यह मेरी पहली घुमक्कड़ी थी, अकेले. अकेले करनी पड़ी थी, वैसे पिताजी ने तो एक संरक्षक की देखरेख में ही भेजा था मुझे.
आप सही समझे. बात तब की है जब मैं एक किशोर था. पिताजी साउंड इंजीनियर थे और उत्तर भारत के अनेक सिनेमाघरों और विशेषकर कानपुर के प्रायः सभी सिनेमाघरों का रखरखाव उनकी जिम्मेदारी थी. चूंकि कानपुर में उनका अधिक समय रहना होता था, कभी-कभी मैं दिल्ली से उनके पास चला जाया करता था. मस्ती रहती थी, किसी भी सिनेमाघर में कभी भी चले जाओ, फ़िल्म अच्छी न लगे तो किसी अन्य सिनेमाघर में चले जाओ.
स्कूल खुलने वाला था और पिताजी को कानपुर से कहीं और जाना था, तो उन्होंने मुझे अकेले ही दिल्ली के लिए रवाना कर दिया.
'कोशिश' फ़िल्म के डिस्ट्रीब्यूटर फ़िल्म के सिलसिले में कानपुर आए हुए थे और वापस दिल्ली जा रहे थे. मेरे लिए भी उन्हीं के साथ ट्रेन में रिज़र्वेशन करवा दिया गया.
दिन की ट्रेन थी. पिताजी मुझे छोड़ने स्टेशन आए, मेरा उन सज्जन से परिचय कराया, मुझे उन 'अंकल' की बात मानने जैसी हिदायतें दीं, मेरी टिकट उनके हाथ में पकड़ाई और उनके साथ मुझे ट्रेन पर चढ़ा दिया गया. ट्रेन चल पड़ी और पिताजी पूरी तरह से आश्वस्त होकर चले गए.
जाते समय पिताजी मुझे कुछ कॉमिक्स वगैरह दे गए थे. मैं उनमें डूब गया. उन सज्जन को कोई परिचित मिल गए थे कोच में, जिनके साथ वह व्यस्त हो गए थे. "ठीक हो न बेटा", के अतिरिक्त हमारी कोई बात नहीं हुई.
आधे रास्ते बाद टूंडला स्टेशन आया. मेरी खिड़की के सामने एक बुक स्टॉल था जो मुझे अपनी ओर खींच रहा था. परन्तु 'अंकल जी' को अपने मित्र के साथ धूम्रपान आदि के लिए प्लेटफॉर्म पर उतरना था. चुनांचे वह मुझे "बेटा, सामान का ध्यान रखना," कहकर ट्रेन से उतर गए.
बहुत देर तक उनके वापस न आने से मैं उतावला हो रहा था. मुझे टॉयलेट भी जाना था, परन्तु "सामान का ध्यान रखना" वाली जिम्मेदारी के कारण मैं सीट से बंधा था.
बहुत देर बाद जब वे दोनों ट्रेन में चढ़े तो कंपार्टमेंट के सभी टॉयलेट भीतर से बंद थे. मेरी कठिनाई समझकर 'अंकल जी' ने प्लेटफॉर्म के दूसरी ओर खड़ी ट्रेन की ओर इशारा कर कहा, "उसमें चले जाओ, उस ट्रेन के चलने में अभी बहुत टाइम है."
"मगर यह, हमारी ट्रेन तो चलने वाली होगी!" मैंने शंका व्यक्त की.
"अरे नहीं, अभी तो बहुत देर है इसके चलने में. तुम आराम से घूम फिर कर आओ," उन्होंने आश्वस्त किया मुझे.
मैं भागकर चला गया, सामने खड़ी ट्रेन में. लघु शंका से निवृत्त होकर, हाथ मुंह धोकर फटाफट बाहर निकला तो देखा, मेरी दिल्ली वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. मैं ट्रेन के पीछे भागा, मगर विलंब हो चुका था. देखते ही देखते ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़कर आगे बढ़ गई और मैं हांफता हुआ प्लेटफॉर्म के अंतिम छोर पर थम गया.
कुछ लोग मेरी ओर देखकर हंस रहे थे. एक बुद्धिमान ने तो मुझसे पूछ भी लिया, "छूट गई ट्रेन?" मैं मन ही मन पिताजी से कह रहा था, "...कम से कम ट्रेन का टिकट तो मेरे पास रहने देते! अंकल जी मेरे टिकट का क्या करेंगे?"
उन दिनों मोबाइल तो होते नहीं थे, फ़ोन भी बहुत बड़ी बात थी. हमारे घर भी फ़ोन नहीं था, हालांकि दस-बीस साल हो चुके थे बुक किए हुए. पिता जी का भी कोई नंबर नहीं था मेरे पास. जेब में पैसे तो थे, घर पहुंचने के लिए, परन्तु अनुभव नहीं था. एक रेलवे कर्मचारी जैसे दिखने वाले व्यक्ति ने मुझसे पूछा और मैंने संक्षेप में उसे अपनी व्यथा बता दी और पूछा कि दिल्ली के लिए अगली ट्रेन कब जाती है और उसका टिकट कहां से मिलेगा. उस व्यक्ति ने मुझे ढांढस बताते हुए कहा, "अगली ट्रेन तो आने ही वाली है और तुम टिकट की चिन्ता मत करो. मैं तुम्हें ड्राइवर के पास बिठा दूंगा." मैं अनुभवहीन था परन्तु सामान्य बुद्धि से विहीन नहीं था. मैंने शंका व्यक्त की, "ड्राइवर मुझे दिल्ली तक तो ले जाएगा, परन्तु मैं बिना टिकट, स्टेशन से बाहर कैसे निकालूंगा." सज्जन हंस कर बोले, "चिंता मत करो, मैं ड्राइवर को बोल दूंगा. वह तुन्हें गेट से बाहर तक छोड़ने का प्रबंध कर देगा.
मैंने उन्हें सादर धन्यवाद दिया. इससे पहले कि गाड़ी आती, उन्हें दो व्यक्ति दिखाई दिए जो रेलवे के कर्मचारी ही दिख रहे थे और उनके परिचित थे. उन्हें देखकर वह सज्जन मुस्कुरा दिए और उनसे कुछ बात कर मुझसे बोले, "तुम्हारा काम हो गया. ये दोनों भी उसी ट्रेन से जा रहे हैं. तुम इनके साथ चले जाओ." यह कहकर वह सज्जन भीड़ में गुम हो गए.
ट्रेन आई. मैं उन दोनों व्यक्तियों के साथ हो लिया यद्यपि वह मेरे प्रति प्रारंभ से ही उदासीन दिख रहे थे. दो तीन घंटे ही हुए थे कि अलीगढ़ स्टेशन आ गया और वे दोनों ट्रेन के गेट की ओर बढ़े. मैंने उनकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा. वे बोले, "हमें यहीं उतरना है. तुम बैठे रहो, दिल्ली आने में अभी पांच छह घंटे लगेंगे."
मैंने अविश्वास के साथ पूछा, "मगर आप तो दिल्ली जाने वाले थे न?"
"सारी दुनिया दिल्ली थोड़े ही जा रही है! हमें अलीगढ़ उतरना है तो हम दिल्ली क्यों जाएंगे?"
मैंने पल भर में सोचकर उनसे कहा, "प्लीज़ आप मुझे अलीगढ़ स्टेशन के गेट के बाहर तक छोड़ दीजिए; मैं दिल्ली का टिकट लेकर अगली कोई ट्रेन पकड़ लूंगा."
नियति ने मानो पलटी मार ली थी. उत्तर मिला, "नहीं भाई, हम मेन गेट की ओर नहीं जा रहे. हम तो पटरियों के रास्ते से दूसरी तरफ़ जा रहे हैं."
मैंने अगली युक्ति लगाई. बोला, "तो आप मुझे ड्राइवर के पास बिठा दो. वह पहले वाले भाईसाहब तो मुझे ड्राइवर के पास ही बैठाने वाले थे; आपको देखा तो उन्होंने आपसे कह दिया मेरी मदद को.."
"ड्राइवर क्या हमारा चाचा लगता है जो हमारे कहने से तुम्हें दिल्ली ले जाएगा? ऐसे ही चले जाओ बिना टिकट इसी ट्रेन में. कुछ नहीं होगा."
घबराहट से मेरा गला सूख रहा था. आज बिना टिकट यात्रा के अपराध में जेल जाना निश्चित है, ऐसा लग रहा था.
मैं चुपचाप पैर घसीटता हुआ उन दोनों के पीछे चलने लगा. पटरियों वाला यह रास्ता कहीं तो जाता ही होगा. वहीं कहीं से रिक्शा पकड़ कर वापस स्टेशन आ जाऊंगा और टिकट खरीदकर दिल्ली की अगली ट्रेन पकड़ लूंगा, यह सोचकर मैं उनके पीछे चल रहा था. उन दोनों ने पीछे मुड़कर मेरी ओर एक बार भी नहीं देखा. शायद उन्हें लग रहा था मैं उनसे चिपक रहा हूं, उनके लिए एक बड़ा दायित्व बन रहा हूं.
आखिर उनके पीछे पीछे चलते हुए एक बस्ती में पहुंचा. रिक्शा वाले स्टेशन जाने को तैयार नहीं थे. बहुत घूम कर जाना पड़ता था. तभी मेरे दिमाग में एक और विचार आया. क्यों न मैं बस से चलूं दिल्ली! अगली ट्रेन पता नहीं कब मिले, बसें तो चलती रहती होंगी! वैसे भी, बस में सीट तो मिल जाएगी, ट्रेन में बिना रिज़र्वेशन के सीट भी कहां मिलने वाली थी?
बस स्टैंड के लिए रिक्शा आराम से मिल गई, फिर बस भी मिल गई और उसमें सीट भी. उन दिनों रोडवेज़ की बसें बहुत खटारा होती थीं, आधे-अधूरे शीशे और बहुत शोर करने वाले अस्थि-पंजर. ट्रेन के मुकाबले दो घंटे अधिक लगे दिल्ली पहुंचने में. जब दिल्ली बस-अड्डे पर मैं बस से उतरा तो धूल धूसरित था. बिना जेल यात्रा के अपने शहर पहुंच गया था, बस यही सोचकर मन में प्रसन्नता थी. अब चिंता यह थी कि 'अंकलजी' के पास मेरा सामान रह गया था, वह वापस मिलेगा अथवा नहीं.
अगले दिन सुबह मैं अपने बड़े भाईसाहब के साथ भगीरथ पैलेस, दिल्ली में था. पूछते पूछते फ़िल्म 'कोशिश' के डिस्ट्रीब्यूटर के दफ़्तर में पहुंचे. जाते ही दरबान ने बिना लंबी बात किए मेरा सामान हमारे हवाले कर दिया, "साहिब काम से गए हैं, बोल गए थे."
बाद में जब पिताजी घर आए तो उन्हें पूरी घटना बताई तो उन्होंने केवल इतना कहा, "अनुभवों से ही व्यक्ति सीखता है!"
और वह कहते भी क्या? जिन्होंने युवावस्था में देश के विभाजन की त्रासदी स्वयं देखी हो, बॉम्बे से दिल्ली की यात्रा अकेले की हो, रात के अंधेरे में खेतों, जंगलों से होते हुए, लाशों के बीच से गुजरते हुए फ़रीदाबाद से दिल्ली की यात्रा पैदल की हो, उनके लिए उनके पुत्र का यह अनुभव कौन सी बड़ी बात थी!
परन्तु यह बात मुझे कई वर्षों तक समझ नहीं आई कि पिताजी ने मेरी टिकट उन अंकलजी के हवाले क्यों कर दी थी? क्यों उन्हें अपने पुत्र पर इतना कम विश्वास था? क्यों उन्होंने मुझे स्वयं अनुभव लेने के लिए प्रेरित नहीं किया था?
जब मैं स्वयं पिता बना तो समझ आया, ऐसा ही होता है पिता का हृदय!
No comments:
Post a Comment