. मित्र को सामान सहित एक ओर खड़ा किया और मैं निकल गया भीख मांगने! अंततः एक कूपे में बैठे दो यात्रियों को मैंने राज़ी करवाया कि वे हमारा सामान अपने कूपे में रख लें. हम कहीं भी, किसी भी क्लास में बैठ कर, खड़े होकर यात्रा कर लेंगे, हमने निर्णय किया.
अब हम सामान की चिंता से मुक्त हो गए थे. केवल अपने नश्वर शरीरों को टीटीई की निगाहों से बचाते हुए मुम्बई तक पहुंचाना बाकी था.
हम एक कोच से दूसरी कोच, फर्स्ट क्लास से एसी से स्लीपर क्लास में चढ़ उतर रहे थे. जब थक जाते तो फर्स्ट क्लास में जो अटेंडेंट की सीट होती है, उसपर बैठ जाते. उस सीट से वैसे भी कोच से जल्दी नीचे उतरने में सहायता होती है.
लुका-छिपी का यह खेल खेलते हुए रात होने को आई. रतलाम आने वाला था. हम उस कोच के गेट के पास नीचे प्लेटफॉर्म पर खड़े थे, जिसके एक कूपे में हमारा सामान रखा था, कि एक अन्य टीटीई महोदय हमारे पास आए और मुस्कुरा कर बोले, "मैं तुम्हें घंटों से देख रहा हूं, यह जो खेल तुम खेल रहे हो. मेरी ड्यूटी यहीं तक है. मैं तुम्हें बता दूं कि यहीं रतलाम में तुम उतर जाओ और आगे की यात्रा कल दिन में करना. रात के समय तुम्हें कोई कोच में ठहरने नहीं देगा और तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है." यह कहकर और मेरे कंधे पर स्नेह से हाथ रखकर वह चले गए. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा उन्हें धन्यवाद तक न कह सका.
परन्तु अगले दिन ड्यूटी ज्वाइन करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझ रहा था मुझे. हमने इसी ट्रेन में यात्रा जारी रखने का निर्णय लिया. हां, फर्स्ट क्लास से हटकर हम एसी कंपार्टमेंट में आ गए थे. एक अनजान सज्जन व्यक्ति ने हमें यह राय दी थी कि एसी में बर्थ मिलने की संभावना अधिक थी, पेनल्टी का भुगतान करके, और हम उसे आजमाना चाहते थे.
कोच में एक खाली बर्थ देखकर हम उसपर बैठ गए. थोड़ी ही देर में रतलाम से ही एक परिवार चढ़ा. हम बर्थ पर बैठे रहे. सोचा, अभी टीटीई आएंगे तो उठ जाएंगे. जिस बर्थ पर हम बैठे थे, वह इसी परिवार की थी, इतना तो हमें आभास हो गया था.
उस परिवार में एक बच्चा था, बहुत प्यारा और बातूनी बच्चा. आते ही वह हमारा मित्र बन गया. उसकी मासूम बातों को सुन हम कुछ पलों के लिए अपना कष्ट भूल से गए थे. उसके पापा बाहर निकले और खिड़की में से उसे आलू के चिप्स और कोल्ड ड्रिंक पकड़ाए. वह अपने पिता जी से हमारे लिए भी कोल्ड ड्रिंक्स लाने को कहने लगा. हमें बहुत अजीब लग रहा था. बहुत मुश्किल से उसे मनाया. फिर भी हमें यह मजबूर करके ही वह माना कि हम उसके पैकेट में से उसके चिप्स सांझा करें.
जब ट्रेन चली और उसमें रतलाम से जो टीटीई महोदय चढ़े, उन्हें देखकर तो मेरे होश ही उड़ गए. मैंने तब तक बहुत यात्राएं तो नहीं की थीं, परन्तु उन टीटीई महोदय की सख्ती मैं दिल्ली कानपुर रूट पर देख चुका था, दो नियमित यात्रियों की आपसी बात में उनकी बहुत बड़े 'खड़ूस' होने की चर्चा भी सुन चुका था. वह एक सरदारजी थे और न भूल सकने वाले व्यक्तित्व के धनी थे.
आते ही उन्होंने अपनी कर्कश वाणी में यह ऐलान कर दिया कि कोच में कोई बर्थ खाली नहीं थी और जिनके पास कन्फर्म्ड बर्थ न हो, वे अपना और उनका समय खराब न करें. बिना बात किए अगले स्टेशन पर उतर जाएं, वरना उनके साथ पुलिस बात करेगी. हमारी हालत खराब थी. यहां तो फर्स्ट क्लास से भी बुरा हाल हो रहा था.
अचानक बच्चे ने हमसे पूछा, "मगर आप लोग यहां क्यों बैठे हो? आपकी सीट्स कहां हैं?"
"अभी चले जाएंगे बेटा," मैंने उत्तर दिया, "हमारी बर्थ कन्फर्म्ड नहीं हैं. टीटीई अंकल से बात करते हैं, जब वह इधर आएंगे तो. आपको लेटना हो तो लेट जाओ, हम खड़े हो जाते हैं."
उस बच्चे ने जो आगे कहा, उसकी आशा हमें बिलकुल नहीं थी. वह बोला, "नहीं, नहीं अंकल, आप बैठो. मेरे पापा रेलवे में हैं; वह दिलवा देंगे आपको बर्थ." इतना कहकर वह अपने पापा से हमारे लिए सिफ़ारिश करने लगा ज़ोर शोर से. उसके पापा ने उसे समझाने की कोशिश की तो वह अड़ गया, "अगर इन्हें बर्थ नहीं मिली तो मैं दे दूंगा इन्हें अपनी बर्थ. मैं नीचे ज़मीन पर सो जाऊंगा.
उसके पापा हार गए अपने छोटे से पुत्र से. थोड़ी ही देर में जब टीटीई महोदय हमारे पास आए तो उन्होंने खड़े होकर उनसे बात की हमारे बारे में. टीटीई महोदय ने हमसे भी पूछताछ की. हमने उन्हें अपनी मजबूरी बता दी कि क्यों मेरा यही ट्रेन पकड़ना आवश्यक था. बॉबी वाला प्रकरण उनसे जानबूझकर छुपा लिया हमने. उन्होंने बहुत सौम्यता के साथ हमें बता दिया कि उनके पास न तो कोई खाली बर्थ उपलब्ध थी और न ही उन्हें मुम्बई तक किसी बर्थ के उपलब्ध होने की संभावना थी. फिर भी, उन्होंने हमें बैठे रहने को कहा और 'कुछ करने' का आश्वासन दिया.
हम हतप्रभ थे उस कर्कश दिखने वाले सरदार जी की सौम्यता देखकर. परन्तु हमारी निगाहें टिकी थीं उस बालक पर, जो हमें एक देवदूत सा दिख रहा था.
थोड़ी देर में सरदार जी वापस आए. बोले,"बर्थ तो पूरी ट्रेन में कहीं नहीं मिलेगी. मगर इतना बंदोबस्त हो सकता है कि तुम कल अपनी नौकरी ज्वाइन कर पाओ. कोच अटैंडेंट की बर्थ तुम्हें मिल सकती है, बिस्तर का प्रबन्ध भी हो जाएगा. मगर वहां सीट गद्देदार नहीं होगी, वहां एसी भी नहीं मिलेगा और एक बर्थ में तुम दोनों को एडजस्ट होना होगा. तैयार हो?" अंधा क्या चाहे, दो आंखें! हमने एकदम हामी भर दी. सरदार जी ने इशारा किया और हम उनके पीछे-पीछे चल दिए. ए.सी. के क्षेत्र से बाहर उस लकड़ी की बर्थ पर सरदार जी ने खुद अपनी देखरेख में बिस्तर लगवाया और हमें उसी बर्थ के नीचे वाली बर्थ, जिसपर परिचारक का कुछ सामान रखा था, में जगह बनवा कर हमसे कहा कि हम अगले स्टेशन पर उतर कर अपना सामान फर्स्ट क्लास के कूपे से लाकर वहां रख लें.
हमने उनका हृदय से आभार व्यक्त किया, कोच के भीतर जाकर उन अंकल का आभार व्यक्त किया, जिन्होंने हमारे लिए सरदार जी से सिफ़ारिश की थी. उस देवदूत की ओर देखकर तो हमारे नेत्र डबडबा रहे थे. दिल तो कर रहा था उसे अंक में भर लें, परन्तु ऐसा हम कर न सके. वह देवदूत इस बात से खुश तो नहीं था कि हमें कोच के बाहर सोना पड़ रहा था, परन्तु हमारे चेहरों पर प्रसन्नता देखकर वह चुप रहा. मेरी 'दो टकियों की नौकरी' के चक्कर में मेरा रईस मित्र भी फर्स्ट क्लास की टिकट से दुगनी राशि खर्च कर गर्मी में लकड़ी के फट्टों पर मेरे साथ बर्थ सांझा कर रहा था.
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