- धरमपाल जी -
घर पहुंचा ही था कि घर की घंटी बजी. सामने धरमपाल जी खड़े थे. सफ़ेद धोती कुर्ता, सर पर एक मैली सी सफ़ेद चादर बांध कर लपेटा गया साफ़ा और हाथ में एक पोटली, जिसमें शायद एक-दो जोड़ी कपड़े थे उनके. ऐसे ही दिखते थे वह, जब मैं पिछली बार मिला था उनसे. धोती-कुर्ता नया था, परन्तु सर पर बांधा हुआ कपड़ा वही था, सफ़ेद किंतु मैला.
कुछ दिन पहले फ़ोन आया था उनका. एक-दूसरे का कुशल क्षेम जानने के बाद उन्होंने मेरा पता पूछा. उन्हें लिखना पढ़ना तो आता नहीं था. उन्होंने अपने बेटे को फ़ोन दिया और मैंने उसे अपना पता और कैसे पहुंचना है, आदि की जानकारी नोट करा दी. मैंने पूछा कि कब आ रहे हैं तो बोले, "जल्दी ही आऊंगा जी." मैंने उनसे कहा कि आने से पहले फ़ोन कर दें ताकि मैं उन्हें स्टेशन से लेने की व्यवस्था कर दूं. परन्तु धरमपाल जी तो स्वयंमेव अकेले ही पहुंच गए थे, बिना बताए.
धरमपाल जी से मेरी भेंट बैंक की शाखा में हुई थी जब मेरी तैनाती एक ग्रामीण शाखा में हुई थी.
दूर-दूर के गांवों से ग्रामीण आते थे यहां. धरमपाल जी भी एक दूर के गांव से ही आते थे. उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर तब आकृष्ट किया था, जब बैंक शाखा में कुछ ग्रामीण खाताधारक काउंटर पर बैठे एक कर्मचारी से अनावश्यक बहस कर रहे थे और उस कर्मचारी की सुन ही नहीं रहे थे. शोर सुनकर मैं उस काउंटर की ओर बढ़ा, परन्तु मेरे वहां पहुंचने से पहले ही धरमपाल जी प्रकट हुए और मोर्चा संभाल लिया. उन्होंने बहुत परिपक्वता के साथ उन लोगों को समझाया और मामला शांत हो गया. मैं दूर खड़ा चुपचाप उनसे सीख रहा था कि ग्रामीण ग्राहकों से कैसे व्यवहार करना चाहिए. आखिर, मेरा तो यह पहला अवसर था, ग्रामीण अंचल में काम करने का. मैं उनसे बहुत प्रभावित था और उन्हें अपने केबिन में ले गया.
धरमपाल जी से धीरे धीरे कुछ अधिक ही लगाव हो गया. वह एक निर्धन किंतु सुसंस्कृत ग्रामीण थे. कभी-कभी वह बिना काम के केवल मुझसे मिलने के लिए ही आ जाया करते. यह अलग ही प्रकार की #घुमक्कड़ी थी. पूछने पर कहते कि खेतों में काम तो भोर के समय ही होता है, उसके बाद तो किसान अपना दिन 'घेर' में ठाली (बिना प्रयोजन के) बैठकर ही गुज़ारते हैं. वही बातें दिन प्रतिदिन दोहराई जाती हैं. उससे अच्छा वह इधर आ जाते हैं जहां चार पढ़े लिखे लोगों से भेंट हो जाती है.
पता चला, वह पांच-छह किलोमीटर पैदल चल कर आते थे, गांवों की पगडंडियों से होते हुए. अधिक पूछने पर उन्होंने बताया कि गांव से सवारी बुग्गियां भी चलती हैं जो गांव की दूसरी ओर सड़क पर छोड़ती हैं और वहां से बस भी मिलती है. परन्तु वह बस के स्थान पर पैदल आना अधिक पसन्द करते थे. कहते, "बस का रास्ता बहुत लंबा पड़ता है, और उसमें भीड़ भी बहुत होती है."
जब मेरा स्थानांतरण वहां से हो गया तो भी वह मुझसे संपर्क में रहे, फ़ोन पर. आज वह सशरीर मेरे सामने खड़े थे. बोले, "आना तो बड़े बेटे के साथ था, मगर चलने के समय पर वह बिट्टर गया (उसने मना कर दिया) तो मैं अकेले ही चला आया, आपके पते का कागज लेकर. ट्रेन से उतर कर, वह कागज़ हाथ में लेकर पूछते-पूछते पैदल ही वह चले आए थे मेरे घर तक. परिवार में हम सब हैरान थे. इतने किलोमीटर शहर में पैदल? कोई आठ-दस किलोमीटर तो रहा होगा रास्ता!
कुछ दिन वह रहे हमारे यहां. वापस स्टेशन पर छोड़ने के लिए मैंने अपनी कार में उन्हें बिठाया. न नुकुर करके वह बैठ तो गए परन्तु पांच ही मिनट में वह मुझे उतारने के लिए दबाव डालने लगे, "मुझे धुआं चढ़ रहा है जी." ए. सी. कार में धुआं? मगर क्या करता, कार रोकनी पड़ी. ऑटो, बस के विकल्पों से भी उन्होंने इनकार कर दिया. बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु वह टस से मस नहीं हुए. "पैदल ही जाऊंगा जी!" और वह पैदल ही गए.
जो शहरी लोग दो सौ मीटर दूर सब्ज़ी लेने भी बिना वाहन के नहीं जाते, वे कैसे समझेंगे इस #पैदल_घुमक्कड़ी
के रस को!