पूरे शहर में प्रसन्नता का
वातावरण था। आज भारत माता सदियों की दासता से मुक्त होने वाली थी। अंग्रेज़ी सरकार
की बेड़ियाँ टूटने वाली थी। मंगल पांडे, रानी लक्ष्मी बाई, भगत सिंह, खुदीराम बोस, अशफाक़उल्लाह खान, उधम सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर
आज़ाद, राम प्रसाद बिस्मिल आदि अनेक शहीदों की आहुति आज
रंग लाने वाली थी। गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पटेल, सावरकर और करोड़ों भारतीयों का सपना साकार
होने वाला था। चारों ओर उत्सव मनाया जा रहा था। गाजे-बाजे के
साथ यात्राएं निकल रही थीं। मॉनसून के जाने का समय था। मौसम बहुत सुहाना था। हर
खिड़की, हर बिजली का खंभा, पेड़, ट्राम, बस, हर कार
पर देश का नया ध्वज तिरंगा फ़हरा रहा था। बॉम्बे शहर माउण्टबेटन के भव्य स्वागत
करने की तैयारी करने में लगा था जिनका जहाज अगले दिन सांताक्रूज़ हवाई अड्डे पर
उतरने वाला था।
पंजाब और बंगाल में हो रहे
भीषण दंगों की गर्मी से जैसे यह शहर अछूता था। जैसे देश के उस भाग में क्या हो रहा
था, उससे किसी को कोई मतलब ही न हो! इस देश की यही त्रासदी
रही है कि इसने स्वयं को कभी एक राष्ट्र के दृष्टिकोण से नहीं देखा। ऐसा न होता तो
इस देश पर बाहर से आने वाले आक्रमणकारी सदियों तक राज कर पाते? हर राजा ने आतताइयों का मुक़ाबला अकेले किया और दूसरे राजा अपने निहित स्वार्थ
के चलते मुंह ताकते रहे। भारत के विभाजन की समस्या सीमावर्ती प्रदेश के लोगों की
समस्या थी। पूरे देश ने इसे अपनी समस्या समझा होता, कभी यह
अनुभव किया होता कि देश के टुकड़े करने वाली लकीर उन्हें विभाजित कर रही थी,
कि घर से बेघर होने वाले उनके अपने थे, तो क्या
वे ऐसा होने देते?
बंबई के लोगों को आम तौर पर
इस बात का अहसास नहीं था कि पंजाब और बंगाल में लोगों पर क्या बीत रही थी। ऐसा
नहीं कि बॉम्बे ने कभी दंगों की त्रासदी को भुगता न हो। 1851, 1857, 1874 में बॉम्बे ने पारसी-मुस्लिम दंगे
देखे थे, परंतु अभी विपदा पंजाब और बंगाल पर थी, बॉम्बे पर नहीं. बॉम्बे ही क्यों, पूरे देश को
स्थिति की भयावहता का अनुमान ही न था। देश के विभाजन की विभीषिका तो केवल उन लोगों
के लिए काल बन कर आई थी जो देश को काटने वाली लकीर से कट रहे थे। न तो ब्रिटिश हुकूमत विभाजन से जनित त्रासदी को अधिक महत्व देना चाहती थी
और न ही कांग्रेस। दोनों इस समय अपनी अपनी विजय दुंदुभि बजाने में मग्न थीं।
ब्रिटिश हुकूमत विश्व में इस बात का डंका बजाना चाहती थी कि 200 वर्ष के औपनिवेशिक
शासन के बाद उसने कितनी शांति से सत्ता का हस्तांतारण कर दिया। और कांग्रेस तो देश
की स्वतन्त्रता को अपनी उपलब्धि के रूप में इतिहास में अंकित करवाना चाहती थी, आत्ममुग्ध थी।
भूषण की प्रारम्भिक शिक्षा
डीएवी कॉलेज लाहौर में हुई थी। पंजाब में लाहौर सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित शहर था।
कहावत थी कि जिसने लाहौर नहीं देखा, वह पैदा ही नहीं हुआ।
डीएवी कॉलेज की लाहौर शाखा उस कॉलेज की सबसे पहली शाखा थी भारत में। कॉलेज में
धार्मिक और नैतिक शिक्षा पर बहुत बल दिया जाता था। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक
विरासत से परिचय कराया जाता था। राखी, जन्माष्टमी आदि
त्यौहार धूमधाम से मनाए जाते थे। राष्ट्रीयता और देशभक्ति से ओतप्रोत व्यक्तित्व
निर्माण पर बल दिया जाता था और भारतीय परम्पराओं का सम्मान करना सिखाया जाता था।
परंतु बॉम्बे की बात कुछ और
ही थी। उच्चस्तरीय शिक्षा के लिए भूषण को बॉम्बे भेज दिया गया था लाहौर
से, सुप्रसिद्ध सेंट ज़ेवियर कॉलेज, बॉम्बे में पढ़ने के लिए। सेंट ज़ेवियर कॉलेज की संस्कृति लाहौर से एकदम
विपरीत थी। शिक्षा में पाश्चात्य सभ्यता और ईसाई धर्म का प्रभाव स्पष्ट दिखता था।
यहाँ न हिन्दी पढ़ाई जाती थी, न ही कोई हिन्दी में बात
करता था। पूरी तरह से अंग्रेज़ियत वाला कॉलेज था। इतना ही बहुत था स्वयं को विशिष्ट
अनुभव करने के लिए। भूषण तो वैसे भी विज्ञान का छात्र था, और कॉलेज में विज्ञान के छात्रों को सम्मान के साथ देखा जाता था। बंबई सही
मायने में एक कास्मोपोलिटन शहर था, जहां सभी धर्मों और
संस्कृतियों का सम्मिश्रण देखा जा सकता था यद्यपि पारसी और गुजराती संकृतियों का
प्रभाव अधिक था। भारत की स्वतन्त्रता का उत्सव तो वैसे भी किसी धर्म, जाति से ऊपर था। कहीं पंजाबी ढोल बज रहा था तो किसी प्रांगण में गरबा हो
रहा था। उनके कॉलेज के प्रांगण में युवक युवतियाँ पाश्चात्य संगीत पर थिरक रहे थे –
एंड्रूस सिस्टर्स का रम एंड कोका कोला और जैज़ और स्विंग संगीत के
अन्य गीत। कॉलेज के बाहर दूर कहीं से हिन्दी गीत की ध्वनि आ रही थी, “दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिंदुस्तान हमारा
है....।“
परंतु इस गाजे-बाजे के बीच
भूषण के मन में उदासी थी। कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था उसके पंजाब में।
स्वतन्त्रता की प्रतीक्षा तो वह भी अपने जन्म से ही कर रहा था। उसे तो देशभक्ति
जनमघुट्टी में पिलाई गई थी। उसके दादाजी कश्मीर के महाराज हरी सिंह के पुरोहित थे।
उसके पिताजी को आधुनिक शिक्षा मिली और वह सरकारी अधिकारी बन गए। नियुक्ति पंजाब के
गुजरांवाला में हुई तो वह वहीं आकर बस गए। वहीं भूषण का जन्म हुआ था।
भूषण को गुजरांवाला से केवल
इसलिए प्रेम नहीं था कि वह उसकी जन्मभूमि थी। गुजरांवाला शेर-ए
पंजाब महाराजा रणजीत सिंह और उनकी रक्षा के लिए शेर से
लड़ने वाले सेनानायक वीर हरी सिंह नलवा की भी जन्मभूमि थी जिनके कारण भूषण को अपनी
मातृभूमि पर गर्व था। जब अफ़ग़ानिस्तान से अहमदशाह दुर्रानी ने पंजाब पर आक्रमण किए
तो सिखों ने उसकी फौजों का न केवल जमकर मुक़ाबला किया बल्कि उन्होंने सरहिंद और
लाहौर पर भी अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। सिखों की सुक्करचक्किया मिसल के वीर चढ़तसिंह का मुख्य क्षेत्र गुजरांवाला था। उनके उत्तराधिकारी
थे महासिंह जिनके पुत्र थे रणजीतसिंह।
भूषण के आदर्श शेरेपंजाब रणजीतसिंह भारत में सिख
साम्राज्य के महाराजा थे जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारतीय
उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम में भारत को एकीकृत किया और वहाँ राज किया। मात्र दस
वर्ष की आयु में ही अपने पिता के साथ उन्होंने अपने जीवन का पहला युद्ध लड़ा था।
अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कई युद्ध लड़े और अंततोगत्वा 21 वर्ष की आयु में ही वह पंजाब के महाराज कहलाए।
गुजरांवाला के बाद उन्होंने लाहौर को अपना केंद्र बनाया और उसे पंजाब की राजधानी
घोषित किया। बाद में सतलुज नदी पार कर फरीदकोट, मुलेरकोटला, अंबाला और उत्तर पश्चिम में मुलतान और पेशावर
पर कब्जा किया। उन्होंने न केवल कश्मीर को अतामोहम्मद के कब्जे से मुक्त कराया
अपितु शाहशुजा अब्दाली को जेल से मुक्त कराकर उससे अमूल्य हीरा कोहिनूर भी प्राप्त किया। महाराजा
रणजीत सिंह मंदिरों में ढेरों सोना दान करने के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी इच्छा थी कि
वह कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में भगवान जगन्नाथ के चरणों में समर्पित
करें। परंतु उनकी यह इच्छा पूरी होने से पहले ही वह यह संसार को छोड़कर चल बसे। जब
तक वह जीवित रहे अंग्रेज़ पंजाब की धरती को पाने का मंसूबा पूरा नहीं कर पाये। उनकी
मृत्युपर्यंत ही अंग्रेजों का
पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हुआ और भारत से कोहिनूर भी हथिया लिया गया।
रणजीत सिंह महान विजेता होने के साथ-साथ एक कुशल
प्रशासक भी थे। उन्होंने ब्रिटिश एवं फ्रांसीसी सैन्य व्यवस्था के आधार पर एक कुशल, सुप्रशिक्षित
एवं सुसंगठित सेना का गठन किया। सरदार हरी सिंह नलवा उनका दाहिना हाथ थे। महाराजा
रणजीत सिंह काल का प्रायः हर बड़ा युद्ध हरी सिंह नलवा के नेतृत्व में ही लड़ा और
जीता गया था। पंजाब से अफ़ग़ानिस्तान तक विस्तृत उनके राज्य को एक कुशल प्रशासन और
समृद्धि देने में हरी सिंह नलवा की प्रमुख भूमिका थी। उनके राज्य में बड़ी-बड़ी नई
बस्तियाँ बसाई गईं; जहां लोग नहीं रहते थे वहाँ
खेतीबाड़ी के लिए प्रोत्साहन दिया गया और योजनाएँ लागू की गईं। नलवा ने अनेक नगरों, किलों, प्राचीरों, हवेलियों, धर्मशालाओं और बगीचों का निर्माण करवाया। हरीपुर पूरे क्षेत्र में पहला
किलाबंद और नियोजित नगर था, जिसमें आधुनिक जल वितरण की
व्यवस्था थी। सभी सुविधाओं से सुसज्जित होने के कारण बाहर से खत्री एवं अन्य
व्यवसायी वहाँ आकर बसे और नगर हर प्रकार से फलने फूलने लगा। महाराजा रणजीत सिंह और
हरी सिंह नलवा आदर्श थे भूषण के।
13 अप्रैल 1919 को जब पंजाब बैसाखी का पर्व मना
रहा था, जनरल डायर के एक आदेश पर अमृतसर के जलियाँवाला बाग में
एकत्रित 10,000 हिंदुओं, सिखों
को गोलियों से भून दिया गया। सैंकड़ों जानें गईं और हजारों घायल हुए। इस नरसंहार के
बाद पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया जिसके उल्लंघन पर लोगों को बेतों
से सरे-आम मारा जाता और नाना प्रकार के ज़ुल्म किए जाते। पूरे देश में इसके कारण
आक्रोश था। नोबल पुरस्कार से सम्मानित रबीन्द्रनाथ टैगोर ने विरोधस्वरूप अपनी नाइट
की पदवी त्याग दी थी। परंतु गांधीजी इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहते थे। पूरा देश
उनकी ओर ताक रहा था। अंततः दिसंबर 1920 में उन्होंने देश में असहयोग आंदोलन का
आह्वान किया था जिसे सत्याग्रह नाम दिया गया था। इस आंदोलन में भारतीयों को सभी
ब्रिटिश संस्थानों का बहिष्कार करने, टैक्स अदा न करने
और सरकारी नौकरियों को छोड़ देने को कहा गया।
जालियांवाला बाग कांड से क्षुब्ध भूषण के पिता
ने हजारों देशभक्त भारतीयों की भांति तुरंत ‘म्लेच्छों की नौकरी का
परित्याग कर दिया। परंतु सवा साल बाद ही उन्होंने स्वयं को ठगा सा पाया जब गांधीजी
ने सत्याग्रह को इसलिए वापस ले लिया क्योंकि उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा नामक एक
गांव में यह आंदोलन हिंसात्मक हो गया था। उनके द्वारा सरकारी अधिकारी की नौकरी का परित्याग
निरर्थक हो गया था। फिर भी देश के लिए मर-मिटने की उनकी भावना अक्षुण्ण थी, और यही संस्कार उन्होंने भूषण को दिये।
इस घटना के कुछ वर्ष बाद भूषण का जन्म
गुजरांवाला में ही हुआ था, शेरे पंजाब की तरह। उन्हीं
की भांति बाद में वह लाहौर आ गए थे, उनकी प्रारम्भिक
शिक्षा के लिए। सरकारी अधिकारी का पद छोड़ देने के बाद भूषण के पिता वही करते थे, जो उनके पूर्वज कश्मीर के दरबार में करते थे, पुरोहित
का काम, यद्यपि उनके पास पूर्वजों की दी हुई इतनी
संपत्ति थी, कि बिना कुछ किए भी कुछ पुश्तें तो घर बैठे
खा सकती थीं। बाद में उच्च शिक्षा के लिए उसे बॉम्बे भेज दिया गया था। उत्तर
पश्चिमी भारत के अनेक सभ्रांत परिवार उनके शिष्य थे।
आज जब पूरा बॉम्बे उत्सव मनाने में मग्न था, भूषण
का हृदय चीत्कार कर रहा था।
चार व्यक्तियों, माउण्टबेटन, गांधी, नेहरू और जिन्ना ने मिलकर लिख डाला था
भारत का भाग्य। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमंट ऐटली ने फ़रवरी, 1947 में भारत के वाइसरॉय के रूप में माउण्टबेटन की नियुक्ति की थी।
उन्हें 30 जून, 2048 तक भारत की स्वायत्तता सुनिश्चित
करने के आदेश दिए गए थे। उन्हें यह भी कहा गया था कि वह यथासंभव भारत को विभाजित न
होने दें। परंतु माउण्टबेटन अपने निजी कारणों से जून, 2048
तक अपने देश वापस जाना चाहते थे। वह वहाँ की रॉयल नेवी के प्रमुख बनने के लिए
लालायित थे। सत्तालोलुप जिन्ना और नेहरू तथा गांधी के नेहरू प्रेम को भी यह अनुकूल
लगा और आनन-फ़ानन में भारत की स्वायत्तता की तिथि 10 महीने पहले 15 अगस्त, 1947 निर्धारित कर दी गई। इस तिथि से माउण्टबेटन को व्यक्तिगत रूप से
इसलिए भी लगाव था क्योंकि 15 अगस्त 1945 को जापान की सेना ने उनके समक्ष
आत्मसमर्पण किया था। जल्दबाज़ी में किए गए इस निर्णय के पक्ष में यह तर्क दिया गया
कि शीघ्र कदम न उठाने से हालात बिगड़ जाएंगे और भारत में गृह युद्ध छिड़ जाएगा जबकि
सत्य यह था कि कुछ लोगों को सत्ता पर आसीन होने की जल्दी थी तो कुछ को वापस इंग्लैंड
लौटने की। निर्धारित तिथि से 10 महीने पहले स्वायत्तता देकर उलटे यह सुनिश्चित कर
दिया गया था कि गृहयुद्ध होकर रहे।
स्वायत्तता की प्रतीक्षा तो पूरा देश कर रहा था, परंतु
देश के टुकड़े कर दिये जाएंगे, यह किसी ने नहीं सोचा था।
भारत के विभाजन को भी स्वीकृति दे दी गई ताकि जिन्ना और नेहरू दोनों की
महत्वाकांक्षाएँ पूरी हो जाएं। दोनों को एक-एक देश दे दिया गया राज करने को। इन
चार व्यक्तियों को जो व्यक्तिगत कारणों से अनुकूल लगा, वह
कर दिया गया। किसी ने यह नहीं सोचा कि यह सब होगा कैसे! कैसे इतने कम समय में
लाखों-करोड़ों लोगों को नई सीमा रेखा के इस पार से उस पार कराया जाएगा, बिना उन्हें क्षति पहुंचाए! किसी ने यह सोचा ही नहीं कि प्रश्न कागज पर
कुछ नयी लकीरों का नहीं, करोड़ों ज़िंदगियों का था। 9
अगस्त 1947 को सीरिल रेड्क्लिफ़ ने भारत के मानचित्र पर दो लकीरें खींच दीं और
करोड़ों भारतीयों के भविष्य का निर्णय हो गया। एक लकीर से पश्चिमी पाकिस्तान बन गया
और दूसरी लकीर से पूर्वी पाकिस्तान। अपने घर बैठे-बैठे भारतीय विदेश पहुँच गए।
उन्हें मात्र इतना निर्णय करना था कि वे अब नए देश में रह कर प्रताड़ित होंगे अथवा
प्रताड़णा झेलते हुए, जीवित रहने का प्रयास करते हुए
अपने देश में आना चाहेंगे। सीरिल रेड्क्लिफ़ एक वकील थे, जो अपने जीवन में अब तक ब्रिटेन से बाहर पूर्व दिशा में कभी पेरिस से आगे
नहीं गए थे। उन्हें ये लकीरें खींचने का अधिकार ब्रिटिश सरकार ने दिया था जिसे
नेहरू, जिन्ना, गांधी ने
अपनी स्वीकृति दी थी।
जो खबरें युवा भूषण तक पहुँच रही थीं, उनपर
विश्वास करना कठिन था, उसके युवा हृदय के लिए। दिल और
दिमाग दोनों ही नकार रहे थे उन्हें। उनकी जांच वह स्वयं करना चाहता था। बहुत कुछ
गलत हो रहा था, इतना तो अख़बारों में आ रही खबरों से भी
पुष्ट हो रहा था। मुंबई से उत्तर दिशा में जाने वाली ट्रेन्स अनियमित थीं। उधर से
आने वाले यात्री भी इन खबरों की पुष्टि कर रहे थे।
एक खबर के अनुसार गुजरांवाला में उसके घर से 30
मील दूर शेखूपुरा में घरों से हिंदुओं, सिखों को इकट्ठा कर एक
खुले मैदान में लाया गया और उनपर मिट्टी का तेल डालकर उन्हें जीवित जला दिया गया
था। एक गली में उसके कुछ दूर के रिश्तेदारों और गली के अन्य हिंदुओं को भालों से
मारा गया था और यह दृश्य उन्हीं में से एक परिवार की एक महिला ने, जिसे चाची कहकर संबोधित करता था भूषण, अपनी छत
की मुंडेर के छिद्रों में से स्वयं देखा था और नेहरू-जिन्ना की लकीर लांघ कर इस
पार आने वाले किसी रिश्तेदार से होती हुई यह खबर भूषण तक पहुंची थी। गली की एक
वयोवृद्ध महिला अपने बेटे को छोड़ने की गुहार लगा रही थी। बदले में उन जल्लादों ने
उसकी बाहों में से उसकी एक-वर्षीय पौत्री को छीना और उसे भाले से भेद कर उसे झंडे
की तरह लहराने लगे... ला इलाहा इल्लल्लाह…
भूषण का व्यथित हृदय अपने माता-पिता और
छोटी बहिन से मिलने, उन्हें देखने, उनका
कुशल-क्षेम जानने को तड़प रहा था। कई पत्र लिखे थे उसने अपने माता-पिता को, जो गुजरांवाला छोड़कर इधर-उधर भटक रहे थे परंतु उनका उत्तर नहीं आ रहा था।
पता नहीं उसके पत्र उन्हें मिल भी रहे थे अथवा नहीं। बॉम्बे के बड़े बुज़ुर्गों, जिनमें से एक उसके कॉलेज में प्रोफेसर थे और पंजाबी थे, ने उसे उसके माता-पिता का हवाला देते हुए समझाया कि वह उनकी खातिर अपनी
जान जोखिम में न डाले और धैर्यपूर्वक उनके पत्र की प्रतीक्षा करे। भूषण अपने माता-पिता
का इकलौता पुत्र था और उसकी जान की सुरक्षा उसे अपने माता-पिता के लिए ही
करनी थी।
दिन पर दिन बीतते जा रहे थे। उसके पुरखों की
धरती गुजरांवाला से एक दिल दहला देने वाली खबर आई। शहर के बड़े जमींदार बलवंत खत्री
अपनी पत्नी प्रभावती, पुत्र बलदेव और सात पुत्रियों लाजवंती, राजवती, भगवती, पार्वती, गायत्री, ईश्वरी और उर्मिला के साथ शांति और
समृद्धि का जीवनयापन कर रहे थे। पत्नी प्रभावती प्रभावती पेट से थीं। कोठी में एक बार फिर किलकारियां गूंजने वाली थी। पंजाब के प्रायः हर शहर
से खबरें आ रही थीं कि किस प्रकार भीड़ यलगार करती हुई आतीं और हिन्दू-सिख मर्दों
को कत्ल कर उनकी औरतों को हड़पने का प्रयास करतीं। पर लाला जी आशावादी थे। उन्हें
गांधी के आदर्शों पर विश्वास था। उन्हें लगता था ये कुछ मजहबी मदांध हैं। दो-चार
दिन में शांत हो जाएंगे। और गुजरांवाला तो 'अव्वल
अल्लाह नूर उपाया' गाने वाले लोग हैं। बाबा बुल्ले शाह
और बाबा फरीद की कविताएं पढ़ते हैं। सूफी मजारों पर जाते हैं। ये लोग ऐसा नहीं
करेंगे, उनका मानना था। परंतु गुजरांवाला कोई अपवाद सिद्ध
न हुआ। बल्कि वहाँ तो वह हुआ जिसकी कल्पना करना भी असंभव था। लालाजी को खबर मिली,
“अपने मुख्तार भाई खुद भीड़ लेकर निकले हैं, लाला जी। सारे हिंदू-सिख भारत भाग रहे हैं। 300-400 लोगों का एक जत्था घंटे भर में निकलने वाला है। परिवार के साथ शहर के
गुरुद्वारे पहुंचिए, फ़ौरन।”
गुरुद्वारा हिंदू-सिखों से खचाखच भरा था।
पुरुषों के हाथों में तलवारें लिए अपने परिवारों की औरतों की अस्मत बचाने के लिए
कुर्बानी देने के लिए तैयार थे। गुजरांवाला शहर पहलवानों का शहर था। प्रायः हर बड़े
मंदिर और गुरुद्वारे में अपने अखाड़े थे जहां नियमित रूप से कुश्तियाँ आयोजित की
जाती थीं। कुछ लोग छत से निगरानी कर रहे थे। गुरुद्वारे के कुएं के पास रखे
पत्थरों पर कुछ लोग तलवारों को धार दे रहे थे। महिलाएं, लड़कियां
और बच्चे दहशत में थे। सीने से बच्चों को चिपकाए हुईं माएँ ईश्वर से प्रार्थना कर
रही थीं।
दूर से आ रही शैतानी आवाज़ें निकट आ रही थीं, “पाकिस्तान
का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह... हंस कर लिया है
पाकिस्तान, खून से लेंगे हिंदुस्तान...” भीड़ में शामिल लोगों के हाथों में तलवार, फरसा, चाकू, चेन और अन्य हथियार थे। गुरुद्वारा उनका
निशाना था।
खून की प्यासी भीड़ के पहले जत्थे को तो
हिन्दू-सिख वीरों ने काट डाला। अब भीड़ गुरुद्वारे से कुछ दूर खड़ी नारे लगा रही थी, “काफिरों, काटना हम दिखाएंगे... किसी मंदिर में घंटी नहीं बजेगी अब... हिन्दू की औरत
बिस्तर में और आदमी शमशान में...”
आधे घंटे में भीड़ हजारों दरिंदों की संख्या में
परिणत हो गई। गुरुद्वारे में हिन्दू-सिखों की संख्या लगभग 400 थी, जिनमें
मात्र 40-50 ही युवा थे। आर-पार की घड़ी आ गई थी। अपना धर्म और औरतों का सम्मान
बचाने के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की घड़ी थी यह। भीड़ गुरुद्वारे का दरवाज़ा तोड़कर
भीतर घुस आई और कत्लेआम शुरू हो गया। रणबांकुरे अपनी आहुति देकर महिलाओं की रक्षा
कर रहे थे। धीरे-धीरे तलवार हाथ में लिए हिन्दू-सिख ढेर होते गए और महिलाओं की
सुरक्षा अब असंभव दिखने लगी।
अब वह हुआ जो मुग़लों के आक्रमण के समय भारत में
हो चुका था। एक-एक कर लालाजी की पुत्रियाँ सामने आती गईं और लाला बलवंत उनके माथे
चूम-चूम कर उनके सिर धड़ से अलग करते गए ताकि इन नरपिशाचों के हाथ वे न लगें। परंतु
इन मृत महिलाओं के शरीर मृत्यु के बाद भी सुरक्षित नहीं थे। सबके शवों को लालाजी
ने गुरुद्वारे के कुएं में डाल दिया। अपनी गर्भवती पत्नी को अपने पुत्र के साथ
गुरुद्वारे के पिछले दरवाज़े से निकालकर लालाजी ने फिर मोर्चा संभाल लिया और अंत
में स्वयं को चाकुओं से गोदकर उसी कुएं में छलांग लगा दी जिसमें अस्मिता बचाने के
लिए उन्होंने अपनी पुत्रियों को डाला था।
भय और क्रोध के मारे भूषण का शरीर कांप रहा था।
कहीं उसके माता-पिता वापस गुजरांवाला तो नहीं चले गए थे! कहीं गुरुद्वारे में इन
400 लोगों में वे भी तो नहीं थे! अपनों की चिंता में व्यक्ति किसी भी अनिष्ट की
कल्पना करने लगता है।
1946 में भारत के विभाजन को लेकर ब्रिटिश सरकार
ने जो कैबिनेट मिशन बनाया था, उसकी संस्तुतियों पर
जिन्ना और नेहरू में मतभेद हो गए थे और जिन्ना ने जुलाई, 1946 में कैबिनेट मिशन की संस्तुतियों से अपनी सहमति वापस लेकर 16 अगस्त, 1946 को डाइरैक्ट एक्शन डे घोषित किया था और हड़ताल का आह्वान किया था।
इससे बंगाल में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए और अकेले कलकत्ता में मात्र 72 घंटों में
4000 लोग मारे गए और एक लाख लोग घर से बेघर हो गए। सांप्रदायिक दंगों की इस आग की
लपटें पंजाब में भी पहुँचीं और छिटपुट दंगे वहाँ भी शुरू हो गए थे।
पूर्वी पंजाब में एक राजा थे; भूषण के पिताजी को अपना गुरू मानते थे। उन्होंने अनुग्रह किया कि पंजाब में भी बंगाल की भांति भीषण दंगे भड़क सकते हैं। इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से वे कुछ समय के लिए उनके पास आ जाएँ। जब दंगे शांत हो जाएँ तो वे वापस जा सकते हैं। भूषण के पिताजी ने यह बात मान ली थी। भूषण तो पहले से ही बॉम्बे में था, उच्चस्तरीय पढ़ाई के लिए। गुजरांवाला में उनके पास उनकी पुत्री थी जिसे उन्होंने गोद में उठाया, एक ट्रंक में कुछ कपड़े डाले और ‘कुछ दिनों’ के लिए मन बनाकर वे अपने शिष्य राजा के पास आ गए। अपनी अपार संपत्ति और उसके कागजात के बारे में सोचा ही नहीं और सब पीछे छूट गया गुजरांवाला में। जो लोग 1947 के उत्तरार्ध में भारत की सीमा में आए थे, उनमें से अधिकांश जान पर खेलकर आए थे। उनमें से जो सीमा लांघ सके, उनके पास प्रायः अपनी संपत्ति के कागजात थे, जिसके बदले में उन्हें भारत सरकार से कुछ मुआवजा मिला था। परंतु भूषण के माता-पिता के पास तो अब गुज़ारे के लिए नकदी भी समाप्तप्राय थी।
‘कुछ दिन’ द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ते जा रहे थे। कब तक वे किसी शिष्य के आसरे रहते? वे वहाँ से निकल आए और दिल्ली आ गए भूषण के मामाजी के घर। बीच बीच में वे
अंबाला, अमृतसर आदि स्थानों में रहने वाले अन्य रिश्तेदारों
के पास भी जाते, इस आस में, कि
एक बार वहाँ से गुजरांवाला होकर आने की कोई जुगत लग जाए। चाहकर भी वह अपने पूर्वजों की
धरती कश्मीर में शरण नहीं ले सकते थे क्योंकि विभाजन के तुरंत बाद वहाँ से भी
छिटपुट दंगों की खबरें आ रही थीं। फिर, उनकी
धन-सम्पत्ति तो सब गुजरांवाला में ही थी। बाद के महीनों में उनकी सोच की पुष्टि
हुई जब 1947 में ही पचास हज़ार से अधिक हिंदुओं-सिखों को कश्मीर में मार डाला गया।
परंतु अधिकांश समय वे दिल्ली में अपने मामाजी के पास ही रहते। जब तक भूषण को पत्र
मिलता और उसे पता चलता कि वे अब कहाँ हैं, तब तक वे
स्थान बदल चुके होते। अपने घर के बिना कहाँ चैन मिलता है व्यक्ति को?
गुजरांवाला से आई खबर ने भूषण को भीतर तक झकझोर
दिया था। अब वह और प्रतीक्षा नहीं कर सकता था। उसे अब जाना ही था अपने माता-पिता
के पास। अपनी सुरक्षा के नाम पर वह अपने माता-पिता और छोटी बहन के कुशल-क्षेम के
प्रति इस प्रकार निश्चेष्ट नहीं बैठ सकता था।
जब भूषण दिल्ली के लिए ट्रेन में बैठा तो उसे यह
अहसास हुआ कि ऐसा नहीं था कि लोगों को दिल्ली और पंजाब की स्थिति के बारे में
जानकारी थी ही नहीं। ट्रेन सामान्य की तरह खचाखच भरी नहीं थी। रास्ते में अन्य
यात्रियों से बात कर उसे पता चला कि कोई विरला ही दिल्ली तक जा रहा था। अधिकांश
यात्री रास्ते के स्टेशनों पर ही उतरने वाले थे। सबने उसे यही सलाह दी कि इस
समय दिल्ली जाना कोई अकलमंदी की बात नहीं थी। उसे भी कुछ दिनों के बाद ही जाना
चाहिए।
कुछ ने तो यह भी बताया कि
दिल्ली में तो स्थिति और भी भयावह थी। भारत के दो टुकड़े होने से पहले दिल्ली में
हिन्दू मुसलमानों की जनसंख्या लगभग बराबर थी। सांप्रदायिक दंगे दिल्ली में अपने
चरम पर थे। लाहौर और गुजरांवाला की तरह यहाँ एक-तरफ़ा ज्यादती नहीं थी। यहाँ तो
हिन्दू और मुसलमान में भेद करना भी कठिन था। हर किसी के मन में असुरक्षा की भावना
थी। कई जगहों पर छुरों से बात होती थी, शब्दों से नहीं। कुल नौ
लाख जनसंख्या वाले दिल्ली में से तीन लाख से अधिक मुसलमान पाकिस्तान के लिए पलायन
कर गए थे अथवा कर रहे थे। साथ ही, लगभग पाँच लाख हिन्दू
अपने घर से बेघर होकर दिल्ली में शरण ले रहे थे। दिल्ली का कायाकल्प हो रहा था
भीषण रक्तपात के साथ। सिंध प्रांत से आने वाले
निर्धन कृषक और छोटे व्यापारी तो पैदल ही कराची पार कर राजस्थान और गुजरात में बस
रहे थे। उनमें से अनेक को बाद में वहाँ से उठाकर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे
दूरस्थ क्षेत्रों में ले जाया गया।
पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थियों
में से अधिकांश ने पूर्वी पंजाब और दिल्ली का रुख किया। परंतु दिल्ली भी तैयार नहीं थी पंजाब से बेघर होकर आए शरणार्थियों को आसरा देने
को। दिल्ली
के मूल निवासी उन्हें शरणार्थी कहकर ऐसे पुकारते थे जैसे वे कोई निकृष्ट प्राणी
हों। अपने घर से निष्कासित, दिल्ली में तिरस्कृत हिन्दू
और सिख जहां जगह मिली, बसने लगे। पश्चिमी पंजाब में बड़ी-बड़ी हवेलियों के मालिक फ़ुटपाथों पर सोने को मजबूर
थे, अपने ही देश में
तंबुओं में, खंडहरों
में, खुले मैदानों में रहने को मजबूर थे। आधा पेट भोजन
करने को मजबूर थे।
यहाँ के मुस्लिमों को डर था कि पाकिस्तान के मुस्लिमों के पीड़ित हिन्दू प्रतिशोध ले सकते हैं। वे गांधीजी से मिले। गांधी जी को पाकिस्तान से प्रताड़ित होकर बेघर हुए हिंदुओं-सिखों से अधिक चिंता थी अपने घरों में सुख से रहने वाले मुसलमानों की। गांधीजी ने नेहरूजी से बात की और उन्होंने सरकारी आदेश जारी कर दिया कि कोई शरणार्थी हिन्दू-सिख पुरानी दिल्ली क्षेत्र में नहीं बस सकता।
जिनके
पास धन-संपदा का प्रमाण था, उन्हें
तो मुखर्जी नगर, राजिन्दर नगर, पटेल नगर, इंदरपुरी और लाजपत नगर आदि नई
बस्तियों में छोटे छोटे मकान आवंटित कर दिए गए परंतु जिनके
पास प्रमाण नहीं थे, वे दशकों तक अपने पैरों पर खड़े
होने के लिए संघर्ष करते रहे। किंग्स्वे, हड्सन लाइन, रीड्स लाइन और खालसा कॉलेज जैसे
क्षेत्रों में शरणार्थियों के लिए कैंप लगाए गए थे, जहाँ
पंजाबी अपने ही देश में शरणार्थी बनकर तंबुओं में रहने को मजबूर थे और हाथ में कटोरा
लिए दो रोटी की प्रतीक्षा करते थे।
दिल्ली से पहले ही रेलवे के प्लैटफ़ार्म निर्जन
दिखने शुरू हो गए थे। भूषण अपने ट्रेन के डिब्बे में अकेले बैठा विचारों में खोया
हुआ था। यह कैसा समय आ गया था? गुजरांवाला और लाहौर की
कितनी मीठी यादों के सहारे ही तो वह बॉम्बे में रह रहा था! हर दिन वह प्रतीक्षा
करता कि कब उसकी पढ़ाई पूरी हो और वह अपने घर गुजरांवाला वापस लौटे। भविष्य को लेकर
उसके समस्त सपने उसके घर गुजरांवाला और लाहौर से जुड़े हुए थे। अचानक सब कुछ इतना
कैसे बदल गया? लोग कैसे बदल गए? पड़ोसियों ने पड़ोसियों को मार डाला! बचपन के मित्र खून के प्यासे हो गए! घर, हवेलियाँ लूट कर जला दी गईं। महिलाओं का बलात्कार किया गया, बच्चों को उनके भाई-बहनों के सामने काट डाला गया। यह धार्मिक उन्माद था या
फिर लूट की भूख? कुछ ही महीनों में लगभग डेढ़ करोड़ लोगों
को बेघर कर दिया गांधीजी की इस ज़िद ने कि विभाजन होकर रहेगा!
रास्ते में लोगों और प्लैटफ़ार्म पर दूकानदारों
से भूषण को जो खबरें मिल रही थीं वे बहुत विचलित करने वाली थीं। दिल्ली में एक
ट्रेन पहुंची थी जिसमें केवल शव ही शव थे। जब ट्रेन में चढ़े थे तो सबके नाम थे, पहचान
थी, रिश्ते थे, सपने थे।
रास्ते में ही उन्हें लाशों में परिणत कर दिया गया था, तीन
हज़ार से अधिक लोगों को। सीमा पार से अपनी जान बचाकर निकले हिन्दू-सिखों पर रास्ते
में आक्रमण कर दिया गया था और वृद्ध, युवा, स्त्री, बच्चे सभी यात्रियों को काट डाला गया।
उनके पास जो भी सामान था, वह भी लूट लिया गया था। ऐसी
अनेक ट्रेनें थीं जिनपर रास्ते में हमला किया गया था। कितनी प्यास थी लहू की? कितनी भूख थी सोने, चांदी के ज़ेवरों की जो
महिलाओं के शवों से खींच लिए गए थे? कितनी नफ़रत थी उन
हिंदुओं-सिखों से, जो कल तक मुसलमानों के सुख-दुख के
सहभागी थे पश्चिमी पंजाब में?
भूषण की ट्रेन प्लैटफ़ार्म से बहुत पहले ही रुक
गई थी, फ़रीदाबाद पार करने के बाद कहीं खेतों में। खबर मिली कि
दिल्ली स्टेशन पर मार-काट चल रही थी। एक और ट्रेन आई थी पंजाब से जिसमें से लहू
बहकर रेलवे प्लैटफ़ार्म को लाल रंग रहा था जिसे देखकर कुछ हिन्दू-सिखों का लहू उबल
गया था और हिंसा का तांडव चल रहा था वहाँ। कुछ लोग बता रहे थे कि पुरानी दिल्ली को
शाहदरा से जोड़ने वाला यमुना पुल लाशों से पटा हुआ था। पुल के पास ही मुसलमानों की
बस्ती थी और उन्होंने कब्जा कर लिया था पुल पर और हर आने जाने वाले हिंदू-सिख को
वे काट रहे थे। जहां-जहां मुसलमान अधिसंख्य थे, वहाँ-वहाँ
दंगे हो रहे थे। इन दंगों के शिकार भी अधिकतर पंजाब से आए हुए शरणार्थी ही थे
क्योंकि वे सड़कों पर थे। घर तो उनके पास थे नहीं दिल्ली में।
भूषण के पास जो अंतिम सूचना थी उसके अनुसार उसके
माता-पिता उनके मामा जी के पास कहीं करोल बाग में थे। फ़रीदाबाद के पास ट्रेन से
उतर कर भूषण ने पैदल ही करोल बाग जाने का निर्णय किया। यही सुरक्षित था। लगभग बीस
मील की वह पैदल यात्रा उसके जीवन की सबसे कठिन और लोमहर्षक यात्रा थी। संध्या का
समय था और ट्रेन समय से पहले ही फ़रीदाबाद पार कर चुकी थी। ट्रेन जंगल में कहीं खड़ी
थी। भूषण ने रात में ही करोल बाग तक की पैदल यात्रा पूरा करने का निर्णय लिया।
1947 तक दिल्ली मूलतः एक दीवार के भीतर सुरक्षित
शहर था। इस दीवार के उत्तर में सिविल लाइंस था जो किंग्स्वे कैंप तक विस्तृत था, दक्षिण
में अंग्रेजों का लुट्यंस नई दिल्ली था, पश्चिम में
दीवार के साथ सटा पहाड़गंज और करोल बाग क्षेत्र था तो पूर्व में यमुना नदी बहती थी
जिसके पार शाहदरा की पुरानी बस्ती थी। शेष क्षेत्र कृषि क्षेत्र था जिसके बीच-बीच
में कुछ गांव और पुराने शहरों के अवशेष थे। जनसंख्या की दृष्टि से गुजरांवाला के
बराबर ही था दिल्ली शहर।
ट्रेन से उतर कर पैदल यात्रा करने वाले कुछ और
लोग भी थे। किसी ने हौज़ खास जाना था तो किसी ने धौला कुआं तो कोई पुरानी दिल्ली
जाना चाहता था। हौज़ खास और धौला कुआं में कुछ बस्तियाँ थीं। जब तक संभव हुआ, भूषण
ने उन लोगों का साथ नहीं छोड़ा। हौज़खास था तो मूलतः हिंदुओं का गांव परंतु उसके पास
कुछ मुस्लिम गांव भी थे। पैदल यात्रियों में एक व्यक्ति हौज़खास का रहने वाला था
परंतु उससे भी रात के अंधेरे में भूल हो गई। वह उन सबके साथ एक मुस्लिम गांव के
पास पहुँच गया। इस भूल का अहसास उसे तब हुआ जब कुछ हथियारबंद मुस्लिम सामने से आते
दिखे। उस स्थानीय यात्री ने सबको तुरंत आगाह कर दिया और सबसे कह दिया कि वे अपने
लिए कोई मुस्लिम नाम सोच कर रख लें और कोई पूछे तो अपना मुस्लिम नाम ही बताएं।
भूषण के दिमाग में गुजरांवाला और लाहौर से आने
वाली खबरें चलचित्र की भांति घूम गईं। एक पल को उसे ऐसा लगा मानो सब यात्रियों का
अंतिम समय आ गया हो। उसने ठान लिया कि यदि मरना भी पड़ा तो कम से कम दो को तो मारकर ही
मरेगा वह। मन ही मन वह स्वयं को कोस रहा था कि क्यों उसके हाथ में भी कोई हथियार
नहीं था। अब तो इन हमलावरों से हथियार छीनकर ही युद्ध करना पड़ेगा। बिना युद्ध के
एक निरीह बकरे के समान आत्मसमर्पण करना तो कायरता होती।
हथियारबंद मुस्लिमों का वह जत्था निकट आ गया था।
भूषण ने मन ही मन यह सोचना शुरू कर दिया कि वह किस प्रकार सामने वालों में से एक
पर आक्रमण कर उसका हथियार छीनेगा और उनपर उस हथियार से हमला कर देगा।
भूषण का सहयात्री, जो वहीं का रहने वाला था, बहुत साहसी और समझदार निकला।
उसने आगे बढ़कर उन हथियारबंद मुस्लिमों से पूर्ण विश्वास से बात की और सामने से आने
वाला झुंड मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया। कुछ कदम चलने के बाद उसने बताया कि उसने
उनसे किसी स्थानीय मुस्लिम के बारे में कुछ पूछा जिससे उन्हें भरोसा हो गया कि वे
भी मुस्लिम ही थे। भूषण और अन्य यात्रियों की जान में जान आई। यदि वह स्थानीय
साहसी व्यक्ति उनके साथ न होता तो आज उनके लिए वह अंतिम समय होता।
धौला कुआं से आगे करोल बाग तक का रास्ता जंगल और
रिज का मार्ग था। मार्ग में हिंस्र पशुओं का खतरा था परंतु दिन में खतरा अधिक था।
यह रास्ता उसे अकेले ही पार करना था, बिना रुके। एक बार मौत का
साक्षात्कार करने के बाद उसका डर भी बहुत कम हो गया था।
पौ फट गई थी। भूषण करोल बाग क्षेत्र में प्रवेश
कर चुका था जो एक हिन्दू-बहुल क्षेत्र था। मुस्लिम वहाँ नगण्य थे। भूषण अब
सुरक्षित था। परंतु माता-पिता और बहिन के कुशल-क्षेम की भूषण की चिन्ता अब और भी प्रबल हो गई थी। कैसे होंगे वे? यहीं करोल बाग में होंगे न? कहीं वापस गुजरांवाला के लिए तो नहीं निकल पड़े होंगे? या फिर अमृतसर, अंबाला जैसे किसी और स्थान के
लिए तो प्रस्थान नहीं कर गए? यदि वे यहाँ न मिले तो वह
कैसे ढूंढेगा उन्हें? सुरक्षित तो होंगे न वे सब?
पता पूछते-पूछते वह अपने पिताजी के मामा के घर
तक पहुँच गया। उसके दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं। सहमे हाथों से उसने दरवाजा खटखटाया।
दरवाज़ा उसकी माताजी ने ही खोला। पीछे-पीछे उसके पिताजी आ रहे थे। उन्हें देखकर भूषण का शरीर शिथिल हो गया, आँखें नम हो गईं और होंठ कांपने लगे। माता-पिता का मन!
पता नहीं कैसे उन्हें अहसास हो गया था कि उनका पुत्र है दरवाज़े पर! कितने दिनों से
उनकी निगाहें दरवाज़े पर ही टिकी हुई थीं! कितने पत्र लिखे थे उन्होंने! परंतु न
पिता के पत्र पुत्र को मिल रहे थे और न ही पुत्र के पत्र उसके माता-पिता को।
दरवाज़े पर ही आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी। माता-पिता और पुत्र के आनंद की सीमा नहीं
थी। उसकी छोटी बहिन शोर सुनकर बिस्तर से उठी थी और पिताजी के मामा की गोद में अलसाई
हुई इस दृश्य को समझने का प्रयत्न कर रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपने भैया
को इतने लंबे अंतराल के बाद देख कर खुश हो अथवा वह भी रोये औरों की भांति।
एक छोटे से परिवार का महीनों बाद पुनर्मिलन हो गया था परंतु सब कुछ बदल चुका था
इस बीच। जैसे एक युग बीत गया हो। वह बड़ी हवेली पीछे छूट गई थी। वे खेत-खलिहान बहुत
पुरानी बात हो चुकी थी। अब तो उनके पास एक छत भी नहीं थी अपनी। पहलवानों के देस
गुजरांवाला के पण्डितजी सूख कर कांटा हो चुके थे। जो पंडिताइन अपने बड़े जिगरे के
लिए पूरे शहर में विख्यात थीं, जिनके
घर से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटता था, जिनके घर में धन
खुली टोकरियों में
रखा होता था, वह स्वयं अपने बच्चों के
मुंह में निवाला डालने के लिए किसी और पर निर्भर थीं जो स्वयं अपने संयुक्त परिवार के साथ करोल बाग के साथ एक छोटे से मकान
में रहते थे। भूषण की माताजी की आँखें रो-रोकर रुग्ण हो गई थीं, परंतु इलाज के लिए पैसे नहीं थे।
शाम को भूषण छत पर अकेला टहल रहा था। अगर उसके
माता-पिता विभाजन के बहुत पहले ही अपना शहर छोड़ कर इधर न आ गए होते तो उनके पास
समय होता, धन-संपत्ति साथ लाने का। ज़मीन-जायदाद के कागजात साथ लाने
का। तो आज वे इस प्रकार बेबस न होते आर्थिक दृष्टि से। परंतु क्या वे आ भी पाते
जीवित?
एक नया जीवन मिला था भूषण और उसके माता-पिता को, परिवार
को। इस नए जीवन में बहुत कुछ करना था भूषण को। माताजी की आँखों का ऑपरेशन करवाना
था। पिताजी की खोयी हुई सेहत को वापस लाना था। छोटी बहन की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था
करना था। परिवार के लिए एक घर ढूँढना था, किराये पर ही
सही। उस किराये की व्यवस्था करनी थी। उधर कृशकाय पिताजी ने अपनी अंतिम इच्छा की
घोषणा कर दी थी; बीते हुए कल को भूलकर वह अपने बेटे के
सिर पर सेहरा देखना चाहते थे।
भूषण के लिए सबसे पहला आवश्यक कदम था, अपने
लिए एक नौकरी ढूँढना। और हाँ, उससे पहले बॉम्बे जाकर
अपनी पढ़ाई को भी तो बीच में छोड़ना था, हॉस्टल खाली करना
था.... विनाश के बीच निर्माण करना था, सृजन करना था।
heart rending. Tragic times. Anti-national elements are once again up in arms to cause social upheaval and divide the country. Why does India produce so many traitors!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर तरीके से आपने यथार्थ सोया है बहुत ही दिल छूने वाली लेख है आपकी बहुत-बहुत धन्यवाद मनमोहन दीवान
ReplyDeleteधन्यवाद
ReplyDeleteTouching narration- insights of partition
ReplyDeleteबहुत अच्छे से लिखा है l विभाजन की सही तस्वीर बतायी गयी है l मैं नेहरू से कहीं ज़्यादा गांधी को कत्लेआम का जिम्मेदार मानता हूं l
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