Wednesday, February 28, 2018

मानवाधिकार


किशोरावस्था थी उस समय मेरी. घर के बगल वाले खाली प्लाट पर खेल रहे थे हम. शाम होने वाली थी. अचानक गली में से एक साइकिल रिक्शा बहुत तेज़ गति से निकली. तेज़ शोर के साथ उसके पीछे तीन-चार रिक्शा और निकलीं, उतनी ही तेज़ गति से. हम सकपका कर गली में आये. रिक्शाएं जा चुकी थीं. गली में कई लोग ऐसे ही मुँह बाए खड़े थे. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

इतने में किसी बच्चे की माँ वहां आयी और अपने बच्चे को पकड़ कर ले चली. अन्य बच्चों को भी हिदायत दी कि सब बच्चे अपने-अपने घर चले जाएँ, तुरन्त. पुलिस कुछ गुंडों का पीछा कर रही थी. बाहर रहना खतरे से खाली नहीं था.

हम भागकर अपनी छत पर चढ़ गये. इतने में वही साइकिल रिक्शा फिर दिखाई दी. पहली रिक्शा में दो कसे बदन के दो युवा बैठे हुए हंस रहे थे और पीछे एक के बाद एक चार रिक्शाओं में दो-दो पुलिस के जवान लाठियां लिए बैठे थे.

इन रिक्शाओं ने गली के तीन-चार चक्कर लगाए, थोड़ी-थोड़ी देर के बाद. लगता था पूरे मोहल्ले के चक्कर लगा रही थीं ये रिक्शाएं. अत्यंत उत्तेजक एवं लोमहर्षक दृश्य था. देखते ही देखते सांझ का झुटपुटा हो गया. हम इन्तज़ार कर रहे थे, रिक्शाओं के एक और चक्कर का, परन्तु खेल अब समाप्त हो गया था.

इसके आगे की कहानी किसी साथी ने अगली सुबह बतायी. पुलिस को पूरे मोहल्ले के कई चक्कर लगवाने के बाद सांझ होने पर गुंडे भागकर खेतों में घुस गये. पीछे-पीछे पुलिस भी चली गयी, अति-उत्साह में. वहां गुंडों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं. लाठीधारी पुलिस वाले जान बचाकर भागे घने खेतों की ओर, और वहां दुबक कर छुप गये. गुंडे अट्टहास करते हुए वहां से चले गये और पुलिस वाले जान बचाकर वहीं दुबके रहे खड़ी फसल में. देर रात थाने से पुलिस का एक और दस्ता आया टॉर्चों के साथ, और ढूंढ-ढूंढ कर अपने साथियों को निकाल कर साथ ले गया.

बहुत थू-थू हुई पुलिस की हर तरफ़. चले थे गुंडों को पकड़ने! कायरों की तरह अंधेरी झाड़ियों में दुबके रहे डरकर! और भी बहुत कुछ. जैसे, पुलिस वाले तो गुंडों से मिले हुए होते हैं। यह पीछा-वीछा तो सब दिखावटी है! डंडे लेकर चले थे पिस्तौल-धारी गुंडों को पकड़ने? क्या इन्हें मालूम नहीं था कि गुंडों के पास कौन से हथियार थे? पुलिस वाले होते ही डरपोक हैं. घूस खा-खाकर मानसिक रूप से और हरामखोरी करके शारीरिक रूप से कमजोर हो जाते हैं. इन पुलिस वालों का बस तो सिर्फ़ शरीफ़ लोगों पर चलता है, गुंडे-मवालियों से तो डरते हैं ये! जितने मुँह, उतनी बातें.

इस घटना के कुछ दिनों बाद हम मकान बदल कर दूसरे मोहल्ले में चले गये. बालक-मन भूल गया उस वारदात को.

कई वर्षों बाद उसी इलाके में जाना हुआ. बचपन के दोस्तों की एक मंडली में हम घूम रहे थे यूं ही. एक दोस्त ने पूछा, “चाय पी जाए?” सबने हामी भरी. चलो थाने चलते हैं चाय पीने.मुझे कुछ अजीब लगा, थाने में चाय? मित्र ने बताया, “यार, रज्जो की चाय बहुत बढ़िया होती है, यहीं थाने के गेट पर दूकान है उसकी.

नाम सुना-सुना सा लग रहा था. दुकानदार को देखकर बहुत तरस आ रहा था. पूरा शरीर मानो मुड़ा-तुड़ा हो. लगता था जैसे चाय अब छूटी उसके हाथ से. परन्तु धीरे-धीरे ही सही, वह चायवाला रज्जो अदरक, इलायची कूट कर बड़े सलीके से चाय बना रहा था. चाय वाकई बहुत स्वादिष्ट थी.

रज्जो को देखकर श्रद्धा-सी उमड़ रही थी. उसकी स्वावलंबन की भावना अतुल्य थी. ऐसे शरीर के साथ भी कोई काम कर सकता है, हृदय रुदन कर रहा था.

वहां से चलने पर बातचीत का विषय था रज्जो. भगवान् भी कैसे-कैसे अत्याचार करता है बेबस लोगों पर,” मैं अनायास कह गया.

मालूम है कौन है रज्जो?” बचपन में मेरे साथ उस खाली प्लाट में खेलने वाले उस मित्र ने पूछा. मुझे कैसे मालूम होता! याद है, बचपन में एक दिन एक गुंडे ने पुलिस को खूब चक्कर खिलाये थे मोहल्ले के, और खेतों में ले जाकर गोलियां चलाकर भगा दिया था पुलिस वालों को? फिर आधी रात को पुलिस वालों ने ढूंढा था अपने साथियों को?” एक चलचित्र की भांति पूरा घटनाक्रम मेरी आँखों के सामने से गुज़र गया.

यह रज्जो ही था वह गुंडा.

फिर यह सब कैसे?” मैंने पूछा.

उस वारदात के बाद कई मुठभेड़ें हुईं पुलिस और रज्जो के गिरोह के बीच में. हर बार रज्जो हावी रहा पुलिस पर और पुलिस गिरफ़्तार नहीं कर पायी रज्जो को. बाद में तो रज्जो का गिरोह बहुत बड़ा और ताकतवर हो गया था. कई बार पुलिस वाले पिटे भी गुंडों से.

आखिरकार पुलिस का भी दिन आया. पुलिस और रज्जो गिरोह के बीच बहुत लम्बी चली वह मुठभेड़. इस बार पुलिस फ़ोर्स अधिक थी. खूब तोड़ा पुलिस ने पूरे गिरोह को. उसी मुठभेड़ में रज्जो के शरीर की हड्डियों के कई टुकड़े हो गये. किसी लायक नहीं रहा रज्जो. हाथ-पैर सब बेकार हो गये.

मानवाधिकार आयोग से पुलिस को नोटिस वगैरह भी आये थे; जांच भी हुई थी; परन्तु रज्जो ने पुलिस के पक्ष में बयान दिया था, अपने अपराध और पुलिस पर आक्रमण की बात स्वीकार कर."

"मानवाधिकार वाले रज्जो की ज़िंदगी तो नहीं सुधार सकते थे न.

जिन पुलिस वालों ने उसका यह हाल किया था, उन्होंने ही इसे यहाँ थाने के गेट पर जगह दे दी, चाय की छोटी सी दूकान लगाने के लिए - तरस खाकर. तब से रज्जो शराफ़त और मेहनत से काम करता है, पुलिस वालों और बाहर से आने वालों को चाय पिलाता है और अच्छी चाय के लिए मशहूर है. आने वाले अपराधियों को अपना टूटा हुआ शरीर दिखा कर सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है.

मैं पीछे मुड़कर देख रहा था. रज्जो की दुकान तो ओझल हो गयी थी नज़रों से, किन्तु साइकिल-रिक्शा पर बैठा घमंड से हंसता हुआ वह रज्जो दिख रहा था मुझे.

नज़दीक से
- विक्रम शर्मा


Saturday, February 24, 2018

जेबकतरे

मुम्बई में मेरी पोस्टिंग तो बहुत कम समय के लिए हुई थी परन्तु वह शहर कम समय में ही बहुत कुछ सिखा जाता है.

वर्षों पुरानी बात है. तीन महीने के लिए ट्रेनिंग के लिए मुम्बई में मेरी पोस्टिंग हुई थी एक बैंक की मुम्बई फ़ोर्ट की एक शाखा में. फ़ोर्ट-क्षेत्र में ही मेरे बैच के कुछ अन्य साथी भी कार्यरत थे, विभिन्न शाखाओं में. लगभग रोज़ शाम को हम चौपाटी पर इकट्ठे होते और मरीन ड्राइव अथवा आसपास कुछ समय बिता कर अपने-अपने स्थानीय निवास की ओर रवाना हो जाते.

मैं कांदीवली में ठहरा हुआ था. मेरे साथी मेरे साथ ही चर्चगेट से लोकल पकड़ा करते और रास्ते में अपने-अपने गंतव्य पर उतरते जाते. कांदीवली स्टेशन सबसे बाद में आता, जहां मैं उतरा करता था.

उस शाम मेरे सभी साथी बान्द्रा स्टेशन पर ही उतर गये थे – देर रात का कोई कार्यक्रम बनाकर. मैंने वहां उतरने के स्थान पर सीधे घर जाना ठीक समझा था.

बान्द्रा स्टेशन पर उनके उतरने के बाद जैसे ही ट्रेन चली, कम्पार्टमेंट के दरवाज़े से कुछ आवाजें आने लगीं. कोई झगड़ा हो रहा था शायद. मैं भीतर बैठा था कम्पार्टमेंट के बीचोबीच. देर शाम को दफ़्तर से चलो तो दादर, बान्द्रा आते-आते सीट मिल जाया करती थी उन दिनों. ट्रेन आगे बढ़ती रही, कम्पार्टमेंट खाली होता रहा और आवाजें बढ़ती गयीं. “कोई जेबकतरा पकड़ा गया है. लोग धुनाई कर रहे हैं,’ यात्रियों में से किसी ने खबर दी.

मुम्बई लोकल के दैनिक-यात्री किसी से मन से नफ़रत करते हैं तो वह हैं मुम्बई के जेबकतरे.

एक बार बैंक की शाखा में दोपहर के भोजन के समय बातचीत ने मुम्बई के जेबकतरों की समस्या का रुख कर लिया.

एक सज्जन बता रहे थे कि किस प्रकार विरार से चर्चगेट के बीच चलने वाली डबल फ़ास्ट ट्रेन में एक बार एक जेबकतरा पकड़ा गया. लोगों ने उसे घंटा भर जी भरकर पीटा. इतना पीटा कि उसके कपड़े फट गये. और अंत में उसे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया.

“च्च्च...” मेरे मुँह से अनायास निकला. “इतने निर्दयी लोग,” मैं सोच रहा था.

मेरी यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया मुम्बई के निवासी कर्मचारियों को रास नहीं आयी, यह उनके चेहरों से स्पष्ट था. मेरे लिए हैरानी की बात यह थी कि मेरी इस प्रतिकृया पर सबसे अधिक आपत्ति की एक महिला कर्मचारी ने. वह भी आवेशपूर्वक, “क्या च्च्च... और कैसा बरताव होना चाहिए इन जानवरों के साथ? एक भला आदमी पूरे महीने काम करता है, अपने बीवी-बच्चों के लिए, परिवार के लिए, उनकी छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए! और यह जेबकतरा आकर उसकी पूरे महीने की महीने की कमाई पल भर में उड़ाकर ले जाता है! यह ठीक है? उस कमाई के घर न आने से उसके निर्दोष और बीमार माता-पिता का इलाज नहीं हो पाता और वे मर जाते हैं, वह ठीक है?”

मुझे काटो तो खून नहीं. इतने आवेश में उन महिला को देखकर मैं सकपका गया था. उत्तर ढूँढने और देने का प्रश्न ही नहीं था.

मैं समझ गया कि आज भी ऐसा ही कुछ होने वाला था, मेरे ही कम्पार्टमेंट में. “पता नहीं, ये कुंठित भीड़ इस जेबकतरे को ज़िंदा छोड़ेगी या फिर चलती ट्रेन से फेंक देगी...,” मैं सोच रहा था.

अपने कार्यालय के उस महिला के उत्तेजित रुख को झेलने के बाद मैं इस भीड़ की मानसिकता और जेबकतरों नामक राक्षसी वृत्ति के लोगों के बारे में सोचता रहता, लोगों से बात करता रहता.

लोग प्रायः जेबकतरों को दण्डित करने के पक्षधर ही मिले. पुलिस को सौंपने से क्या होगा? सब मिले हुए होते हैं, ऐसा ही विचार था अधिकांश लोगों का.

एक बार मुझे जेबकतरों द्वारा की जा रही तबाही का निजी अनुभव भी हो ही गया. दोपहर के वक्त मैं सफ़र कर रहा था लोकल ट्रेन में. भीड़ सामान्य से काफी कम थी. जब मैं ट्रेन से उतरा तो पता चला कि मेरी तीन जेबों पर एक-साथ आक्रमण हुआ था. नुकसान तो अधिक नहीं हुआ, किन्तु मेरी परेशानी यह थी कि मेरी तीन जेबों पर एक साथ आक्रमण हुआ और मुझे पता भी नहीं चला. अर्थात जेबकतरा एक नहीं था, कम से कम तीन तो थे.

एक दूसरा पहलू भी मिला मुझे, लोगों के साथ इस बारे में बात करते-करते. कुछ लोगों ने बताया कि जेबकतरे दो-तीन नहीं, भीड़ के रूप में चलते हैं. जिसका मौक़ा लग जाए, वह जेब काट लेता है, पकड़े जाने पर उसके अन्य साथी आम-जनता का जामा पहनकर ‘चोर-चोर’ चिल्लाने लगते हैं और अपने शिकार को ही पीटने लगते हैं. अन्य यात्री उस शिकार को ही जेबकतरा समझकर उसपर अपनी कुंठा से मुक्त होने का उपक्रम करने लगते हैं. इस कोलाहल में जेबकतरे वहां से फ़रार हो जाते हैं और वह आम आदमी अन्य आम आदमियों से पिटता रहता है.

भीड़ की आवाजें मेरी ओर बढ़ रही थीं, चीत्कार के साथ. देखते ही देखते भीड़ वहीं आ पहुँची जहां मैं बैठा था. एक सरदार जी, बिना पगड़ी के, बिखरे-बेतरतीब लम्बे बाल, सफ़ेद कुर्ता-पायजामा, जगह-जगह से फटा हुआ और और मुसड़ा हुआ. चेहरे पर खरोंचों के निशान. क्रोध से भरी भाव-भंगिमा. एक हाथ में एक लंबा सा पेचकस और उनकी खुली हुई पगड़ी. दूसरे हाथ से एक आदमी के गिरेबान को पकड़े हुए और उसे घसीटते हुए.

मेरी बगलवाली सीट खाली थी. उन्होंने वह पगड़ी मेरी गोद में रखी और धम्म से उस खाली सीट पर बैठ गये. वह व्यक्ति भी घिसटता हुआ सामने ज़मीन पर आ पड़ा. सरदार जी ने पेचकस को सीधे हाथ में ज़ोर से पकड़ा और लगे उसे उस व्यक्ति के पेट में घुसाने. पूरी भीड़ ने ज़ोर से चीत्कार किया, “छोड़ दो सरदारजी, जाने दो,” की गुहार लगाने लगी.

ऐसा बार-बार होता. सरदार जी पेचकस को हथियार बनाकर उस व्यक्ति के पेट में घुसाने लगते और भीड़ चीत्कार कर उठती.

वह व्यक्ति जो सरदार जी की गिरफ़्त में था, रो-रोकर कहता, “आप मेरा आई.डी. कार्ड देख लें, मैं एक नौकरीपेशा शरीफ़ आदमी हूँ. मैंने कुछ नहीं किया.”

मैंने पंजाबी भाषा में बात की सरदार जी से. उन्होंने मुझे पूरे घटनाक्रम से अवगत कराया. बताया कि वह भारी नकदी लेकर कहीं जा रहे थे, कुरते की जेब में रखकर. एक जेबकतरे ने उनकी जेब में हाथ डाला तो उन्होंने पकड़ लिया. इतने में जेबकतरे के साथियों ने वही फ़ॉर्मूला लगाया और लगे पीटने सरदारजी को. थोड़ी देर बाद वे जेबकतरे तो कंपार्ट्मेंट की भीड़ में गुम हो गये और सरदारजी पिटते रहे आम आदमियों से.

“मैंने एक हाथ से अपने कुरते की जेब को पकड़ रखा था. वरना क्या मजाल इन गीदड़ों की, मुझपर हाथ उठा पाता कोई”, सरदार जी कह रहे थे, “हो सकता है यह गरीब जिसे मैंने पकड़ रखा है, बेक़सूर हो. मगर किसी ने तो मारा है मुझे. मेरी यह गत अपने आप तो बन नहीं गयी. इस भीड़ में अगर कोई मर्द हो, जो यह माने कि उसने मुझपर हाथ उठाया था, तो कसम वाहेगुरू की, मैं इस आदमी को छोड़ दूंगा और यह पेचकस उस मर्द के पेट में घुसा दूंगा. यह पेचकस मैं घर से ही लेकर निकला था ऐसे किसी वाकये के लिए. जल्दी थी, इसलिए मैं लोकल ट्रेन में आया वरना मैं टैक्सी से आता॰"

पेचकस और चीख़ों का यह खेल सान्ताक्रूज़ स्टेशन तक जारी रहा. तब तक सरदारजी ने पगड़ी बाँध ली थी, चेहरा साफ़ कर लिया था. सान्ताक्रूज़ स्टेशन पर उन्हें उतरना था.

उतरते वक्त उन्होंने उस व्यक्ति को अपनी गिरफ़्त से मुक्त किया और भीड़ को हिदायत दी, “आज के बाद कभी किसी को यूं ही जेबकतरा न समझ लेना. खुद देखो किसी को जेब काटते हुए, तभी यकीन करना.”

नज़दीक से
-       - विक्रम शर्मा



Tuesday, February 20, 2018

भजिया-पकौड़े वाला

गरम नींबू-पानी के कटोरे में हाथ धोकर गीले सुगंधित तौलिये से हाथ मुंह पोंछते हुए देवेश ने कहा, “भोजन सचमुच बहुत स्वादिष्ट था।“ सुनकर मुझे ऐसे प्रसन्नता हुई जैसे यह भोजन मैंने स्वयं बनाया हो।

मैं मुंबई में एक बैंक में कार्यरत था और मेरा छोटा भाई देवेश मुझसे मिलने मेरे पास आया हुआ था। कहने को कैरियर की दृष्टि से मैं एक सफल व्यक्ति था। लाखों-करोड़ों युवाओं का स्वप्न था बैंक में पी॰ओ॰ की नौकरी पाना। मेरा भी यह स्वप्न था और मैं इस स्वप्न को साकार कर चुका था। मेरे परिवार को गर्व था मेरी इस उपलब्धि पर। मेरा छोटा भाई भी मुझसे बहुत प्रभावित था और मेरी ही तरह एक पी॰ओ॰ बनाना चाहता था। मैं खुश था कि मेरा भाई मेरे पास रहने आया था। मैं चाहता था कि वह नज़दीक से देखे मेरा जीवन और उसके बाद अपने भविष्य के बारे में निर्णय ले।

मेरी नियुक्ति मुंबई फोर्ट क्षेत्र की एक शाखा में हुई थी। शुरू के दिनों में होटल में रुका जो बहुत महंगा था। फिर एक लॉज में ठहरा। कुछ दिनों बाद लॉज भी जेब को कचोटने लगी। एक चॉल में भी रुका, परंतु वहाँ एक दिन से अधिक ठहरा नहीं गया। चर्च गेट से विरार तक और वी॰टी॰ से लेकर ठाणे तक सभी क्षेत्रों में विकल्प तलाश मारे परंतु कहीं बात नहीं बनी।

एक सहकर्मी थे मेरे, मुझसे वरिष्ठ थे। हर रोज़ मुझसे आशियाना ढूँढने की कथा सुना करते। कांदीवली में रहते थे, अपने भाई के साथ। जैसे मेरे पास अनेक किस्से थे छत ढूँढने के, उसी प्रकार उनके पास अपने भाई की बेरोजगारी के अनेक किस्से थे। पता नहीं, उन्हें मेरी दुर्दशा पर तरस आया या फिर अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का अवसर दिखा, एक दिन उन्होंने मुझे प्रस्ताव दिया उनके फ्लैट में उनके साथ रहने का। उसी रोज़ मैं उनके साथ उनके घर गया। दो छोटे कमरों का एक फ्लैट था। दो कमरों के बीच में जगह बनाकर एक छोटी रसोई और एक स्नानघर की व्यवस्था की गयी थी। दोनों भाई एक-एक कमरे में रहते थे।

“भीतर के कमरे में डबल बेड है। हम दोनों भाई वहीं सो सकते हैं। जब कभी घर से कोई आता है, तब हम ऐसा ही करते हैं। अब तो कोई आता भी नहीं यहाँ रहने। बाहर के कमरे में दीवान है, उसमें तुम रह सकते हो,” उन्होंने योजना समझाई, “रसोई में हम सिर्फ चाय बनाते हैं, दूध गरम करते हैं। खाना हम बाहर ही खाते हैं। दफ्तर में डिब्बा आता है और शाम को हम यहाँ एक आंटी के घर में खाकर आते हैं। तुम भी ऐसा ही कुछ कर सकते हो। अब तक भी तो यही कर रहे हो। तुमसे जो किराया मिलेगा उससे भाई का जेब खर्च निकल जाएगा।“ योजना उत्तम थी, यही तो मैं चाहता था।

तब से मैं वहीं कांदीवली में ही रह रहा था। बहुत सुविधाजनक नहीं था, परंतु उससे बेहतर कोई उपाय था भी नहीं। एक रोज़ मेरे वरिष्ठ सहयोगी के पिताजी आए, तो वे दो दिन उनके छोटे भाई ने मेरे कमरे में दीवान के साथ ज़मीन पर बिछौना लगाकर बिताए। एक छोटी मेज़ थी जिसे ज़मीन पर बिछौना बिछाने की जगह बनाने के लिए दीवार के साथ चिपका दिया जाता और दो फोल्डिंग कुरसियों को भीतर वाले कमरे में ले जाया जाता। बस उतनी ही जगह थी उस कमरे में।

मेरा छोटा भाई मुंबई आया तो भी हमने वही किया। ज़मीन पर बिछौना बिछाया जिसपर मेरा छोटा भाई देवेश ज़िद करके सोता और मुझे दीवान पर ही सोने को मजबूर करता। सुबह नाश्ते में हम हमेशा की भांति चाय के साथ ब्रैड-मक्खन या ब्रैड-जैम खाते। एक ही शौचालय/ स्नानघर के लिए सुबह के समय हम चार लोगों की कतार लगी रहती। कार्यालय में उन दिनों स्टाफ़ कम होने के कारण छुट्टी नहीं मिल रही थी। बहुत मुश्किल से दो दिन की छुट्टी का ही जुगाड़ कर पाया। बाकी दिन छोटे भाई को उसके दिन का कार्यक्रम बनाकर दे देता और वह अकेले ही मुंबई घूमता।

सुबह हम कांदीवली स्टेशन तक ऑटो में जाते। वहाँ से उलटी दिशा में बोरीवली के लिए ट्रेन पकड़ते। फिर बोरीवली से फ़ास्ट या डबल फ़ास्ट ट्रेन लेकर चर्चगेट जाते। कभी-कभी भाई को मैं रास्ते में बांद्रा या दादर उतार देता, आसपास की कोई जगह देखने के लिए। कान्दीवली से उलटे बोरीवली जाने के दो लाभ होते। एक तो बोरीवली से फ़ास्ट या डबल फ़ास्ट ट्रेन मिल जाती, जो कान्दीवली में रुकती ही नहीं थीं। दूसरे, जिस ट्रेन में बोरीवली जाओ, उसी में बैठे रहो। मुंबई लोकल में सीट पाने वाला राजा होता है, बाकी सब धक्के खाने वाली प्रजा। बोरीवली से चढ़ने वालों को भी अक्सर सीट नहीं मिलती थी।

शाम को देवेश मेरे कार्यालय में आ जाता और हम मिलकर मरीन ड्राइव घूमते, कोलाबा या फिर क्रॉफोर्ड मार्केट या फ़ैशन स्ट्रीट में यूं ही जूते घिसाते घूमते और सस्ती वस्तुएँ ढूंढते। वापसी में कोलाबा या दादर या बांद्रा या कान्दीवली के किसी रैस्टौरेंट में भोजन करते और वापस अपने-अपने बिस्तरों पर आकर सो जाते।

आज मैं अपने भाई को एक विशेष रैस्टौरेंट में लेकर आया था। “यह मेरे एक सीनियर का रैस्टौरेंट है,” मैंने उसे बताया था।

“क्या वह भी बैंक में काम करते हैं,” देवेश का यह एक स्वाभाविक प्रश्न था।

“अरे, बैंक में काम करते तो किसी लॉकर में चाभी घुमा रहे होते या किसी कस्टमर से सिर खपा रहे होते,” मैंने उत्तर दिया।

“तो क्या छोड़ दी उन्होंने नौकरी?”

“उनकी नौकरी लगी ही नहीं,” मेरा उत्तर था।

देवेश की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा, “फिर वह आपके सीनियर कैसे?”

फिर मैंने उसे पूरी बात बताई। मेरे उन सीनियर का नाम मनोज था। किताबों की एक दूकान पर मुलाक़ात हुई थी। बातचीत एक किताब को लेकर शुरू हुई थी। मैं पी॰ओ॰ प्रवेश परीक्षा के लिए उस किताब को खरीदने वाला था कि उन्होंने मुझे उससे बेहतर तीन चार किताबें सुझा दीं। मैंने एक दो प्रश्न किए तो उनकी जानकारी को देखकर अचंभित रह गया। उन्होंने वे सारी किताबें पढ़ी हुई थीं। उनका ज्ञान विस्मयकारी था। पता चला कि वह तीन साल से ऐसी विभिन्न परीक्षाएँ दे रहे थे। लगभग सभी परीक्षाओं में इंटरव्यू राउंड तक पहुँच भी जाते थे परंतु उनका सेवा में चयन नहीं हो पाता था।

मैं पहली बार ऐसी कोई परीक्षा दे रहा था और वह तीन साल में ऐसी अनेक परीक्षाएँ दे चुके थे, इस नाते वे मेरे सीनियर थे। उसके बाद से मैं उनके संपर्क में रहने लगा, फ़ोन के माध्यम से भी और व्यक्तिगत मुलाकातों से भी। वह मेरे मार्गदर्शक बन गए थे। वही बताते कि क्या पढ़ना है, किस स्रोत से पढ़ना है और किस विषय में अधिक समय नहीं गंवाना है। लगता था वह न केवल विषयवस्तु के ज्ञाता थे वरन परीक्षा-कला में भी पारंगत थे। फिर उनका चयन क्यों नहीं होता था? बहुत संकोच के साथ यह प्रश्न मैं उनसे भी करता और उत्तर में वह मुस्कुरा भर देते। उनकी मुस्कान के पीछे का दर्द मैं समझ सकता था। उनके मार्गदर्शन से लाभान्वित होकर अनेक लोग आज विभिन्न बैंकों की सेवाओं में थे। परंतु वह आज भी कतार में खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे अपने चयन की।

एक बार उन्होंने बातों-बातों में मुझसे कह ही दिया कि यह उनका अंतिम प्रयास है, बैंक सेवा की परीक्षा का। उनकी बात सुनकर मुझे बहुत निराशा हुई। मैं उनके लिए प्रार्थना करने लगा। साथ ही मुझे यह भी लगने लगा कि जब इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति का चयन नहीं हो रहा है तो मेरे चयन की तो संभावना ही नहीं थी। मैंने पूरे मनोयोग के साथ तैयारी शुरू कर दी। मनोज, यद्यपि अपनी लगातार असफलता से हतोत्साहित थे, मेरी सहायता करने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

परीक्षा हुई, इंटरव्यू राउंड हुआ, सेवा के लिए मेरा चयन हो गया परंतु मनोज का चयन इस बार भी नहीं हुआ। मनोज ने मुसकुराते हुए मुझे गले लगाकर बधाई दी परंतु उनकी मुस्कान के पीछे मैं उनका दर्द अनुभव कर रहा था। “तुम मेरी चिंता मत करना। ईश्वर ने मेरे लिए कुछ और योजना बना रखी होगी,” एक दार्शनिक की भांति मनोज बोले।  

एक वर्ष की ट्रेनिंग के बाद मेरे नियुक्ति मुंबई फोर्ट की एक शाखा में हुई। मैंने मुंबई शहर के बारे में सुन रखा था कि उस शहर में बाहर के व्यक्ति का निर्वहन बहुत कठिन है और कोई वहाँ नियुक्ति नहीं चाहता। परंतु यह भी सुन रखा था कि एक बार यदि कोई मुंबई में रह जाए कुछ साल, तो उस शहर को छोड़ना नहीं चाहता।

ट्रेनिंग के इस पूरे वर्ष में मैं मनोज के संपर्क में था। पहले तो प्रायः हर रोज़ ही उनसे बात हो जाती थी। फिर वह व्यस्त हो गए और हमारी बात कम होने लगी। मज़े की बात यह थी कि वह मुंबई में ही थे। प्रतियोगिता परीक्षाओं की तरह ही उनका हमारे शहर से भी मन उकता गया था और वह अपने एक मित्र के पास मुंबई आ गए थे। यहाँ आकर उन्हें पता चला कि स्वयं उनके मित्र एक घटिया सी चॉल में कितनी कठिनाई से रहते थे। मेरे मित्र का संकल्प और अधिक दृढ़ हो गया और वह उसी चॉल में अपने खर्चे पर रहकर चौपाटी में भेलपुरी बेचने लगे। आसान यह भी नहीं था किन्तु पढ़े-लिखे होने के कारण वह इसे संभव बना पाए। परंतु यह उनकी मंज़िल नहीं थी। शीघ्र ही उन्होंने वरली क्षेत्र में किराए की एक दूकान में पकौड़े-भजिया, बड़ा-पाव बेचना शुरू कर दिया। अपने तेज़ दिमाग और किसी काम को छोटा न समझने की सोच के सहारे उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

“आज मनोज के चार रेस्टॉरेन्ट हैं मुम्बई शहर में और उनमें से एक में हमने अभी-अभी भोजन किया है,” कहकर मैंने अपनी बात समाप्त की और एक लंबी सांस ली।

"काश, आपका भी सेलेक्शन पी.ओ. के इम्तिहान में न हुआ होता...” देवेश बुदबुदा रहा था।


 

 

नज़दीक से

- विक्रम शर्मा