Monday, July 31, 2023

धरमपाल जी

 - धरमपाल जी -


घर पहुंचा ही था कि घर की घंटी बजी. सामने धरमपाल जी खड़े थे. सफ़ेद धोती कुर्ता, सर पर एक मैली सी सफ़ेद चादर बांध कर लपेटा गया साफ़ा और हाथ में एक पोटली, जिसमें शायद एक-दो जोड़ी कपड़े थे उनके. ऐसे ही दिखते थे वह, जब मैं पिछली बार मिला था उनसे. धोती-कुर्ता नया था, परन्तु सर पर बांधा हुआ कपड़ा वही था, सफ़ेद किंतु मैला.

कुछ दिन पहले फ़ोन आया था उनका. एक-दूसरे का कुशल क्षेम जानने के बाद उन्होंने मेरा पता पूछा. उन्हें लिखना पढ़ना तो आता नहीं था. उन्होंने अपने बेटे को फ़ोन दिया और मैंने उसे अपना पता और कैसे पहुंचना है, आदि की जानकारी नोट करा दी. मैंने पूछा कि कब आ रहे हैं तो बोले, "जल्दी ही आऊंगा जी." मैंने उनसे कहा कि आने से पहले फ़ोन कर दें ताकि मैं उन्हें स्टेशन से लेने की व्यवस्था कर दूं. परन्तु धरमपाल जी तो स्वयंमेव अकेले ही पहुंच गए थे, बिना बताए.

धरमपाल जी से मेरी भेंट बैंक की शाखा में हुई थी जब मेरी तैनाती एक ग्रामीण शाखा में हुई थी.

दूर-दूर के गांवों से ग्रामीण आते थे यहां. धरमपाल जी भी एक दूर के गांव से ही आते थे. उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर तब आकृष्ट किया था, जब बैंक शाखा में कुछ ग्रामीण खाताधारक काउंटर पर बैठे एक कर्मचारी से अनावश्यक बहस कर रहे थे और उस कर्मचारी की सुन ही नहीं रहे थे. शोर सुनकर मैं उस काउंटर की ओर बढ़ा, परन्तु मेरे वहां पहुंचने से पहले ही धरमपाल जी प्रकट हुए और मोर्चा संभाल लिया. उन्होंने बहुत परिपक्वता के साथ उन लोगों को समझाया और मामला शांत हो गया. मैं दूर खड़ा चुपचाप उनसे सीख रहा था कि ग्रामीण ग्राहकों से कैसे व्यवहार करना चाहिए. आखिर, मेरा तो यह पहला अवसर था, ग्रामीण अंचल में काम करने का. मैं उनसे बहुत प्रभावित था और उन्हें अपने केबिन में ले गया.

धरमपाल जी से धीरे धीरे कुछ अधिक ही लगाव हो गया. वह एक निर्धन किंतु सुसंस्कृत ग्रामीण थे. कभी-कभी वह बिना काम के केवल मुझसे मिलने के लिए ही आ जाया करते. यह अलग ही प्रकार की #घुमक्कड़ी थी. पूछने पर कहते कि खेतों में काम तो भोर के समय ही होता है, उसके बाद तो किसान अपना दिन 'घेर' में ठाली (बिना प्रयोजन के) बैठकर ही गुज़ारते हैं. वही बातें दिन प्रतिदिन दोहराई जाती हैं. उससे अच्छा वह इधर आ जाते हैं जहां चार पढ़े लिखे लोगों से भेंट हो जाती है.

पता चला, वह पांच-छह किलोमीटर पैदल चल कर आते थे, गांवों की पगडंडियों से होते हुए. अधिक पूछने पर उन्होंने बताया कि गांव से सवारी बुग्गियां भी चलती हैं जो गांव की दूसरी ओर सड़क पर छोड़ती हैं और वहां से बस भी मिलती है. परन्तु वह बस के स्थान पर पैदल आना अधिक पसन्द करते थे. कहते, "बस का रास्ता बहुत लंबा पड़ता है, और उसमें भीड़ भी बहुत होती है."

जब मेरा स्थानांतरण वहां से हो गया तो भी वह मुझसे संपर्क में रहे, फ़ोन पर. आज वह सशरीर मेरे सामने खड़े थे. बोले, "आना तो बड़े बेटे के साथ था, मगर चलने के समय पर वह बिट्टर गया (उसने मना कर दिया) तो मैं अकेले ही चला आया, आपके पते का कागज लेकर. ट्रेन से उतर कर, वह कागज़ हाथ में लेकर पूछते-पूछते पैदल ही वह चले आए थे मेरे घर तक. परिवार में हम सब हैरान थे. इतने किलोमीटर शहर में पैदल? कोई आठ-दस किलोमीटर तो रहा होगा रास्ता!

कुछ दिन वह रहे हमारे यहां. वापस स्टेशन पर छोड़ने के लिए मैंने अपनी कार में उन्हें बिठाया. न नुकुर करके वह बैठ तो गए परन्तु पांच ही मिनट में वह मुझे उतारने के लिए दबाव डालने लगे, "मुझे धुआं चढ़ रहा है जी." ए. सी. कार में धुआं? मगर क्या करता, कार रोकनी पड़ी. ऑटो, बस के विकल्पों से भी उन्होंने इनकार कर दिया. बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु वह टस से मस नहीं हुए. "पैदल ही जाऊंगा जी!" और वह पैदल ही गए.

जो शहरी लोग दो सौ मीटर दूर सब्ज़ी लेने भी बिना वाहन के नहीं जाते, वे कैसे समझेंगे इस #पैदल_घुमक्कड़ी
के रस को!

Thursday, July 27, 2023

- देवदूत -

सुगम और सुखद अनुभव कम ही स्मरण रहते हैं. चुनौतियां ही स्मृतियों को सुखद बनाती हैं और स्मरणीय भी.


यह बात तब की है जब एक सरकारी बैंक में मेरी नौकरी का पहला वर्ष था. बैंक में पहला वर्ष ट्रेनिंग का होता था जिसमें विभिन्न शहरों की शाखाओं में भिन्न भिन्न प्रकार के कार्य करने और सीखने के वास्ते जाना होता था. पहले वर्ष में वर्षपर्यन्त केवल 12 आकस्मिक छुट्टियां मिलती थीं. एक भी छुट्टी अधिक लेने से न केवल तनख्वाह कटती थी बल्कि साथ ही जीवन भर के लिए अपने ग्रुप की सीनियरिटी भी जाती रहती थी.

मैं इससे पहले स्काउटिंग के कैंप आदि में तो जाता रहता था, परन्तु इतने लंबे समय के लिए घर से बाहर रहने का मेरा यह पहला अनुभव था. पहली पोस्टिंग दिल्ली में थी, दूसरी चेन्नई में, फिर दिल्ली, फिर चेन्नई और वहां से सीधे मुंबई. चेन्नई में रहते हुए रविवार या कोई राजपत्रिक अवकाश के साथ जोड़कर छुट्टियां लेकर दक्षिण भारत के अनेक मुख्य दर्शनीय एवं तीर्थ स्थान देख लिए. स्वाभाविक है, घर की बहुत याद आ रही थी. दीवाली के अवसर पर बचे-खुचे आकस्मिक अवकाश दीपावली अवकाश के साथ जोड़कर घर आए, परिवार के साथ मिलकर दीवाली मनाई. आने-जाने की ट्रेन रिजर्वेशन पहले से करा रखी थी मैंने.

जब जाने का समय आया तो बचपन के एक मित्र ने मेरे साथ मुम्बई चलने का कार्यक्रम बना लिया. वह एक व्यावसायिक परिवार से था और उसने कभी दिल्ली के बाहर अकेले कदम रखा ही नहीं था.

मैंने अपने लिए किसी फटीचर ट्रेन में रिज़र्वेशन करवा रखा था क्योंकि किसी सुपरफास्ट ट्रेन में बर्थ उपलब्ध नहीं थी. अब मित्र की रिज़र्वेशन कैसे मिलती? मित्र के पिताजी दिल्ली में पार्षद भी थे. उनकी सिफ़ारिश से उनके क्षेत्र के कई लोग वीआईपी कोटे का लाभ उठाते रहते थे. उनके अपने पुत्र के लिए क्या समस्या थी. अपने पुत्र को वह अकेले भेजना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने मेरा रिज़र्वेशन रद्द करवा दिया और एक सुपरफास्ट ट्रेन में हम दोनों की बर्थ्स वेटिंग में बुक करवा दीं और वीआईपी कोटे के लिए औपचारिकताएं कर दीं.

हमें स्टेशन तक छोड़ने मेरे मित्र के दो बड़े भाई आए थे. स्टेशन पहुंचे तो चार्ट में हम दोनों के नाम नहीं थे. यह देख मुझे तो काटो तो खून नहीं. मित्र के भाई बोले, "कोई बात नहीं, कल की बुकिंग करवा देते हैं. इस बार प्रधानमंत्री के कोटे से रिज़र्वेशन कन्फर्म करवा देंगे.

बहुत मुश्किल से उन्हें समझाया कि इस ट्रेन से जाने के अलावा मेरे पास कोई उपाय नहीं था क्योंकि मैं वर्ष की सभी 12 छुट्टियां ले चुका था एवं अगले दिन सुबह दस बजे से पहले यदि मैं बैंक नहीं पहुंचा तो इतने परिश्रम के बाद
प्रतियोगी परीक्षा में प्राप्त सीनियरिटी जाती रहेगी, मेरा करियर खराब हो जाएगा. मैंने उनसे कहा कि वे मेरे मित्र को अगले दिन भेज दें, मैं इसी ट्रेन से निकलूंगा चाहे जो हो जाए.

मित्र को यह स्वीकार नहीं था. ट्रेन चलने में अभी बहुत समय था और मित्र के भाई किसी जुगाड़ में लग गए. प्लेटफॉर्म पर ही एजेंट घूम रहे थे. उनमें मुख्य एजेंट था बॉबी. बाकी सब एजेंट भी उसी के लिए काम कर रहे थे. सबका यही कहना था की 'बॉबी साहिब की बहुत चलती थी रेलवे में.

'बॉबी साहिब' से बात की गई. उन्होंने कहा कि भाग कर टिकट काउंटर से फर्स्ट क्लास की दो टिकट्स ले आओ, बाकी मैं करवा दूंगा. जितने की टिकट्स आनी थी, उससे अधिक का 'सेवा शुल्क' मांगा उसने. भावतोल करने पर वह कहता 'फिक्स्ड रेट' और अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेता. प्लेटफॉर्म पर हम जैसों की बहुत भीड़ थी.

मुझसे पूछे बिना मेरे मित्र के भाईयों ने इस डील को स्वीकार कर लिया. अपने एक आदमी को बुलाकर बॉबी ने हमें उसे टिकट के मूल्य जितनी राशि देने को कहा. वह व्यक्ति पैसे लेकर चल दिया. "पता नहीं, वह व्यक्ति वापस आता भी है नहीं," यह सोचकर मैं उसके पीछे बदहवास भागा. टिकट काउंटर पर बहुत भीड़ थी. उधर ट्रेन का टाइम हो रहा था. मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं. काफ़ी देर बाद टिकट्स मिलीं उसे. मेरे मांगने पर उसने दो टूक उत्तर दिया कि टिकट्स तो बॉबी साहिब ही देंगे आपको.

प्लेटफॉर्म पर पहुंचे तो ट्रेन का टाइम हो गया था. कहीं ट्रेन चल न पड़े, यह सोचकर मेरा दिल धौंकनी की तरह चल रहा था. अपना सेवा शुल्क लेकर बॉबी ने हमें एक कोच नंबर और बर्थ्स नंबर बताए और बोला, "जल्दी सामान अंदर रखो, ट्रेन चल पड़ी है." हम सबने भागकर बताई गई कोच में सामान चढ़ाया. ट्रेन रेंगने लगी पटरी पर. अचानक मुझे स्मरण आया, अरे, टिकट्स तो बॉबी के पास ही हैं. मैं चलती ट्रेन छोड़ भागकर बॉबी के पास आया. उसने बिना किसी जल्दी के जेब से टिकट्स निकालकर मुझे दे दीं. मेरी सांस में सांस आई और मैंने फ़िर से चलती ट्रेन को भाग कर पकड़ लिया.

हम बॉबी द्वारा बताई गई बर्थ्स की ओर बढ़ ही रहे थे कि हमें टीटीई महाशय दिख गए. हम मुस्कुराते हुए उनकी ओर बढ़े उन्हें अनरिजर्वड टिकट देकर बोले, सर हमें बॉबी ने बताया है कि आपसे इन दो बर्थ्स के लिए बात हो गई है.

यह सुनते ही भलेमानस से दिखने वाले टीटीई महाशय के चेहरे पर कड़वे भाव आ गए. बोले, "तो उस बॉबी से ही ले लो न ये बर्थ्स! मैं किसी बॉबी-वॉवी को नहीं जानता. आप दोनों अगले स्टेशन पर अपने आप उतर जाना, वरना चालान भी करूंगा और पुलिस के हवाले कर दूंगा."

मैं तो उनका कड़ा रुख देखकर सकते में आ गया था, परन्तु मेरा मित्र उनसे अनुनय विनय करने लगा. सब प्रयास विफल रहे. अगला स्टेशन आने से पहले वह टीटीई महाशय सब काम छोड़कर हमें यूं घूर रहे थे, मानो उन्हें रेलवे ने हमें ट्रेन से उतारने के काम पर ही रखा था!

हम सामान सहित उस कोच से उतरे. बिना समय गंवाए मैंने निर्णय लिया और फर्स्ट क्लास की एक अन्य कोच में हम चढ़ गए. मित्र को सामान सहित एक ओर खड़ा किया और मैं निकल गया भीख मांगने! अंततः एक कूपे में बैठे दो यात्रियों को मैंने राज़ी करवाया कि वे हमारा सामान अपने कूपे में रख लें. हम कहीं भी, किसी भी क्लास में बैठ कर, खड़े होकर यात्रा कर लेंगे, हमने निर्णय किया.

अब हम सामान की चिंता से मुक्त हो गए थे. केवल अपने नश्वर शरीरों को टीटीई की निगाहों से बचाते हुए मुम्बई तक पहुंचाना बाकी था.

हम एक कोच से दूसरी कोच, फर्स्ट क्लास से एसी से स्लीपर क्लास में चढ़ उतर रहे थे. जब थक जाते तो फर्स्ट क्लास में जो अटेंडेंट की सीट होती है, उसपर बैठ जाते. उस सीट से वैसे भी कोच से जल्दी नीचे उतरने में सहायता होती है.

लुका-छिपी का यह खेल खेलते हुए रात होने को आई. रतलाम आने वाला था. हम उस कोच के गेट के पास नीचे प्लेटफॉर्म पर खड़े थे, जिसके एक कूपे में हमारा सामान रखा था, कि एक अन्य टीटीई महोदय हमारे पास आए और मुस्कुरा कर बोले, "मैं तुम्हें घंटों से देख रहा हूं, यह जो खेल तुम खेल रहे हो. मेरी ड्यूटी यहीं तक है. मैं तुम्हें बता दूं कि यहीं रतलाम में तुम उतर जाओ और आगे की यात्रा कल दिन में करना. रात के समय तुम्हें कोई कोच में ठहरने नहीं देगा और तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है." यह कहकर और मेरे कंधे पर स्नेह से हाथ रखकर वह चले गए. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा उन्हें धन्यवाद तक न कह सका.

परन्तु अगले दिन ड्यूटी ज्वाइन करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझ रहा था मुझे. हमने इसी ट्रेन में यात्रा जारी रखने का निर्णय लिया. हां, फर्स्ट क्लास से हटकर हम एसी कंपार्टमेंट में आ गए थे. एक अनजान सज्जन व्यक्ति ने हमें यह राय दी थी कि एसी में बर्थ मिलने की संभावना अधिक थी, पेनल्टी का भुगतान करके, और हम उसे आजमाना चाहते थे.

कोच में एक खाली बर्थ देखकर हम उसपर बैठ गए. थोड़ी ही देर में रतलाम से ही एक परिवार चढ़ा. हम बर्थ पर बैठे रहे. सोचा, अभी टीटीई आएंगे तो उठ जाएंगे. जिस बर्थ पर हम बैठे थे, वह इसी परिवार की थी, इतना तो हमें आभास हो गया था.

उस परिवार में एक बच्चा था, बहुत प्यारा और बातूनी बच्चा. आते ही वह हमारा मित्र बन गया. उसकी मासूम बातों को सुन हम कुछ पलों के लिए अपना कष्ट भूल से गए थे. उसके पापा बाहर निकले और खिड़की में से उसे आलू के चिप्स और कोल्ड ड्रिंक पकड़ाए. वह अपने पिता जी से हमारे लिए भी कोल्ड ड्रिंक्स लाने को कहने लगा. हमें बहुत अजीब लग रहा था. बहुत मुश्किल से उसे मनाया. फिर भी हमें यह मजबूर करके ही वह माना कि हम उसके पैकेट में से उसके चिप्स सांझा करें.

जब ट्रेन चली और उसमें रतलाम से जो टीटीई महोदय चढ़े, उन्हें देखकर तो मेरे होश ही उड़ गए. मैंने तब तक बहुत यात्राएं तो नहीं की थीं, परन्तु उन टीटीई महोदय की सख्ती मैं दिल्ली कानपुर रूट पर देख चुका था, दो नियमित यात्रियों की आपसी बात में उनकी बहुत बड़े 'खड़ूस' होने की चर्चा भी सुन चुका था. वह एक सरदारजी थे और न भूल सकने वाले व्यक्तित्व के धनी थे.

आते ही उन्होंने अपनी कर्कश वाणी में यह ऐलान कर दिया कि कोच में कोई बर्थ खाली नहीं थी और जिनके पास कन्फर्म्ड बर्थ न हो, वे अपना और उनका समय खराब न करें. बिना बात किए अगले स्टेशन पर उतर जाएं, वरना उनके साथ पुलिस बात करेगी. हमारी हालत खराब थी. यहां तो फर्स्ट क्लास से भी बुरा हाल हो रहा था.

अचानक बच्चे ने हमसे पूछा, "मगर आप लोग यहां क्यों बैठे हो? आपकी सीट्स कहां हैं?"

"अभी चले जाएंगे बेटा," मैंने उत्तर दिया, "हमारी बर्थ कन्फर्म्ड नहीं हैं. टीटीई अंकल से बात करते हैं, जब वह इधर आएंगे तो. आपको लेटना हो तो लेट जाओ, हम खड़े हो जाते हैं."

उस बच्चे ने जो आगे कहा, उसकी आशा हमें बिलकुल नहीं थी. वह बोला, "नहीं, नहीं अंकल, आप बैठो. मेरे पापा रेलवे में हैं; वह दिलवा देंगे आपको बर्थ." इतना कहकर वह अपने पापा से हमारे लिए सिफ़ारिश करने लगा ज़ोर शोर से. उसके पापा ने उसे समझाने की कोशिश की तो वह अड़ गया, "अगर इन्हें बर्थ नहीं मिली तो मैं दे दूंगा इन्हें अपनी बर्थ. मैं नीचे ज़मीन पर सो जाऊंगा.

उसके पापा हार गए अपने छोटे से पुत्र से. थोड़ी ही देर में जब टीटीई महोदय हमारे पास आए तो उन्होंने खड़े होकर उनसे बात की हमारे बारे में. टीटीई महोदय ने हमसे भी पूछताछ की. हमने उन्हें अपनी मजबूरी बता दी कि क्यों मेरा यही ट्रेन पकड़ना आवश्यक था. बॉबी वाला प्रकरण उनसे जानबूझकर छुपा लिया हमने. उन्होंने बहुत सौम्यता के साथ हमें बता दिया कि उनके पास न तो कोई खाली बर्थ उपलब्ध थी और न ही उन्हें मुम्बई तक किसी बर्थ के उपलब्ध होने की संभावना थी. फिर भी, उन्होंने हमें बैठे रहने को कहा और 'कुछ करने' का आश्वासन दिया.

हम हतप्रभ थे उस कर्कश दिखने वाले सरदार जी की सौम्यता देखकर. परन्तु हमारी निगाहें टिकी थीं उस बालक पर, जो हमें एक देवदूत सा दिख रहा था.

थोड़ी देर में सरदार जी वापस आए. बोले,"बर्थ तो पूरी ट्रेन में कहीं नहीं मिलेगी. मगर इतना बंदोबस्त हो सकता है कि तुम कल अपनी नौकरी ज्वाइन कर पाओ. कोच अटैंडेंट की बर्थ तुम्हें मिल सकती है, बिस्तर का प्रबन्ध भी हो जाएगा. मगर वहां सीट गद्देदार नहीं होगी, वहां एसी भी नहीं मिलेगा और एक बर्थ में तुम दोनों को एडजस्ट होना होगा. तैयार हो?" अंधा क्या चाहे, दो आंखें! हमने एकदम हामी भर दी. सरदार जी ने इशारा किया और हम उनके पीछे-पीछे चल दिए. ए.सी. के क्षेत्र से बाहर उस लकड़ी की बर्थ पर सरदार जी ने खुद अपनी देखरेख में बिस्तर लगवाया और हमें उसी बर्थ के नीचे वाली बर्थ, जिसपर परिचारक का कुछ सामान रखा था, में जगह बनवा कर हमसे कहा कि हम अगले स्टेशन पर उतर कर अपना सामान फर्स्ट क्लास के कूपे से लाकर वहां रख लें.

हमने उनका हृदय से आभार व्यक्त किया, कोच के भीतर जाकर उन अंकल का आभार व्यक्त किया, जिन्होंने हमारे लिए सरदार जी से सिफ़ारिश की थी. उस देवदूत की ओर देखकर तो हमारे नेत्र डबडबा रहे थे. दिल तो कर रहा था उसे अंक में भर लें, परन्तु ऐसा हम कर न सके. वह देवदूत इस बात से खुश तो नहीं था कि हमें कोच के बाहर सोना पड़ रहा था, परन्तु हमारे चेहरों पर प्रसन्नता देखकर वह चुप रहा. मेरी 'दो टकियों की नौकरी' के चक्कर में मेरा रईस मित्र भी फर्स्ट क्लास की टिकट से दुगनी राशि खर्च कर गर्मी में लकड़ी के फट्टों पर मेरे साथ बर्थ सांझा कर रहा था.


Friday, July 21, 2023

मेरी पहली एकल घुमक्कड़ी -

 यह मेरी पहली घुमक्कड़ी थी, अकेले. अकेले करनी पड़ी थी, वैसे पिताजी ने तो एक संरक्षक की देखरेख में ही भेजा था मुझे.


आप सही समझे. बात तब की है जब मैं एक किशोर था. पिताजी साउंड इंजीनियर थे और उत्तर भारत के अनेक सिनेमाघरों और विशेषकर कानपुर के प्रायः सभी सिनेमाघरों का रखरखाव उनकी जिम्मेदारी थी. चूंकि कानपुर में उनका अधिक समय रहना होता था, कभी-कभी मैं दिल्ली से उनके पास चला जाया करता था. मस्ती रहती थी, किसी भी सिनेमाघर में कभी भी चले जाओ, फ़िल्म अच्छी न लगे तो किसी अन्य सिनेमाघर में चले जाओ.

स्कूल खुलने वाला था और पिताजी को कानपुर से कहीं और जाना था, तो उन्होंने मुझे अकेले ही दिल्ली के लिए रवाना कर दिया.

'कोशिश' फ़िल्म के डिस्ट्रीब्यूटर फ़िल्म के सिलसिले में कानपुर आए हुए थे और वापस दिल्ली जा रहे थे. मेरे लिए भी उन्हीं के साथ ट्रेन में रिज़र्वेशन करवा दिया गया.

दिन की ट्रेन थी. पिताजी मुझे छोड़ने स्टेशन आए, मेरा उन सज्जन से परिचय कराया, मुझे उन 'अंकल' की बात मानने जैसी हिदायतें दीं, मेरी टिकट उनके हाथ में पकड़ाई और उनके साथ मुझे ट्रेन पर चढ़ा दिया गया. ट्रेन चल पड़ी और पिताजी पूरी तरह से आश्वस्त होकर चले गए.

जाते समय पिताजी मुझे कुछ कॉमिक्स वगैरह दे गए थे. मैं उनमें डूब गया. उन सज्जन को कोई परिचित मिल गए थे कोच में, जिनके साथ वह व्यस्त हो गए थे. "ठीक हो न बेटा", के अतिरिक्त हमारी कोई बात नहीं हुई.

आधे रास्ते बाद टूंडला स्टेशन आया. मेरी खिड़की के सामने एक बुक स्टॉल था जो मुझे अपनी ओर खींच रहा था. परन्तु 'अंकल जी' को अपने मित्र के साथ धूम्रपान आदि के लिए प्लेटफॉर्म पर उतरना था. चुनांचे वह मुझे "बेटा, सामान का ध्यान रखना," कहकर ट्रेन से उतर गए.

बहुत देर तक उनके वापस न आने से मैं उतावला हो रहा था. मुझे टॉयलेट भी जाना था, परन्तु "सामान का ध्यान रखना" वाली जिम्मेदारी के कारण मैं सीट से बंधा था.

बहुत देर बाद जब वे दोनों ट्रेन में चढ़े तो कंपार्टमेंट के सभी टॉयलेट भीतर से बंद थे. मेरी कठिनाई समझकर 'अंकल जी' ने प्लेटफॉर्म के दूसरी ओर खड़ी ट्रेन की ओर इशारा कर कहा, "उसमें चले जाओ, उस ट्रेन के चलने में अभी बहुत टाइम है."

"मगर यह, हमारी ट्रेन तो चलने वाली होगी!" मैंने शंका व्यक्त की.

"अरे नहीं, अभी तो बहुत देर है इसके चलने में. तुम आराम से घूम फिर कर आओ," उन्होंने आश्वस्त किया मुझे.

मैं भागकर चला गया, सामने खड़ी ट्रेन में. लघु शंका से निवृत्त होकर, हाथ मुंह धोकर फटाफट बाहर निकला तो देखा, मेरी दिल्ली वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. मैं ट्रेन के पीछे भागा, मगर विलंब हो चुका था. देखते ही देखते ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़कर आगे बढ़ गई और मैं हांफता हुआ प्लेटफॉर्म के अंतिम छोर पर थम गया.

कुछ लोग मेरी ओर देखकर हंस रहे थे. एक बुद्धिमान ने तो मुझसे पूछ भी लिया, "छूट गई ट्रेन?" मैं मन ही मन पिताजी से कह रहा था, "...कम से कम ट्रेन का टिकट तो मेरे पास रहने देते! अंकल जी मेरे टिकट का क्या करेंगे?"

उन दिनों मोबाइल तो होते नहीं थे, फ़ोन भी बहुत बड़ी बात थी. हमारे घर भी फ़ोन नहीं था, हालांकि दस-बीस साल हो चुके थे बुक किए हुए. पिता जी का भी कोई नंबर नहीं था मेरे पास. जेब में पैसे तो थे, घर पहुंचने के लिए, परन्तु अनुभव नहीं था. एक रेलवे कर्मचारी जैसे दिखने वाले व्यक्ति ने मुझसे पूछा और मैंने संक्षेप में उसे अपनी व्यथा बता दी और पूछा कि दिल्ली के लिए अगली ट्रेन कब जाती है और उसका टिकट कहां से मिलेगा. उस व्यक्ति ने मुझे ढांढस बताते हुए कहा, "अगली ट्रेन तो आने ही वाली है और तुम टिकट की चिन्ता मत करो. मैं तुम्हें ड्राइवर के पास बिठा दूंगा." मैं अनुभवहीन था परन्तु सामान्य बुद्धि से विहीन नहीं था. मैंने शंका व्यक्त की, "ड्राइवर मुझे दिल्ली तक तो ले जाएगा, परन्तु मैं बिना टिकट, स्टेशन से बाहर कैसे निकालूंगा." सज्जन हंस कर बोले, "चिंता मत करो, मैं ड्राइवर को बोल दूंगा. वह तुन्हें गेट से बाहर तक छोड़ने का प्रबंध कर देगा.

मैंने उन्हें सादर धन्यवाद दिया. इससे पहले कि गाड़ी आती, उन्हें दो व्यक्ति दिखाई दिए जो रेलवे के कर्मचारी ही दिख रहे थे और उनके परिचित थे. उन्हें देखकर वह सज्जन मुस्कुरा दिए और उनसे कुछ बात कर मुझसे बोले, "तुम्हारा काम हो गया. ये दोनों भी उसी ट्रेन से जा रहे हैं. तुम इनके साथ चले जाओ." यह कहकर वह सज्जन भीड़ में गुम हो गए.

ट्रेन आई. मैं उन दोनों व्यक्तियों के साथ हो लिया यद्यपि वह मेरे प्रति प्रारंभ से ही उदासीन दिख रहे थे. दो तीन घंटे ही हुए थे कि अलीगढ़ स्टेशन आ गया और वे दोनों ट्रेन के गेट की ओर बढ़े. मैंने उनकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा. वे बोले, "हमें यहीं उतरना है. तुम बैठे रहो, दिल्ली आने में अभी पांच छह घंटे लगेंगे."

मैंने अविश्वास के साथ पूछा, "मगर आप तो दिल्ली जाने वाले थे न?"

"सारी दुनिया दिल्ली थोड़े ही जा रही है! हमें अलीगढ़ उतरना है तो हम दिल्ली क्यों जाएंगे?"

मैंने पल भर में सोचकर उनसे कहा, "प्लीज़ आप मुझे अलीगढ़ स्टेशन के गेट के बाहर तक छोड़ दीजिए; मैं दिल्ली का टिकट लेकर अगली कोई ट्रेन पकड़ लूंगा."

नियति ने मानो पलटी मार ली थी. उत्तर मिला, "नहीं भाई, हम मेन गेट की ओर नहीं जा रहे. हम तो पटरियों के रास्ते से दूसरी तरफ़ जा रहे हैं."

मैंने अगली युक्ति लगाई. बोला, "तो आप मुझे ड्राइवर के पास बिठा दो. वह पहले वाले भाईसाहब तो मुझे ड्राइवर के पास ही बैठाने वाले थे; आपको देखा तो उन्होंने आपसे कह दिया मेरी मदद को.."

"ड्राइवर क्या हमारा चाचा लगता है जो हमारे कहने से तुम्हें दिल्ली ले जाएगा? ऐसे ही चले जाओ बिना टिकट इसी ट्रेन में. कुछ नहीं होगा."

घबराहट से मेरा गला सूख रहा था. आज बिना टिकट यात्रा के अपराध में जेल जाना निश्चित है, ऐसा लग रहा था.

मैं चुपचाप पैर घसीटता हुआ उन दोनों के पीछे चलने लगा. पटरियों वाला यह रास्ता कहीं तो जाता ही होगा. वहीं कहीं से रिक्शा पकड़ कर वापस स्टेशन आ जाऊंगा और टिकट खरीदकर दिल्ली की अगली ट्रेन पकड़ लूंगा, यह सोचकर मैं उनके पीछे चल रहा था. उन दोनों ने पीछे मुड़कर मेरी ओर एक बार भी नहीं देखा. शायद उन्हें लग रहा था मैं उनसे चिपक रहा हूं, उनके लिए एक बड़ा दायित्व बन रहा हूं.

आखिर उनके पीछे पीछे चलते हुए एक बस्ती में पहुंचा. रिक्शा वाले स्टेशन जाने को तैयार नहीं थे. बहुत घूम कर जाना पड़ता था. तभी मेरे दिमाग में एक और विचार आया. क्यों न मैं बस से चलूं दिल्ली! अगली ट्रेन पता नहीं कब मिले, बसें तो चलती रहती होंगी! वैसे भी, बस में सीट तो मिल जाएगी, ट्रेन में बिना रिज़र्वेशन के सीट भी कहां मिलने वाली थी?

बस स्टैंड के लिए रिक्शा आराम से मिल गई, फिर बस भी मिल गई और उसमें सीट भी. उन दिनों रोडवेज़ की बसें बहुत खटारा होती थीं, आधे-अधूरे शीशे और बहुत शोर करने वाले अस्थि-पंजर. ट्रेन के मुकाबले दो घंटे अधिक लगे दिल्ली पहुंचने में. जब दिल्ली बस-अड्डे पर मैं बस से उतरा तो धूल धूसरित था. बिना जेल यात्रा के अपने शहर पहुंच गया था, बस यही सोचकर मन में प्रसन्नता थी. अब चिंता यह थी कि 'अंकलजी' के पास मेरा सामान रह गया था, वह वापस मिलेगा अथवा नहीं.

अगले दिन सुबह मैं अपने बड़े भाईसाहब के साथ भगीरथ पैलेस, दिल्ली में था. पूछते पूछते फ़िल्म 'कोशिश' के डिस्ट्रीब्यूटर के दफ़्तर में पहुंचे. जाते ही दरबान ने बिना लंबी बात किए मेरा सामान हमारे हवाले कर दिया, "साहिब काम से गए हैं, बोल गए थे."

बाद में जब पिताजी घर आए तो उन्हें पूरी घटना बताई तो उन्होंने केवल इतना कहा, "अनुभवों से ही व्यक्ति सीखता है!"

और वह कहते भी क्या? जिन्होंने युवावस्था में देश के विभाजन की त्रासदी स्वयं देखी हो, बॉम्बे से दिल्ली की यात्रा अकेले की हो, रात के अंधेरे में खेतों, जंगलों से होते हुए, लाशों के बीच से गुजरते हुए फ़रीदाबाद से दिल्ली की यात्रा पैदल की हो, उनके लिए उनके पुत्र का यह अनुभव कौन सी बड़ी बात थी!

परन्तु यह बात मुझे कई वर्षों तक समझ नहीं आई कि पिताजी ने मेरी टिकट उन अंकलजी के हवाले क्यों कर दी थी? क्यों उन्हें अपने पुत्र पर इतना कम विश्वास था? क्यों उन्होंने मुझे स्वयं अनुभव लेने के लिए प्रेरित नहीं किया था?

जब मैं स्वयं पिता बना तो समझ आया, ऐसा ही होता है पिता का हृदय!

Friday, July 14, 2023

पांचवां टमाटर

हमेशा की तरह मैं थैला पकड़ श्रीमती जी के पीछे खड़ा था. साथ खड़े होने में बहुत दिक्कत होती है. नहीं, सब्ज़ी खरीदने जाने में मुझे कोई शर्म नहीं. बात सिर्फ़ इतनी है कि सब्ज़ी वाले से बिना मोल-भाव किए, बिना छांटे सब्ज़ी खरीदकर जो मैंने इमेज बनाई है अपनी, उसकी छीछालेदर हो जाती है श्रीमती जी के साथ जाने पर. जितनी सब्ज़ी मैं पांच मिनिट में खरीद लेता हूं, उतनी ही सब्ज़ी खरीदने में श्रीमती जी बीस मिनिट लगाती हैं - भाव तोल में, सब्जियों में नुक्स निकालकर उन्हें छांटने में. तो मैं श्रीमती जी के पीछे निरपेक्ष भाव से खड़ा रहता हूं और आदेश मिलने पर सब्ज़ी डलवाने के लिए थैले का मुंह खोलकर सब्ज़ी वाले भैया के सामने कर देता हूं. बस.


सब्ज़ी वाले भैया से सब्ज़ी खरीदते हुए वैसे तो हमेशा श्रीमती जी का पलड़ा भारी रहता है, परन्तु आज सब्ज़ी वाला भैया चहक रहा था. "मेम साहिब, टमाटर भी तो लीजिए," कहकर बार-बार उन्हें चिढ़ा रहा था, और श्रीमती जी उसे हर बार घूर देती.
टमाटर न खरीद पाने की विवशता के चलते वह जल्दी से बाकी तरकारियां खरीदकर वहां से निकलना चाहती थीं और सब्ज़ी वाला भैया भी उनकी मन:स्थिति समझ कर जानबूझकर देर लगा रहा था. कभी देसी टमाटर तो कभी हाइब्रिड टमाटर का भाव बिना पूछे जानबूझ कर उन्हें बता रहा था. मैं पीछे खड़ा मंद-मंद मुस्कुरा रहा था. मैं जानता था कि इतने महंगे टमाटर तो मेम साहिब खरीदने से रहीं.

हमेशा की तरह मेम साहिब ने मुझे गलत सिद्ध कर दिया. पत्नियों को पता नहीं क्या मज़ा आता है, पतियों को गलत सिद्ध करने में! मैंने देखा, वह टमाटर खरीद रही थीं, वह भी बिना भाव तोल के!

दुकानदार सकते में था और मैं सदमे में. इतने महंगे टमाटर खरीद लिए मैडम ने! इनके मायके से कोई आने वाला है क्या?

वापसी में थैला पीठ पर टांगे, मैं फिर श्रीमती जी के पीछे-पीछे ही चल रहा था. मन ही मन इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास कर रहा था कि आखिर कौन अतिथि आने वाला है, जिसके लिए श्रीमती जी दिल खोलकर पैसा खर्च कर रही थीं टमाटर पर. श्रीमती जी भी विचारामग्न थीं और बिना बात किए चल रही थीं.

घर पहुंचते ही श्रीमती जी बिफर गईं, "एक तो वैसे आग लगी है टमाटर को और उसपर वह नामुराद सब्ज़ी वाला! पीछे ही पड़ गया टमाटर खरीद लो, टमाटर खरीद लो."

"तुम न खरीदती. उसके कहने से क्या होता है?" मैंने धीमे से कहा.

"अब तुम्हें तो कोई परवाह है नहीं इज़्ज़त की, मुझे तो है. न लेती वह मुहल्ले की चार औरतों को बताता, कितनी बदनामी होती!"

पारा काफ़ी चढ़ा हुआ था, मैंने चुपचाप एक कोना पकड़ा और केजरीवाल की झीलों वाली दिल्ली की विडियो में नज़रें डुबो दीं.

मुझे लगा था, यह चैप्टर पूरा हो गया था, टमाटर वाला. इतने में श्रीमती जी ज़ोर से चिल्लाईं, "चोर ने एक टमाटर निकाल लिया!" मैं हड़बड़ी में उठा और प्रश्नवाचक दृष्टि से श्रीमती जी की ओर देखने लगा. पत्नियों को श्रोता पति बहुत पसन्द होते हैं. बोलने वाले नहीं और प्रश्न करने वाले तो कदापि नहीं.

"पांच टमाटर लिए थे मैंने. मुएं ने एक निकाल लिया. अब चार ही निकले हैं थैले में से," वह झल्ला रही थीं.

"तुम्हें गलती लग रही होगी, वह बेचारा क्यों एक टमाटर चुराएगा? और तुम तो नज़र इधर-उधर करती ही नहीं खरीदारी करते समय," चापलूसी के लहज़े में मैंने कहा.

"अरे, तुम नहीं जानते इन लोगों को, बहुत शातिर होते हैं. उंगलियों के खिलाड़ी होते हैं. उसी ने चुराया है मेरा पांचवां टमाटर," कहकर उन्होंने वह कह दिया जिसकी मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी, "जाओ, उससे लेकर आओ एक टमाटर!"

मुझे काटो तो खून नहीं! एक टमाटर के लिए इतनी दूर जाऊं कीचड़ वाली गलियों से होते हुए!

मैंने अपनी आवाज़ को चाशनी में घोलते हुए, एक निरीह प्राणी की तरह कहा, "एक टमाटर के लिए.."

"एक टमाटर? तुम्हें पता है कितने का आता है एक टमाटर? पूरे महीने का बजट खराब करके टमाटर खरीदे और उसे भी वह लूट कर ले गया! इतने दिनों से नींबू डालकर अच्छा खासा खाना बना रही थी और मुझे लूटने के लिए उसने ज़बरदस्ती खरीदवा दिए टमाटर! जाओ लेकर आओ उससे मेरा पांचवां टमाटर," आदेशात्मक स्वर में श्रीमती जी ने कहा.

"क्या कहूंगा मैं उससे जाकर? क्या सबूत है हमारे पास कि उसने चुराया है तुम्हारा टमाटर? और अब क्या होगा तुम्हारी इज्ज़त का, जब वह तुम्हारी पड़ोसनों को बताएगा कि एक टमाटर के लिए तुम्हारा पति उसके पास आया था?" मुझे लगा था कि श्रीमती जी का वार उनपर कारगर सिद्ध होगा, परन्तु ऐसा हुआ नहीं. वह अड़ी हुई थीं. इधर मैं भी 'नहीं जाऊंगा' पर अड़ गया था. टमाटर का लाल रंग हम दोनों के चेहरे पर चढ़ चुका था. घमासान का उद्घोष हो गया था. तलवारें म्यान छोड़ चुकी थीं.

इतने में घर की घंटी बजी. श्रीमती जी के भैया-भाभी थे. अभी थोड़ी ही देर पहले मैं जिनके आगमन की आशंका से परेशान था, मुझे लग रहा था कि उनके लिए टमाटरों पर पैसे लुटाए जा रहे थे, उन्हीं का आगमन मुझे ईश्वर का आशीर्वाद लग रहा था. पता लगाना मुश्किल था कि इस अतिथि युगल के आने की अधिक प्रसन्नता किसे थी, श्रीमती जी को या मुझे.

"इधर से गुज़र रहे थे, सोचा मिलते चलें," श्रीमती जी के भाई कह रहे थे.

और मैं सोच रहा था,"चलो, अब भोजन तो मिलेगा!"

चाय का दौर समाप्त हुआ. श्रीमती जी अपनी भाभीजी के साथ रसोई में चली गईं और मैं उनके भाई के साथ दिल्ली में जल भराव और ट्रैफिक जाम की समस्या पर गहन विचार विमर्श में जुट गया.

भोजन डाइनिंग टेबल पर लग गया था और हम सब क्रॉकरी और कटलरी के साथ टेबल पर सज्जित थे. अब चिंतन का विषय था, महंगे टमाटर. सलाद की प्लेट में कटे टमाटर गर्व से सर ऊंचा करके बैठे थे. उसी गर्व के साथ श्रीमती जी बार- बार दोहरा रही थीं, "अजी, कितने भी महंगे हो जाएं टमाटर, हमारा तो एक टाइम भी गुज़ारा नहीं होता टमाटर के बिना. सब्ज़ी में तो पड़ता ही है टमाटर, 'इन्हें' तो सुबह शाम सलाद भी चाहिए टमाटर का. आप भी लीजिए न टमाटर का सलाद.."

खाने में कम और बातों में अधिक टमाटर के साथ भोजन सम्पन्न हुआ.

टेबल से प्लेटें हटाने में श्रीमती जी की सहायता करते हुए उनकी भाभी जी अचानक उछलते हुए बोलीं, "यह क्या है?"

उनके पैर के नीचे आकर कुछ दब गया था. सबने उनके पैरों की ओर देखा, वह पांचवां टमाटर उनके पैरों तले आकर दम तोड़ चुका था!