"मानवाधिकार वाले रज्जो की ज़िंदगी तो नहीं सुधार सकते थे न.”
Wednesday, February 28, 2018
मानवाधिकार
"मानवाधिकार वाले रज्जो की ज़िंदगी तो नहीं सुधार सकते थे न.”
Saturday, February 24, 2018
जेबकतरे
Tuesday, February 20, 2018
भजिया-पकौड़े वाला
गरम नींबू-पानी के कटोरे में हाथ धोकर गीले सुगंधित तौलिये से हाथ मुंह पोंछते हुए देवेश ने कहा, “भोजन सचमुच बहुत स्वादिष्ट था।“ सुनकर मुझे ऐसे प्रसन्नता हुई जैसे यह भोजन मैंने स्वयं बनाया हो।
मैं मुंबई में एक बैंक में कार्यरत था और मेरा छोटा भाई देवेश मुझसे मिलने मेरे पास आया हुआ था। कहने को कैरियर की दृष्टि से मैं एक सफल व्यक्ति था। लाखों-करोड़ों युवाओं का स्वप्न था बैंक में पी॰ओ॰ की नौकरी पाना। मेरा भी यह स्वप्न था और मैं इस स्वप्न को साकार कर चुका था। मेरे परिवार को गर्व था मेरी इस उपलब्धि पर। मेरा छोटा भाई भी मुझसे बहुत प्रभावित था और मेरी ही तरह एक पी॰ओ॰ बनाना चाहता था। मैं खुश था कि मेरा भाई मेरे पास रहने आया था। मैं चाहता था कि वह नज़दीक से देखे मेरा जीवन और उसके बाद अपने भविष्य के बारे में निर्णय ले।
मेरी नियुक्ति मुंबई फोर्ट क्षेत्र की एक शाखा में हुई थी। शुरू के दिनों में होटल में रुका जो बहुत महंगा था। फिर एक लॉज में ठहरा। कुछ दिनों बाद लॉज भी जेब को कचोटने लगी। एक चॉल में भी रुका, परंतु वहाँ एक दिन से अधिक ठहरा नहीं गया। चर्च गेट से विरार तक और वी॰टी॰ से लेकर ठाणे तक सभी क्षेत्रों में विकल्प तलाश मारे परंतु कहीं बात नहीं बनी।
तब से मैं वहीं कांदीवली में ही रह रहा था। बहुत सुविधाजनक नहीं था, परंतु उससे बेहतर कोई उपाय था भी नहीं। एक रोज़ मेरे वरिष्ठ सहयोगी के पिताजी आए, तो वे दो दिन उनके छोटे भाई ने मेरे कमरे में दीवान के साथ ज़मीन पर बिछौना लगाकर बिताए। एक छोटी मेज़ थी जिसे ज़मीन पर बिछौना बिछाने की जगह बनाने के लिए दीवार के साथ चिपका दिया जाता और दो फोल्डिंग कुरसियों को भीतर वाले कमरे में ले जाया जाता। बस उतनी ही जगह थी उस कमरे में।
सुबह हम कांदीवली स्टेशन तक ऑटो में जाते। वहाँ से उलटी दिशा में बोरीवली के लिए ट्रेन पकड़ते। फिर बोरीवली से फ़ास्ट या डबल फ़ास्ट ट्रेन लेकर चर्चगेट जाते। कभी-कभी भाई को मैं रास्ते में बांद्रा या दादर उतार देता, आसपास की कोई जगह देखने के लिए। कान्दीवली से उलटे बोरीवली जाने के दो लाभ होते। एक तो बोरीवली से फ़ास्ट या डबल फ़ास्ट ट्रेन मिल जाती, जो कान्दीवली में रुकती ही नहीं थीं। दूसरे, जिस ट्रेन में बोरीवली जाओ, उसी में बैठे रहो। मुंबई लोकल में सीट पाने वाला राजा होता है, बाकी सब धक्के खाने वाली प्रजा। बोरीवली से चढ़ने वालों को भी अक्सर सीट नहीं मिलती थी।
आज मैं अपने भाई को एक विशेष रैस्टौरेंट में लेकर आया था। “यह मेरे एक सीनियर का रैस्टौरेंट है,” मैंने उसे बताया था।
“क्या वह भी बैंक में काम करते हैं,” देवेश का यह एक स्वाभाविक प्रश्न था।
“अरे, बैंक में काम करते तो किसी लॉकर में चाभी घुमा रहे होते या किसी कस्टमर से सिर खपा रहे होते,” मैंने उत्तर दिया।
“तो क्या छोड़ दी उन्होंने नौकरी?”
“उनकी नौकरी लगी ही नहीं,” मेरा उत्तर था।
देवेश की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा, “फिर वह आपके सीनियर कैसे?”
मैं पहली बार ऐसी कोई परीक्षा दे रहा था और वह तीन साल में ऐसी अनेक परीक्षाएँ दे चुके थे, इस नाते वे मेरे सीनियर थे। उसके बाद से मैं उनके संपर्क में रहने लगा, फ़ोन के माध्यम से भी और व्यक्तिगत मुलाकातों से भी। वह मेरे मार्गदर्शक बन गए थे। वही बताते कि क्या पढ़ना है, किस स्रोत से पढ़ना है और किस विषय में अधिक समय नहीं गंवाना है। लगता था वह न केवल विषयवस्तु के ज्ञाता थे वरन परीक्षा-कला में भी पारंगत थे। फिर उनका चयन क्यों नहीं होता था? बहुत संकोच के साथ यह प्रश्न मैं उनसे भी करता और उत्तर में वह मुस्कुरा भर देते। उनकी मुस्कान के पीछे का दर्द मैं समझ सकता था। उनके मार्गदर्शन से लाभान्वित होकर अनेक लोग आज विभिन्न बैंकों की सेवाओं में थे। परंतु वह आज भी कतार में खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे अपने चयन की।
एक बार उन्होंने बातों-बातों में मुझसे कह ही दिया कि यह उनका अंतिम प्रयास है, बैंक सेवा की परीक्षा का। उनकी बात सुनकर मुझे बहुत निराशा हुई। मैं उनके लिए प्रार्थना करने लगा। साथ ही मुझे यह भी लगने लगा कि जब इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति का चयन नहीं हो रहा है तो मेरे चयन की तो संभावना ही नहीं थी। मैंने पूरे मनोयोग के साथ तैयारी शुरू कर दी। मनोज, यद्यपि अपनी लगातार असफलता से हतोत्साहित थे, मेरी सहायता करने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
परीक्षा हुई, इंटरव्यू राउंड हुआ, सेवा के लिए मेरा चयन हो गया परंतु मनोज का चयन इस बार भी नहीं हुआ। मनोज ने मुसकुराते हुए मुझे गले लगाकर बधाई दी परंतु उनकी मुस्कान के पीछे मैं उनका दर्द अनुभव कर रहा था। “तुम मेरी चिंता मत करना। ईश्वर ने मेरे लिए कुछ और योजना बना रखी होगी,” एक दार्शनिक की भांति मनोज बोले।
एक वर्ष की ट्रेनिंग के बाद मेरे नियुक्ति मुंबई फोर्ट की एक शाखा में हुई। मैंने मुंबई शहर के बारे में सुन रखा था कि उस शहर में बाहर के व्यक्ति का निर्वहन बहुत कठिन है और कोई वहाँ नियुक्ति नहीं चाहता। परंतु यह भी सुन रखा था कि एक बार यदि कोई मुंबई में रह जाए कुछ साल, तो उस शहर को छोड़ना नहीं चाहता।
“आज मनोज के चार रेस्टॉरेन्ट हैं मुम्बई शहर में और उनमें से एक में हमने अभी-अभी भोजन किया है,” कहकर मैंने अपनी बात समाप्त की और एक लंबी सांस ली।
"काश, आपका भी सेलेक्शन पी.ओ. के इम्तिहान में न हुआ होता...” देवेश बुदबुदा रहा था।
नज़दीक से
- विक्रम शर्मा

