हमेशा की तरह मैं थैला पकड़ श्रीमती जी के पीछे खड़ा था. साथ खड़े होने में बहुत दिक्कत होती है. नहीं, सब्ज़ी खरीदने जाने में मुझे कोई शर्म नहीं. बात सिर्फ़ इतनी है कि सब्ज़ी वाले से बिना मोल-भाव किए, बिना छांटे सब्ज़ी खरीदकर जो मैंने इमेज बनाई है अपनी, उसकी छीछालेदर हो जाती है श्रीमती जी के साथ जाने पर. जितनी सब्ज़ी मैं पांच मिनिट में खरीद लेता हूं, उतनी ही सब्ज़ी खरीदने में श्रीमती जी बीस मिनिट लगाती हैं - भाव तोल में, सब्जियों में नुक्स निकालकर उन्हें छांटने में. तो मैं श्रीमती जी के पीछे निरपेक्ष भाव से खड़ा रहता हूं और आदेश मिलने पर सब्ज़ी डलवाने के लिए थैले का मुंह खोलकर सब्ज़ी वाले भैया के सामने कर देता हूं. बस.
सब्ज़ी वाले भैया से सब्ज़ी खरीदते हुए वैसे तो हमेशा श्रीमती जी का पलड़ा भारी रहता है, परन्तु आज सब्ज़ी वाला भैया चहक रहा था. "मेम साहिब, टमाटर भी तो लीजिए," कहकर बार-बार उन्हें चिढ़ा रहा था, और श्रीमती जी उसे हर बार घूर देती.
टमाटर न खरीद पाने की विवशता के चलते वह जल्दी से बाकी तरकारियां खरीदकर वहां से निकलना चाहती थीं और सब्ज़ी वाला भैया भी उनकी मन:स्थिति समझ कर जानबूझकर देर लगा रहा था. कभी देसी टमाटर तो कभी हाइब्रिड टमाटर का भाव बिना पूछे जानबूझ कर उन्हें बता रहा था. मैं पीछे खड़ा मंद-मंद मुस्कुरा रहा था. मैं जानता था कि इतने महंगे टमाटर तो मेम साहिब खरीदने से रहीं.
हमेशा की तरह मेम साहिब ने मुझे गलत सिद्ध कर दिया. पत्नियों को पता नहीं क्या मज़ा आता है, पतियों को गलत सिद्ध करने में! मैंने देखा, वह टमाटर खरीद रही थीं, वह भी बिना भाव तोल के!
दुकानदार सकते में था और मैं सदमे में. इतने महंगे टमाटर खरीद लिए मैडम ने! इनके मायके से कोई आने वाला है क्या?
वापसी में थैला पीठ पर टांगे, मैं फिर श्रीमती जी के पीछे-पीछे ही चल रहा था. मन ही मन इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास कर रहा था कि आखिर कौन अतिथि आने वाला है, जिसके लिए श्रीमती जी दिल खोलकर पैसा खर्च कर रही थीं टमाटर पर. श्रीमती जी भी विचारामग्न थीं और बिना बात किए चल रही थीं.
घर पहुंचते ही श्रीमती जी बिफर गईं, "एक तो वैसे आग लगी है टमाटर को और उसपर वह नामुराद सब्ज़ी वाला! पीछे ही पड़ गया टमाटर खरीद लो, टमाटर खरीद लो."
"तुम न खरीदती. उसके कहने से क्या होता है?" मैंने धीमे से कहा.
"अब तुम्हें तो कोई परवाह है नहीं इज़्ज़त की, मुझे तो है. न लेती वह मुहल्ले की चार औरतों को बताता, कितनी बदनामी होती!"
पारा काफ़ी चढ़ा हुआ था, मैंने चुपचाप एक कोना पकड़ा और केजरीवाल की झीलों वाली दिल्ली की विडियो में नज़रें डुबो दीं.
मुझे लगा था, यह चैप्टर पूरा हो गया था, टमाटर वाला. इतने में श्रीमती जी ज़ोर से चिल्लाईं, "चोर ने एक टमाटर निकाल लिया!" मैं हड़बड़ी में उठा और प्रश्नवाचक दृष्टि से श्रीमती जी की ओर देखने लगा. पत्नियों को श्रोता पति बहुत पसन्द होते हैं. बोलने वाले नहीं और प्रश्न करने वाले तो कदापि नहीं.
"पांच टमाटर लिए थे मैंने. मुएं ने एक निकाल लिया. अब चार ही निकले हैं थैले में से," वह झल्ला रही थीं.
"तुम्हें गलती लग रही होगी, वह बेचारा क्यों एक टमाटर चुराएगा? और तुम तो नज़र इधर-उधर करती ही नहीं खरीदारी करते समय," चापलूसी के लहज़े में मैंने कहा.
"अरे, तुम नहीं जानते इन लोगों को, बहुत शातिर होते हैं. उंगलियों के खिलाड़ी होते हैं. उसी ने चुराया है मेरा पांचवां टमाटर," कहकर उन्होंने वह कह दिया जिसकी मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी, "जाओ, उससे लेकर आओ एक टमाटर!"
मुझे काटो तो खून नहीं! एक टमाटर के लिए इतनी दूर जाऊं कीचड़ वाली गलियों से होते हुए!
मैंने अपनी आवाज़ को चाशनी में घोलते हुए, एक निरीह प्राणी की तरह कहा, "एक टमाटर के लिए.."
"एक टमाटर? तुम्हें पता है कितने का आता है एक टमाटर? पूरे महीने का बजट खराब करके टमाटर खरीदे और उसे भी वह लूट कर ले गया! इतने दिनों से नींबू डालकर अच्छा खासा खाना बना रही थी और मुझे लूटने के लिए उसने ज़बरदस्ती खरीदवा दिए टमाटर! जाओ लेकर आओ उससे मेरा पांचवां टमाटर," आदेशात्मक स्वर में श्रीमती जी ने कहा.
"क्या कहूंगा मैं उससे जाकर? क्या सबूत है हमारे पास कि उसने चुराया है तुम्हारा टमाटर? और अब क्या होगा तुम्हारी इज्ज़त का, जब वह तुम्हारी पड़ोसनों को बताएगा कि एक टमाटर के लिए तुम्हारा पति उसके पास आया था?" मुझे लगा था कि श्रीमती जी का वार उनपर कारगर सिद्ध होगा, परन्तु ऐसा हुआ नहीं. वह अड़ी हुई थीं. इधर मैं भी 'नहीं जाऊंगा' पर अड़ गया था. टमाटर का लाल रंग हम दोनों के चेहरे पर चढ़ चुका था. घमासान का उद्घोष हो गया था. तलवारें म्यान छोड़ चुकी थीं.
इतने में घर की घंटी बजी. श्रीमती जी के भैया-भाभी थे. अभी थोड़ी ही देर पहले मैं जिनके आगमन की आशंका से परेशान था, मुझे लग रहा था कि उनके लिए टमाटरों पर पैसे लुटाए जा रहे थे, उन्हीं का आगमन मुझे ईश्वर का आशीर्वाद लग रहा था. पता लगाना मुश्किल था कि इस अतिथि युगल के आने की अधिक प्रसन्नता किसे थी, श्रीमती जी को या मुझे.
"इधर से गुज़र रहे थे, सोचा मिलते चलें," श्रीमती जी के भाई कह रहे थे.
और मैं सोच रहा था,"चलो, अब भोजन तो मिलेगा!"
चाय का दौर समाप्त हुआ. श्रीमती जी अपनी भाभीजी के साथ रसोई में चली गईं और मैं उनके भाई के साथ दिल्ली में जल भराव और ट्रैफिक जाम की समस्या पर गहन विचार विमर्श में जुट गया.
भोजन डाइनिंग टेबल पर लग गया था और हम सब क्रॉकरी और कटलरी के साथ टेबल पर सज्जित थे. अब चिंतन का विषय था, महंगे टमाटर. सलाद की प्लेट में कटे टमाटर गर्व से सर ऊंचा करके बैठे थे. उसी गर्व के साथ श्रीमती जी बार- बार दोहरा रही थीं, "अजी, कितने भी महंगे हो जाएं टमाटर, हमारा तो एक टाइम भी गुज़ारा नहीं होता टमाटर के बिना. सब्ज़ी में तो पड़ता ही है टमाटर, 'इन्हें' तो सुबह शाम सलाद भी चाहिए टमाटर का. आप भी लीजिए न टमाटर का सलाद.."
खाने में कम और बातों में अधिक टमाटर के साथ भोजन सम्पन्न हुआ.
टेबल से प्लेटें हटाने में श्रीमती जी की सहायता करते हुए उनकी भाभी जी अचानक उछलते हुए बोलीं, "यह क्या है?"
उनके पैर के नीचे आकर कुछ दब गया था. सबने उनके पैरों की ओर देखा, वह पांचवां टमाटर उनके पैरों तले आकर दम तोड़ चुका था!
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